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सम्पादकीय

by
Nov 7, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Nov 2004 00:00:00

वर: क्रूरनिसगणिमहीनाममृतं यथा

क्रूर स्वभाव वालों के लिए वर वैसा ही होता है, जैसा सांप के लिए अमृत।

-भागवत (7/10/30)

पंचशील के पचास वर्ष

पंचशील की कहानी शुरू हुए 50 साल पूरे हो गए। भारत और चीन के बीच शांति और सह-अस्तित्व को ध्यान में रखते हुए 29 जून, 1954 को दोनों देशों ने पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। भारत तो हमेशा से ही शांति का पक्षधर रहा है और पंचशील सिद्धान्तों पर चलता रहा है। प्रश्न उठता है कि इन सिद्धान्तों में चुभन किसने और कब पैदा की? दोनों देश पंचशील की स्वर्ण जयंती मना रहे हैं। इस अवसर पर उन बिन्दुओं की ओर भी ध्यान देना होगा, जो चुभन पैदा करते हैं।

इस संदर्भ में सच की परतें खोलने वाले कुछ तथ्यों को अवश्य ध्यान में रखना होगा। बीजिंग में इस समझौते पर 29 अप्रैल, 1954 को चीन के विदेश उपमंत्री श्री चांग हान फू और चीन में भारत के राजदूत नेदयाम राघवन् ने हस्ताक्षर किए थे। यह समझौता 8 साल तक के लिए था। फिर इसका नवीनीकरण होना था, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने यह नहीं किया। इसके पीछे क्या कारण रहे होंगे? उन कारणों की अनदेखी करना इतिहास की अनदेखी करना होगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यही 29 जून भारत में चीन की लाल सेना या “जनमुक्ति सेना” (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) द्वारा की गयी पहली अवैध घुसपैठ का भी पचासवां साल है। 1954 में इसी दिन चीनी सेना भारतीय इलाके बड़ाहोती (उत्तराञ्चल) में घुस आयी थी और इसके बाद दोनों देशों की सरकारों के बीच खासा तनातनी का माहौल बन गया था। सही मायनों में पूछें तो यह दोनों देशों के शांतिपूर्ण भाईचारे की समाप्ति की शुरुआत थी। उसके बाद 1962 का चीनी हमला भारत कैसे भूल सकता है, जब “हिन्दी-चीनी भाई-भाई” नारे को कुचलते हुए चीन ने भारत की पीठ पर छुरा घोंपा था।

अब चीन खूब धूमधाम से पंचशील की स्वर्ण जयंती मना रहा है। पंचशील सिद्धान्तों के माध्यम से जहां भारत को आशा है कि एक नयी और भविष्योन्मुखी दोस्ती की शुरुआत हो सकती है, वहीं चीन की ओर से भी इसी प्रकार के संकेत मिल रहे हैं, जिसका स्वागत होना चाहिए। यद्यपि भूराजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चीन अपनी सैनिक शक्ति और आर्थिक प्रगति के आधार पर दुनिया की बड़ी ताकत के रूप में सामने आ रहा है, जिसका स्वाभाविक रूप से एशिया पर भी असर हो रहा है। इस समय विश्व के अन्य भागों की भांति एशिया भी इस्लामी आतंकवाद से जूझ रहा है। इस आतंकवाद का सामना जहां भारत तीव्रता से कर रहा है और उस पर सर्वाधिक आघात हो रहे हैं, वहीं चीन भी अपने यहां सर उठा रहे इस्लामी कट्टरवाद के प्रति चिंतित है। ऐसी स्थिति में भारत और चीन की भरोसा दिलाने वाली मैत्री के प्रति सभी की दृष्टि टिकी है। दक्षिण एशियाई क्षेत्र में चीन का अभूतपूर्व सैन्य विस्तार और पाकिस्तान को चीनी शस्त्रास्त्रों की मदद को भी इस परिदृश्य में महत्वपूर्ण मानकर देखना चाहिए। ये भारत की चिंताएं हैं और आशा की जानी चाहिए कि मित्रता के साथ-साथ चीन के संदर्भ में इस पहलू को भी भारत ध्यान में रखेगा।

एक साल पहले चीनी नेतृत्व ने एक और मुहावरा उछाला था, “चीन का शांतिपूर्ण उदय” और यह शांतिपूर्ण उदय एशिया के लिए लाभदायक सिद्ध होगा। यह नीति उसे “चित भी मेरी, पट भी मेरी” वाली स्थिति में पहुंचा देगी। वैसे चीन शांतिपूर्वक तेजी से विकास की नीति अपना रहा है और घोषणा कर रहा है कि इस विकास में क्षेत्रीय मुद्दे आड़े नहीं आएंगे। अगर यह बात सच है तो भारत और चीन के बीच वर्षों से उलझा सीमाओं का विवाद सुलझा लेना चाहिए। और अब जबकि फिर पंचशील की बात छिड़ी है तो भारत के लिए जरूरी है कि वह चीन से इस बात का आश्वासन ले कि अब हमारी सम्प्रभुता पर कोई आंच नहीं आएगी। लेकिन अब वादे-इरादे कोरी बयानबाजी पर आधारित न हों, बातों से ज्यादा आगे जाकर कुछ यथार्थ में होना चाहिए। तिब्बत के बारे में और सीमा विवाद पर कुछ ठोस फैसला होना ही चाहिए। पंचशील का सार सह-अस्तित्व है, सिर्फ स्व-अस्तित्व नहीं।

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