उत्तराखंड में पिछले हफ्ते हुई भारी बारिश के बाद नदियों, गदेरों और नालों ने अपने रास्ते बदल लिए हैं। इनका पानी बरसों पुराने रास्तों पर लौट आया है। इसको लेकर वन विभाग, आईआईटी रुड़की और कुमाऊं विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के साथ मिलकर एक सर्वे भी करा रहा है। जानकर कहते हैं कि नदियां, नाले-गदेरे तीस से पैंतीस साल बाद अपने पुराने रास्ते पर लौट आते हैं। उत्तराखंड में 17 से 19 अक्तूबर को हुई बारिश के बाद नदियों और नालों की कुछ ऐसी ही तस्वीर देखने को मिल रही है।
जानकारी के अनुसार कुमाऊं की नदियों के जिन तटबंध, बैराज के चैनल से पानी की निकासी हो रही थी, लगभग सभी के रास्ते बदल गए हैं। ऐसा ही कुछ 2013 में केदार आपदा के दौरान भी देखने में आया था। उस समय कहा गया था कि गंगा और उसकी सहायक नदियों ने अपना दशकों पुराना रूट पकड़ लिया और इस पुराने रूट पर बने अतिक्रमण, होटल और घरों को वह अपने साथ बहा ले गईं। इस बार की बारिश के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ है। विशेषज्ञ कहते हैं कि नदियों के किनारे बसावट पर रोक लगाने और जो बने हैं, उन्हें हटाने के लिए सख्त रुख अपनाने की जरूरत है। नदी-नालों के किनारे खेती का स्वरूप भी परंपरागत होना जरूरी है।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग के प्रोफेसर पीसी तिवारी कहते हैं कि नदियों का व्यवहार हमेशा से ही स्ट्रीम आर्डरिंग यानि रुख बदलने वाला होता है। उत्तराखंड की नदियां ज्यादा पानी में घूमकर नहीं बल्कि सीधी बहती हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि यहां ढलान बहुत है और हमें इस प्राकृतिक रूप को समझना चाहिए। इतिहासकार और पर्यावरणविद प्रोफेसर अजय रावत कहते हैं कि बरसों पहले से नदियों से दूर ऊंचाई पर इमारतें बनाने की परम्परा रही है, जिसे आज कोई समझता नहीं है। नदियों से आधा किलोमीटर दूर भवन बनने चाहिए, न कि नदियों के ऊपर। कुमाऊं की मुख्य वन संरक्षक डॉ तेजस्विनी पाटिल धकाते ने बताया कि इस बारिश में वन विभाग को 58 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। कुमाऊं क्षेत्र में करीब एक हजार नदी, नालों और गदेरों ने अपने रास्ते बदल लिए हैं। इस विषय पर विचार करने के लिए हम आईआईटी रुड़की के अध्ययन दल को आमंत्रित कर रहे हैं ताकि हम भविष्य के लिए तैयार हो सकें।
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