महावीर हनुमान के व्यक्तित्व में लोकमंगल के अप्रतिम साधक के दिग्दर्शन होते हैं। जनसामान्य को लोकसेवा का कल्याणकारी मंत्र देने वाले भक्त शिरोमणि हनुमान का जीवन यह सीख देता है कि व्यक्ति को धरती के समान सहनशील होना चाहिए, तभी बल स्थिर रह सकेगा।
आज समूचा मानव समाज कोरोना महामारी के प्रकोप से जूझ रहा है। इस राष्ट्रीय आपदाकाल में सबसे अधिक आवश्यकता है सेवा व सहयोग की। महासंकट की घड़ी में हर सच्चे भारतवासी का सबसे बड़ा धर्म हर दुखी-पीड़ित व जरूरतमंद की हर संभव सहायता का होना चाहिए। बड़ी तादात में देशवासी इस राष्ट्रधर्म के निर्वाह में प्राणप्रण जुटे भी हैं। निःसंदेह यह हमारे उन जीवंत जीवन मूल्यों की ही ताकत है, जिनके बलबूते हम सदा ही हर संकट पर विजय पाते रहे हैं। गौरतलब है कि हमारी सनातन संस्कृति में सेवा भावना जैसे महान सदगुणों के सर्वाधिक ज्वलंत प्रतीक हैं संकटमोचन हनुमान। महावीर हनुमान राम कथा के ऐसे अविस्मरणीय अमर पात्र हैं, जिनके सहयोग के बल पर ही उस महासमर में राम विजय की पटकथा लिखी गयी थी। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को मंगलवार के दिन जन्मे रुद्रावतार बजरंगबली की गणना हिन्दू धर्म के अष्टचिरंजीवियों में होती है। स्वयं श्रीराम ने उन्हें अमरत्व का वरदान दिया था। उनके महान व्यक्त्वि में हमें वीरता, साहस, सेवाभाव, ईशभक्ति, विनम्रता, कृतज्ञता, नेतृत्व और निर्णय क्षमता जैसे तमाम अनमोल सूत्र मिलते हैं, जिनको अपने जीवन में उतारकर हम सफलता के मार्ग पर सहज ही आगे बढ़ सकते हैं। आइए हनुमान जन्मोत्सव (चैत्र शुक्ल पूर्णिमा) के पुण्य पर्व पर महावीर हनुमान को नमन कर उनके चरित्र के उन गुणों को हृदयंगम करने का प्रयत्न करें जो वर्तमान के इस विषम विषाणु युद्ध की विभीषिका को निरस्त करने में हमारे सहायक बन सकते हैं।
लोकमंगल के अप्रतिम साधक
महावीर हनुमान संपूर्ण रामकथा के केंद्रीय पात्र हैं। “रामकाज कीन्हें बिनु मोहिं कहां विश्राम” के सूत्र को अपना जीवनमंत्र बना लेने वाले महावीर हनुमान के व्यक्तित्व में लोकमंगल के अप्रतिम साधक के दिग्दर्शन होते हैं। जनसामान्य को लोकसेवा का कल्याणकारी मंत्र देने वाले भक्त शिरोमणि हनुमान का जीवन यह सीख देता है कि व्यक्ति को धरती के समान सहनशील होना चाहिए, तभी बल स्थिर रह सकेगा। प्रभु श्रीराम के जीवन का प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य हनुमान द्वारा सम्पन्न हुआ। चाहे प्रभु श्रीराम की वानरराज सुग्रीव से मित्रता करानी हो, सीता माता की खोज में अथाह सागर को लांघना हो, स्वर्ण नगरी को जलाकर लंकापति का अभिमान तोड़ना हो, संजीवनी लाकर लक्ष्मण जी की प्राण-रक्षा करनी हो, प्रत्येक कार्य में भगवान राम के प्रति उनकी अनन्य आस्था प्रतिबिंबित होती है। समूची दुनिया को लोकसेवा का मंत्र देने वाले भक्त शिरोमणि हनुमान के बारे में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम स्वयं कहते हैं- जब लोक पर कोई विपत्ति आती है, तो उसके निवारण के लिए वह मेरी अभ्यर्थना करता है, लेकिन जब मुझ पर कोई संकट आता है तब मैं, उसके निवारण के लिए पवनपुत्र का स्मरण करता हूं।
बल, बुद्धि व विद्या का संतुलन
हनुमान जी अपार बलशाली हैं तो वहीं तो विद्वता में भी उनका सानी नहीं है। फिर भी उनके भीतर रंचमात्र भी अहंकार नहीं। किसी भी कार्य की सफलता के लिए व्यक्ति में बल, बुद्धि व विद्या; इन तीनों गुणों का संतुलन होना अनिवार्य होता है। इन तीनों में एक भी गुण की कमी हो तो साधना का उद्देश्य सफल नहीं हो सकता है। पहला साधना के लिए बल जरूरी है। निर्बल व कायर व्यक्ति साधना का अधिकारी नहीं हो सकता। दूसरे, साधक में बुद्धि और विचारशक्ति होनी चाहिए। इसके बिना साधक पात्रता विकसित नहीं कर पाता और तीसरे विद्या, क्योंकि विद्यावान व्यक्ति ही आत्मज्ञान हासिल कर माया की ग्रंथि खोल सकने में सक्षम हो सकता है। महावीर हनुमान इन तीनों गुणों के समन्वय के अद्वितीय उदाहरण हैं।
अटूट ईशभक्ति
महावीर हनुमान के व्यक्तित्व में अपने आराध्य प्रभु राम के प्रति अटूट भक्ति दिखायी देती है। वे अपने किये बड़े से बड़े कार्य का श्रेय भगवान राम को देते हैं। विशाल समुद्र को लांघ कर रावण की लंका में आग लगाकर जब पवनपुत्र भगवान राम के पास पहुंचे तो उन्होंने हनुमान जी की प्रशंसा करते हुए कहा कि हे अंजनिनंदन ! इतना बड़ा कार्य, सौ योजन का समुद्र तुमने कैसे लांघा। तब हनुमंतलला ने बड़ी विनम्रता से कहा, प्रभु ये सब सिर्फ आपकी कृपा है। ‘’प्रभु मुद्रिका मेल मुख माही ’’ अर्थात ये सब प्रताप तो आपकी मुद्रिका यानी अंगुठी का था जिसे मुंह में रख कर ही मैं सागर पार कर पाया। यह सुनकर श्रीराम ने मुस्कुरा कर, कहा चलो मान लिया किंतु वापस आते समय तो तुम्हारे पास मुद्रिका नहीं थी वो तो तुम जानकी को दे आये थे फिर कैसे सागर पार पार किया ? इस पर हनुमानजी बड़ी विनम्रता से बोले, ‘’प्रभु ! समुद्र के इस पार से उस पार तो आपकी मुद्रिका ने लगाया और वापसी में मां जानकी द्वारा दी गयी चूड़ामणि ने। अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा व भक्ति का ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। हनुमान जी की इस अटूट भक्ति को देखकर भगवान राम आत्मविभोर हो गये, गदगद स्वर में राघुनाथजी ने हनुमानजी को कहा- सहस वदन तुम्हरो जश गावे, इसलिये हे पवनपुत्र, तुम त्याग समपर्ण, भक्ति और सेवा के आदर्श हो, इसी कारण सारी दुनिया तुम्हारे यश का गान करेगी। आज की इन विषम स्थितियों में हमें भी उनकी तरह अपने इष्ट पर पूरा विश्वास रखना चाहिए कि वे हमें हर समस्या से उबार लेंगे।
विवेक के अनुसार निर्णय
अवसर के अनुसार खुद को ढाल लेने की हनुमानजी की प्रवृत्ति अद्भुत है। जिस वक्त लक्ष्मण रणभूमि में मूर्छित हो गए, उनके प्राणों की रक्षा के लिए वे पूरे पहाड़ उठा लाए, क्योंकि वे संजीवनी बूटी नहीं पहचानते थे। अपने इस गुण के माध्यम से वे हमें तात्कालिक विषम स्थिति में विवेकानुसार निर्णय लेने की प्रेरणा देते हैं। हनुमान जी हमें भावनाओं का संतुलन भी सिखाते हैं। लंका दहन के बाद जब वह दोबारा सीता जी का आशीष लेने पहुंचे, तो उन्होंने उनसे कहा कि वे अभी उन्हें वहां से ले जा सकते हैं, लेकिन वे ऐसा करना नहीं चाहते हैं। रावण का वध करने के पश्चात ही प्रभु श्रीराम आपको यहां से आदर सहित ले जाएंगे। इसलिए उन्होंने सीता माता को उचित समय पर आकर ससम्मान वापस ले जाने को आश्वस्त किया।
आदर्शों से समझौता नहीं
महावीर हनुमान ने अपने जीवन में आदर्शों से कोई समझौता नहीं किया। लंका में रावण के उपवन में हनुमान जी और मेघनाथ के मध्य हुए युद्ध में मेघनाथ ने ‘ब्रह्मास्त्र’ का प्रयोग किया। हनुमान जी चाहते तो वे इसका तोड़ निकाल सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वे उसका महत्व कम नहीं करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मास्त्र का तीव्र आघात सह लिया। तुलसीदास जी ने हनुमान जी की मानसिकता का चित्रण करते हुए लिखा है – ‘ब्रह्मा अस्त्र तेहि सांधा, कपि मन कीन्ह विचार। जौ न ब्रहासर मानऊं, महिमा मिटई अपार।।
हनुमान के जीवन से हम शक्ति व सामर्थ्य के अवसर के अनुकूल उचित प्रदर्शन का गुण सीख सकते हैं।
राम कथा के तमाम उद्धरण बताते हैं कि जिसने भी अहंकार किया, हनुमान जी ने उसका मद चूर कर दिया। सीता हरण के बाद न सिर्फ तमाम बाधाओं से लड़ते हुए हनुमान जी समुद्र पार कर लंका पहुंचे व अहंकारी रावण का मद चूर-चूर कर दिया। जिस स्वर्ण-लंका पर रावण को अभिमान था, हनुमान जी ने उसे दहन कर दिया। यह रावण के अहंकार का प्रतीकात्मक दहन था। हनुमान जी सही मायने में सर्वतोमुखी शक्ति के पर्याय कहे जाते हैं। भूख लगी तो सूर्य को निगलने दौड़ पड़े। संजीवनी बूटी न मिली तो पर्वत ही पूरा उखाड़ लिया, अपने इन्हीं सद्गुणों के कारण वे देवरूप में पूजे जाते हैं।
पूनम नेगी
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