मालेगांव विस्फोट कांड में मुंबई की विशेष एनआईए अदालत द्वारा सभी सातों आरोपियों को बरी किया जाना ‘सत्यमेव जयते’ का सिंहनाद है। यह निर्णय वह ऐतिहासिक क्षण है, जब सत्य, अन्याय के शोरगुल के पार खड़ा होकर घोषणा कर रहा है कि “मैं पराजित नहीं, केवल प्रतीक्षित था।” यह निर्णय केवल अभियुक्तों की दोषमुक्ति नहीं, बल्कि एक षड्यंत्र के शमन और सनातन पर हुए संदेह के संहार का उद्घोष है।
यह उस सत्य की पुनर्प्रतिष्ठा है, जिसे कांग्रेस की कुटिल सत्ता ने साजिश, संदेह और सुनियोजित अपकीर्ति के अंधकार में कैद रखने का षड्यंत्र रचा था।
यह कांग्रेस के उस चरित्र का पर्दाफ़ाश है, जो सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के लिए न्याय को कुचलने, राष्ट्र को कलंकित करने और साधु-सैनिकों की संपूर्ण साधना को अपमानित करने से भी नहीं हिचकिचाया। यह एक दु:साहसी दुष्चक्र के ध्वंस का आरंभ है।
भगवा पर षड्यंत्र का भार
2008 में मालेगांव विस्फोट की दुर्भाग्यपूर्ण घटना को सत्ता की सियासत ने न्याय के विमर्श से हटा कर केवल एक राजनीतिक प्रयोगशाला बना डाला। जो भगवा युगों से त्याग, तपस्या और तेजस्विता का प्रतीक है, उसे आतंक का पर्याय ठहराने की कपटी कोशिश की गई।
‘भगवा आतंकवाद’ ये वो शब्द था, जिसे चुनावी लाभ के लिए कांग्रेस ने गढ़ा, मीडिया ने गाया और सियासत ने देश की आत्मा पर थोप दिया। इस जुमले में न केवल भाषा की मर्यादा टूटी, अपितु राष्ट्र की आत्मा भी आहत हुई।
कांग्रेस की यह कुनीति कोई चूक नहीं थी, यह एक सुविचारित साजिश थी, भारत की मूल चेतना को कलंकित करने का षड्यंत्र था। एक सोची-समझी रणनीति थी, जिसकी जड़ें देश के सांस्कृतिक मर्म को काटने के लिए बोई गई थीं।
राहुल गांधी ने अमेरिका के राजदूत से कहा था कि “हिंदू आतंक लश्कर से भी बड़ा खतरा है।” क्या आज राहुल गांधी और कांग्रेस राष्ट्र से क्षमा मांगेंगे?
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ललकार
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस निर्णय को न केवल न्याय का उद्घोष कहा, बल्कि भारतविरोधी नैरेटिव के विध्वंस के रूप में देखा।
“मालेगांव विस्फोट प्रकरण में सभी आरोपियों का निर्दोष सिद्ध होना ‘सत्यमेव जयते’ की सजीव उद्घोषणा है। यह निर्णय कांग्रेस के भारत विरोधी, न्याय विरोधी और सनातन विरोधी चरित्र को पुनः उजागर करता है, जिसने ‘भगवा आतंकवाद’ जैसा मिथ्या शब्द गढ़कर करोड़ों सनातन आस्थावानों, साधु-संतों और राष्ट्रसेवकों की छवि को कलंकित करने का अपराध किया है। कांग्रेस को अपने अक्षम्य कुकृत्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हुए देश से माफी मांगनी चाहिए।”
यह केवल मुख्यमंत्री का वक्तव्य नहीं, देश की संवेदनशील आत्मा की स्वरबद्ध उद्घोषणा है, जो कह रही है “अब और नहीं।”
निर्दोषों की पीड़ा : साध्वी से सैनिक तक
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित, मेजर रमेश उपाध्याय, सुधाकर चतुर्वेदी, समीर कुलकर्णी समेत सभी अभियुक्त, ये वे नाम हैं, जिन्होंने वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे सत्ता की सनक की कीमत चुकाई।
कठोर यातनाओं के चलते साध्वी प्रज्ञा का स्वास्थ्य चिरकालिक रूप से क्षतिग्रस्त हुआ। साध्वी प्रज्ञा आज भी जब बोलती हैं, उनकी आवाज में वह पीड़ा झलकती है जो एक राजनीतिक प्रहार और कूटनीतिक कारावास की परिणति है। एक महिला संन्यासिनी को हिंदू होने की सजा दी गई, उन्हें अदालतों में घसीटा गया, परिजन तोड़े गए, मनोबल मारा गया।
लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित जो भारतीय सेना में आतंक-निरोधी अभियानों में सहभागी थे, देश के प्रति समर्पित फौजी थे, उन्हें बिना किसी ठोस साक्ष्य के 9 वर्षों तक सलाखों के पीछे रखा गया।
इन सबकी पीड़ा, उनके मौन, उनकी कराह और समाज की चुप्पी, यह भारत के लोकतंत्र पर अनुत्तरित प्रश्नचिह्न की भांति अटक गई थी।
आज निर्दोष साबित होने पर क्या कांग्रेस उनके खोए हुए सम्मान, जीवन के लुटे हुए वर्ष, और अपमानित अस्तित्व का प्रायश्चित कर सकती है..? क्या कांग्रेस भारत की सभ्यता से यह कहेगी कि ‘हां, हमने तुम्हें बदनाम किया, क्योंकि तुम्हारा भगवा हमें असहज करता था’?
इस ऐतिहासिक निर्णय में जब विशेष अदालत ने स्पष्ट कहा कि ‘इन अभियुक्तों के विरुद्ध कोई विश्वसनीय प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया जा सका’ तो यह केवल एक कानूनी टिप्पणी नहीं, बल्कि कांग्रेस की वैचारिक विफलता का अभिलेख है।
निर्णय का समाज-राजनीति पर प्रभाव
यह निर्णय वामपंथी मानस को झकझोरेगा और कांग्रेस जैसे दलों को यह सोचने पर विवश करेगा कि वोटबैंक की राजनीति के लिए देश की संस्कृति को बलि नहीं चढ़ाया जा सकता।
अब कांग्रेस को जवाब देना होगा कि उसने राजनीति के लिए राष्ट्रीय अस्मिता को क्यों नीलाम किया? वह क्यों चुप रही जब निर्दोषों की यातनाएं चीख रहीं थीं? वह क्यों धर्म के नाम पर न्याय को विभाजित कर रही थी? यह निर्णय 2024 के बाद कांग्रेस के वैचारिक ढांचे को और भी जर्जर करेगा।
यह फैसला मीडिया की उस प्रवृत्ति को भी कठघरे में खड़ा करता है जो ‘इल्ज़ाम को ही इल्म समझती है।’ खुद ही अदालत बन जाती है। TRP की दौड़ में बिना जांच-पड़ताल किए किसी भी व्यक्ति के सम्मान और चरित्र का चरित्र कलंकित कर देती है।
अब आम नागरिक भी पूछेगा कि क्या खबरों की हेडलाइनों के नीचे छुपा सच कभी मीडिया के गिरेबान में झांकेगा!
वर्षों तक केस खिंचने के बाद यह फैसला एक बात स्पष्ट करता है कि सत्य को जितना भी दबाया जाए, वह अंततः उग आता है। यह भारतीय न्याय व्यवस्था की उस संवेदनशील दृढ़ता का प्रमाण है, जो राजनीति की छाया से परे है।
अब ‘सत्यमेव जयते’ केवल शिलालेख नहीं, संघर्ष और संकल्प का सजीव संदेश है। यह उन सबके लिए चेतावनी है, जो सत्ता की साजिश में सत्य को दफन करना चाहते हैं, जो सनातन के प्रतीकों को अपराध की भाषा में ढालना चाहते हैं, जो राष्ट्र की संस्कृति को वोटबैंक की बलि चढ़ा देना चाहते हैं।
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