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कृषि : देश की अर्थव्यवस्था में तो समृद्धि के लिए ‘क्रांति’ नहीं, शांति से सोचिए

देश की अर्थव्यवस्था में तो समृद्धि आई है लेकिन समाज के विभिन्न वर्गों तक उसका लाभ समान रूप से अभी नहीं पहुंचा है। विशेषकर ग्रामीण समुदाय को उसका समुचित भाग नहीं मिला है। इस दिशा में और प्रयास अपेक्षित है (खेती-किसानी-2)

by नरेश सिरोही
Jul 17, 2025, 10:14 pm IST
in भारत, विश्लेषण
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एक ओर हरित क्रांति कृषि और खाद्य सुरक्षा के लिए वरदान साबित हुई, तो दूसरी ओर लंबे समय से अपनाई जा रही इस कृषि प्रणाली के कारण भूमि, जल, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों, सूक्ष्मजीवों इत्यादि के संरक्षण, संवर्धन और दीर्घकालिक टिकाऊ प्रयोग का समेकित कार्यक्रम न होने से बहुमूल्य प्राकृतिक और जैविक संसाधनों का भयावह ह्रास हुआ है। मुख्यतः तेजी से घटता जोत का आकार, कृषि पर निर्भर आबादी का बढ़ना, जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता जोखिम व भारी नुकसान और प्राकृतिक संसाधनों के ह्रास से कृषि की स्थिरता ग्रामीण परिवारों की दीर्घकालिक आर्थिक स्थिति के लिए चिंता का विषय है। इन सब कारणों से किसानों के लिए खेती अब बहुत लाभकारी नहीं रह गई है। लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन सर्वेक्षण के ताजा आंकड़ों के अनुसार, बीते कुछ वर्षों से कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या बढ़ रही है, क्योंकि उत्पादन और सेवा क्षेत्र में पर्याप्त रोजगार उत्पन्न नहीं हो रहा। अभी भी 50 प्रतिशत से अधिक कार्यबल को कृषि क्षेत्र में ही काम मिल रहा है।

नरेश सिरोही
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, भाजपा किसान मोर्चा

क्रमिक कृषि सुधारों और हरित क्रांति प्रौद्योगिकी से खाद्य उत्पादन में युगांतकारी परिवर्तन के बावजूद कृषि एवं किसान संबंधी नीतियों में कसावट दरकने की वजह से गैर कृषि कार्य करने वालों के मुकाबले किसानों की आय अपेक्षाकृत नहीं बढ़ी। इन दोनों वर्गों की आय में विषमता दिनोंदिन बढ़ती गई। सीधे तौर पर कह सकते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था में जो समृद्धि आई है, उसका वितरण अर्थव्यवस्था एवं समाज के विभिन्न वर्गों में समान रूप से नहीं हुआ, विशेषकर ग्रामीण समुदाय को उसका समुचित भाग नहीं मिला। परिस्थितिजन्य समस्याओं से किसानों को उबारने के लिए भी कोई कारगर व्यवस्था अभी तक नहीं हो पाई है।

दूसरी ओर, इसने राष्ट्र के समक्ष नई चुनौतियां भी प्रतुत की हैं, जिनमें गिरती उत्पादकता, पोषक तत्वों, विशेषरूप से नाइट्रोजन का अपर्याप्त एवं असंतुलित उपयोग, जल एवं पोषक तत्व उपयोग दक्षता का कम होना, प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण, सिंचाई के लिए समुचित जल का अभाव, आदान सामग्रियों की बढ़ती अत्यधिक लागत, रोगों एवं कीटनाशकों की वृद्धि, पोषाहार गुणवत्ता तथा खाद्य सुरक्षा की बढ़ती चिंता के साथ जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव जैसी चुनौतियां शामिल हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि हरित क्रांति देश की कृषि और खाद्य सुरक्षा को लेकर जहां वरदान साबित हुई तो दूसरी ओर मिट्टी, पानी, जैव विविधता, मानवीय स्वास्थ्य और प्रकृति प्रदत्त सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर आधारित स्वावलंबी कृषि पद्धति को मटियामेट करते हुए अभिशाप में तब्दील हो गई।

कृषि और किसान क्यों पिछड़े?

भारत में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संपदा है। कृषि और पशुपालन क्षेत्र में यह विश्व में अति संपन्न है। भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.87 करोड़ हेक्टेयर है, जो विश्व के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 2.4 प्रतिशत है। यहां विश्व की 18 प्रतिशत आबादी रहती है। दुनिया की कुल भूमि का 11 प्रतिशत हिस्सा ही कृषि योग्य है, जबकि भारत में कृषि योग्य भूमि लगभग 56 प्रतिशत है। पूरे विश्व में 64 तरह की मिट्टी पाई जाती है, जिनमें से अधिकांश भारत में उपलब्ध है। 46 प्रकार की मिट्टी तो बहुतायत में उपलब्ध है।

वर्षा, सतही और भू-जल की उपलब्धता में भी देश काफी संपन्न है। भारत में हर वर्ष लगभग 4,000 अरब घन मीटर वर्षा होती है। लेकिन मात्र 10-15 प्रतिशत का ही उपयोग होता है। देश के कुल भू-भाग 32.87 करोड़ हेक्टेयर में से लगभग 30 करोड़ हेक्टेयर जलभरण क्षेत्र, यानी कैचमेंट एरिया है। देश में लगभग 445 नदियां हैं, जिनकी लंबाई लगभग दो लाख किलोमीटर है। एक अनुमान के अनुसार, 1947 में वर्षा जल संरक्षण के लिए देश में लगभग 28 लाख झील और पोखर थे, जिनकी संख्या में काफी गिरावट आई है। हरित क्रांति में अत्यधिक जल-दोहन के कारण देश के लगभग 264 जिलों से अधिक ‘डार्क जोन’ में चले गए हैं। आज भू-जल स्तर प्रतिवर्ष 0.3 मीटर की दर से घट रहा है।

दुनिया में 15 प्रकार के जलवायु क्षेत्र हैं। कृषि के हिसाब से 127 जलवायु क्षेत्र हैं, जो भारत में उपलब्ध हैं। दुनिया की छह ऋ तुएं भी यहां उपलब्ध हैं। जैव विविधता की दृष्टि से देखें तो 48,000 किस्म के पेड़-पौधों में 1,500 खाद्य पौधे हैं तथा घरेलू व वन्य प्राणियों की 811 नस्लें यहां पाई जाती हैं, जो विश्व जैव संपदा का 11 एवं 10 प्रतिशत है। यही नहीं, फलों की लगभग 375 किस्में, 280 तरह की सब्जियां, लगभग 80 प्रकार के कंद-मूल, लगभग 60 प्रकार के खाने वाले फूल, बीज व मेवे भी उपलब्ध हैं।

विश्व के किसी भी देश में पालतू पशुओं की इतनी नस्लें नहीं हैं, जितनी भारत में हैं। दुनिया में 98.7 करोड़ पशुधन है, जिसका 31 प्रतिशत भारत में है। देश में गायों की 65 (53 नस्लों को मान्यता), बकरी की 42, भेड़ों की 20, भैंसों की 8, घोड़ों और ऊंटों की 6-6 नस्लें हैं। इसके अलावा, भारत में 7,700 किमी. लंबा समुद्र तट और 20 लाख वर्ग किमी. का विशेष आर्थिक क्षेत्र है, जो न केवल मत्स्य पालन, बल्कि तेल, गैस और खनिज संसाधनों की प्रचुर संभावनाएं भी रखता है।

ऐसे में प्रश्न उठता है कि प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद कृषि में अपेक्षित प्रगति क्यों नहीं हुई? ग्रामीण विकास की धीमी-पिछड़ी गति में विद्यमान संभावनाओं का उपयोग क्यों नहीं हो पा रहा है? कृषकों, ग्रामीण जीवन का स्तर, उनकी राष्ट्र के जीवन में भूमिका क्यों नहीं उभर पा रही है? समस्या के सभी पक्षों और पहलुओं पर विचार के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि खेती और ग्रामीण विकास पर उतना ध्यान नहीं दिया गया, जितना अपेक्षित था।

देश में औद्योगीकरण, वित्तीय कराधान, व्यापार, आयात-निर्यात, यातायात, खनिज, मनोरंजन, पर्यटन आदि छोटे-बड़े सभी क्षेत्रों पर राष्ट्रीय नीति बनी, लेकिन कृषि क्षेत्र के लिए गठित अनेक समितियों की रिपोर्ट के बावजूद आज तक इस क्षेत्र के लिए समग्र, समेकित राष्ट्रीय नीति नहीं बनी। जो थोड़ा बहुत काम (कृषि नीति-2000 एवं 2007) हुआ भी है, तो उसके अपेक्षित परिणाम नहीं दिख रहे हैं।
अत: प्राकृतिक व मानवीय संसाधनों के दीर्घकालिक, टिकाऊ और समुचित उपयोग के कार्यक्रमों के साथ-साथ किसानों को राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में उचित भूमिका व आर्थिक प्रगति में उचित हिस्सा देने की योजना पर काम करने की आवश्यकता है।

इस खबर को भी पढ़ें-#कृषि विशेष : खेत के रास्ते आई खुशहाली

बिजली से आसान हुई खेती

इसमें कोई दो राय नहीं है कि जहां बिजली पहुंची है, वहां खेती-किसानी आसान हो गई है। 2014 से पहले देश में ऐसे गांव लाखों में थे, जहां बिजली नहीं थी। अब उन गांवों में बिजली पहुंच गई है, तो लोग पानी की मोटर लगाकर वहां भी खेती करने लगे हैं, जहां कभी खेती होती ही नहीं थी। झारखंड के गोड्डा जिले में ऐसे बहुत सारे गांव हैं। यहां की जमीन पथरीली है। इसलिए हर जगह फसल नहीं लग पाती थी। अब लोग मोटर के जरिए कुंआ या किसी तालाब से पानी उंचे स्थान पर भी ले जाते हैं और जमकर खेती करते हैं। पथरगामा प्रखंड का एक गांव है— लकरजोरी। यहां के लोग पथरीली जमीन में भी खेती करने लगे हैं। गांव के गोपाल बताते हैं कि बिजली से खेती आसान हो गई है। यह अलग बात है कि कभी प्राकृतिक प्रकोप से फसल खराब हो जाती है, लेकिन सब कुछ सही रहने पर गुजारा लायक अन्न मिल जाता है। सब्जी बेचने से हाथ में कुछ नगदी भी रहती है। पहले पानी के अभाव में खेती नहीं हो पाती थी।

खेती किसानी-1 

समर्थ किसान, सशक्त देश स्वतंत्रता के बाद कृषि क्षेत्र में आशातीत प्रगति हुई। आज हम खाद्यान्न आयातक से निर्यातक देश बन गए हैं, पर कुछ ऐसी कमियां रह गई हैं, जिसके कारण कृषि व किसान पर कई संकट भी हैं। इनमें सुधार के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे

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