भारत के लोकतंत्र में मत का अधिकार केवल एक राजनीतिक अधिकार नहीं, बल्कि नागरिकता की पुष्टि का प्रमाण भी है। हाल ही में चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के विशेष सघन पुनरीक्षण का आदेश उसी शुद्धता की संवैधानिक जिम्मेदारी को निभाने की प्रक्रिया है, जिसे दुर्भाग्यवश कुछ संगठन और याचिकाकर्ता न केवल भ्रमित कर रहे हैं, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को ही खोखला करने का दुस्साहस कर रहे हैं। यह आवश्यक है कि इस पूरे विवाद को संवैधानिक मूल्यों, लोकतंत्र की जीवंतता और चुनाव आयोग की भूमिका को केंद्र में रखते हुए समझा जाए।
भ्रांति और अनुच्छेदों की तोड़-मरोड़
गत 24 जून को चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची के सघन पुनरीक्षण आदेश जारी किया। इसके तुरंत बाद सेकुलर राजनीतिक दलों के नेता और संगठन ने इस पर रोक लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दाखिल कर दीं। इनमें गैर सरकारी संगठन एडीआर, राजद सांसद मनोज झा, तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा, योगेंद्र यादव और अन्य कई विपक्षी दलों के नेता शामिल हैं। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने आयोग के अभियान पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है। न्यायालय ने चुनाव आयोग को मतदाता सूची का पुनरीक्षण करने का संवैधानिक अधिकार बताते हुए स्पष्ट कहा है कि ‘हम सांविधानिक संस्था को वह करने से नहीं रोक सकते जो उसे करना चाहिए।’ न्यायालय ने अगली सुनवाई 28 जुलाई को तय की है। याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, गोपाल शंकर नारायण आदि पैरवी कर रहे हैं।
याचिकाकर्ता का सबसे बड़ा तर्क यह है कि चुनाव आयोग का आदेश संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21, 325, 326 और जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 तथा मतदाता पंजीकरण नियम 1960 के नियम 21ए का उल्लंघन करता है। पर यह तर्क न केवल भ्रमित करता है, बल्कि मूल संविधान की भावना के विरुद्ध भी है। अनुच्छेद 325 और 326 स्पष्ट करते हैं कि कोई नागरिक केवल जाति, पंथ या लिंग के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता और मत का अधिकार ‘विधान द्वारा विनियमित’ होगा। यानी दस्तावेज और प्रमाणों की मांग स्वयं संविधान सम्मत है, न कि उसका उल्लंघन। सर्वोच्च न्यायालय Resurgence India vs ECI (2014) जैसे निर्णयों में मतदाता सूची की शुद्धता को लोकतंत्र की मजबूती का अनिवार्य हिस्सा माना गया है।
डर की राजनीति
सबसे हास्यास्पद आरोप यह लगाया जा रहा है कि इस आदेश से लाखों लोग मताधिकार से वंचित हो सकते हैं। यह पूरी तरह अतिरंजित और आधारहीन डर है। मतदाता सूची का पुनरीक्षण कोई दंडात्मक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक नियमित नागरिकता आधारित सत्यापन है। कोई वैध भारतीय नागरिक, जो प्रक्रिया का पालन करता है, कभी मतदान से बाहर नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत, अवैध प्रविष्टियां बनी रहती हैं तो यह संविधान की मूल संरचना और निष्पक्ष चुनावों पर आघात है।
दस्तावेज मांगना भेदभाव नहीं
चुनाव आयोग के विरोधियों का आरोप है कि समयबद्ध तरीके से दस्तावेज मांगना गरीबों और आम नागरिकों को बाहर कर देगा। यह तर्क समान रूप से जनगणना, पासपोर्ट सत्यापन और आधार लिंकिंग पर भी लगाया जा सकता है। तो क्या उन्हें भी रद्द कर देना चाहिए? दस्तावेज मांगना प्रशासनिक पारदर्शिता का हिस्सा है, भेदभाव नहीं। आयोग ने अभी कोई नाम नहीं काटा है, केवल जांच शुरू की है। इसमें भी अपील और प्रत्यावेदन की सुविधा उपलब्ध है।
नागरिकता सिद्ध करने की जिम्मेदारी किसकी?
यह कह देना कि नागरिकता सिद्ध करने का भार नागरिक पर डालना अनुचित है, एक बचकाना और खतरनाक तर्क है। राशन कार्ड, पैन कार्ड, आधार कार्ड– हर सरकारी सुविधा के लिए नागरिकता की पुष्टि अनिवार्य है और उसके लिए नागरिक का सहयोग भी आवश्यक है। यदि यह जिम्मेदारी राज्य अपने ऊपर ले ले, तो धोखाधड़ी और फर्जीवाड़े की संभावनाएं कई गुना बढ़ जाती हैं। पीयूसीएल बनाम भारत संघ (2003) में सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्पष्ट किया है कि मतदाता सूची की शुद्धता संविधान का अनिवार्य अंग है।
गरीबी की ओट में झूठ
एक और भ्रम यह फैलाया जा रहा है कि यह गरीबों को हाशिए पर धकेलने की तैयारी है, क्योंकि आधार और राशन कार्ड जैसे दस्तावेजों को पर्याप्त नहीं माना गया। परंतु सच यह है कि भारत में नागरिकता निर्धारण अमीरी-गरीबी पर नहीं, कानूनी और जन्मसिद्ध आधार पर होता है। यूआईडीएआई ने स्वयं न्यायालय में स्वीकार किया है कि आधार ‘नागरिकता प्रमाण’ नहीं है। सिर्फ पहचान नहीं, नागरिकता का प्रमाण आवश्यक है। अन्यथा, बांग्लादेशी और रोहिंग्या जैसे अवैध घुसपैठिए भी मतदाता बन सकते हैं।
माता-पिता की नागरिकता का प्रमाण आवश्यक क्यों?
विरोधियों ने यह भी प्रश्न उठाया है कि माता-पिता की नागरिकता का प्रमाण मांगना अनुच्छेद-326 के विरुद्ध है। यह सरासर गलत है। यदि कोई व्यक्ति ऐसे क्षेत्र से आता है, जहां अवैध घुसपैठ की प्रबल आशंका है, तो उसकी नागरिकता की पुष्टि हेतु माता-पिता के दस्तावेज एक तार्किक और वैध उपाय हैं। यह व्यवस्था पूरे राज्य पर नहीं, केवल संदिग्ध और सीमावर्ती क्षेत्रों में लागू होती है।
समयसीमा : अनुशासन या साजिश?
यह कहना कि बिहार में समयसीमा अव्यावहारिक है, एक और अतिशयोक्ति है। किसी भी प्रशासनिक प्रक्रिया में अनुशासन की आवश्यकता होती है। समयसीमा चरणबद्ध होती है और उसमें आपत्ति व प्रत्यावेदन का अधिकार सुरक्षित रहता है। यदि कोई वास्तविक नागरिक दस्तावेज़ नहीं दे पा रहा, तो यह सुधार का अवसर है, असफलता नहीं। इसमें पंचायतों, राज्य सरकारों और सीएसी केंद्रों की भूमिका बढ़ सकती है, जिसे बाधा नहीं, समाधान के रूप में देखा जाना चाहिए।
लोकतांत्रिक सुधारों पर हमला
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) जैसे संगठन, जो स्वयं को लोकतांत्रिक सुधारों का पक्षधर बताते हैं, यदि इस आदेश के विरुद्ध याचिका दायर करते हैं, तो यह उनके दोहरे मापदंड का प्रमाण है। चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है, जिसे मतदाता सूची की शुद्धता हेतु विशेष पुनरीक्षण का पूर्ण अधिकार है। इस आदेश के विरोध में प्रस्तुत आशंकाएं या तो अतिरेकी हैं या राजनीतिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त।
वास्तव में, यह याचिका लोकतंत्र के शुद्धिकरण की राह में बाधा है। यह अवैध प्रविष्टियों को संरक्षित करने की मानसिकता को बढ़ावा देती है। मतदाता सूची को नागरिकता आधारित और सत्यापित बनाना लोकतंत्र का सबसे बुनियादी सुधार है और यह आदेश उसी दिशा में उठाया गया एक तार्किक, संवैधानिक और समयानुकूल कदम है। इसे रोकना, संविधान के मर्म पर आघात करना है और इसकी इजाजत लोकतंत्र कभी नहीं देगा। भारत में लोकतंत्र केवल चुनावों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संस्थाओं, प्रक्रियाओं और नागरिक सहभागिता पर आधारित एक जीवंत व्यवस्था है। कुछ संगठन ऐसे हैं जो नाम से तो लोकतांत्रिक, जनहितकारी या मानवाधिकार समर्थक लगते हैं, किंतु जिनकी कार्यप्रणाली बार-बार भारत की संवैधानिक व्यवस्थाओं, सुरक्षा हितों और सामाजिक समरसता के विरुद्ध पाई गई है। इन संगठनों का नाम भले ही लोकतंत्र, मानवाधिकार या सामाजिक न्याय की बात करता हो, किंतु इनकी कार्यशैली अक्सर विचारधारात्मक पूर्वाग्रही, एकतरफा आलोचना और भारत विरोधी नैरेटिव को बढ़ावा देने वाली पाई गई है।
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