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सामने आई सरस्वती!

बहज गांव (राजस्थान) में ताजा खुदाई से ऐसे अनेक प्रमाण मिले हैं, जो प्राचीन सरस्वती नदी के भौगोलिक अस्तित्व को एक बार फिर से पुष्ट करते हैं। यह खोज सरस्वती नदी की ऐतिहासिकता, महाभारत कालीन जनजीवन और गुप्तकाल तक सांस्कृतिक निरंतरता को भौतिक प्रमाणों के साथ जोड़ती है

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डॉ. रत्नेश कुमार त्रिपाठी

अभी तक सरस्वती नदी के विषय में जो जानकारी मिली थी वह सरस्वती नदी सभ्यता और वैदिक सभ्यता को महाभारत तक ले जा रही थी, लेकिन भरतपुर (राजस्थान) जिले के डीग क्षेत्र के बहज गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ए.एस.आई.) द्वारा की गई खुदाई में प्राचीन सरस्वती नदी के प्रवाह का साक्ष्य मिलने के साथ ही लगभग 4,500 वर्ष पुरानी एक समृद्ध सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस स्थल से हड़प्पा से आगे सरस्वती सभ्यता, महाभारत काल, मौर्य, कुषाण और गुप्त काल तक के लगभग 800 से अधिक पुरातात्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं।

डॉ. रत्नेश कुमार त्रिपाठी
सहायक प्राध्यापक, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

इन अवशेषों में यज्ञ कुंड, ब्राह्मी लिपि की मुहरें, शिव-पार्वती की टेराकोटा मूर्तियां, तांबे और लोहे के औजार, शंख और चूड़ियों के टुकड़े, मूल्यवान पत्थरों की मालाएं और अन्य धार्मिक और घरेलू सामग्री शामिल हैं। यह खोज न केवल सरस्वती नदी के भौगोलिक अस्तित्व की पुष्टि करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि यह क्षेत्र हजारों वर्षों तक धार्मिक, सांस्कृतिक और शिल्पकला का केंद्र रहा है। इस खोज ने भारतीय उपमहाद्वीप के प्राचीन इतिहास और सभ्यताओं के अध्य्यन के क्षेत्र में एक नई दृष्टि प्रदान की है, जो सरस्वती नदी की ऐतिहासिकता, महाभारत कालीन जन-जीवन और गुप्तकाल तक सांस्कृतिक निरंतरता को भौतिक प्रमाणों के साथ जोड़ती है।

ए.एस.आई. की देखरेख में यहां जनवरी, 2024 से जून, 2025 तक उत्खनन हुआ। इसमें 23 मीटर तक जाने पर एक पैलियो चैनल (प्राचीन नदी अवशेष) पाया गया, जो संभवतः ऋ ग्वैदिक सरस्वती का मार्ग हो सकता है। पैलियो चैनल के लिए पुरातत्वविदों ने कहा है—यह खोज अभूतपूर्व है और यह साबित करती है कि प्राचीन जल प्रणालियों से यह सभ्यता सुसज्जित थी। इसने यह दर्शाया कि बहज क्षेत्र वैदिक समय में ही जल और जीवन का केंद्र रहा होगा। साथ ही, लौह–ताम्र उपकरणों की खोज ने यह संकेत दिया कि यहां के निवासी धातु शिल्प में प्रवीण थे।

इस खुदाई प्रक्रिया में ए.एस.आई. जयपुर क्षेत्र की टीम के साथ ही ओ.एन.जी.सी., इसरो और ज्योलाजिकल सर्वे आफ इंडिया (जी.एस.आई.) जैसी संस्थाओं का भी सहयोग रहा। विश्लेषण में पाया गया कि गेरुआ रंग के बर्तन (ओ.सी.पी.), पी.जी.डब्ल्यू. की इकठ्ठी हुई मोटी परत और प्राथमिक स्तर से प्राप्त संरचनाओं ने यह स्पष्ट किया कि यह स्थल वैदिक और उससे पूर्व के समय से लगातार बसा रहा है। इस खबर के बाहर आने के बाद बाैद्धिक जगत में एक नई हलचल हुई, कई धारणाएं ध्वस्त हुईं।

इससे पहले राखीगढ़ी, भिराणा, लोथल, कालीबंगा, घाघर घाटी, बनावली, धौलावीरा में भी खुदाई हो चुकी है। इन स्थलों की खुदाई ने भी प्राचीन सरस्वती नदी के अस्तित्व को स्वीकारा है। हमारे ग्रंथों में ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं, जो बताते हैं कि प्राचीन काल में सरस्वती नदी थी, जो आदिबद्री (हरियाणा) से निकलकर गुजरात में समुद्र में मिलती थी। हालांकि इरफान हबीब जैसे वामपंथी इतिहासकार इस तथ्य को नहीं मानते। वामपंथियों का कहना है कि प्रयागराज के संगम मेें सरस्वती नदी के विलुप्त होने की बात तो सभी सुनते हैं, फिर समुद्र में कौन सी सरस्वती नदी मिलती है! इसका उत्तर सरस्वती नदी पर शोध करने वाले प्रो. शिवाजी सिंह देते हैं।

वे कहते हैं, ”सरस्वती नदी के बारे में प्राचीनकाल से दो धारणाएं हैं। एक धारणा कहती है कि सरस्वती नदी गुप्त रूप से प्रयाग में गंगा में मिलती है, तो दूसरी धारणा कहती है कि सरस्वती नदी सोमनाथ के पास अरब सागर में मिलती है। ये दोनों मान्यताएं अपनी जगह ठीक हैं। पहली वाली धारणा उस समय की है जब सरस्वती नदी स्थिर नहीं हो पा रही थी। कभी उसकी धारा यमुना में मिलती थी तो कभी सतलुज में। दूसरी धारणा उस समय की है जब सरस्वती नदी स्थिर हो गई और कच्छ के रण की ओर बढ़ गई। इन दोनों मान्यताओं को पुरातत्वविदों ने भी माना है। इसलिए जो लोग इन मान्यताओं के आधार पर सरस्वती नदी के अस्तित्व को नकारते हैं, वे इतिहास के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।”

साहित्य में सरस्वती

भले ही वामपंथी प्राचीन सरस्वती नदी के अस्तित्व पर सवाल उठाते हों, लेकिन हमारे वैदिक साहित्य में सरस्वती नदी का उल्लेख बार—बार मिलता है। ऋ ग्वेद में इसे ‘अंबितमे नादितमें देवीतमे सरस्वती’ कहा गया और ज्ञान, कला तथा आध्यात्मिक चेतना की देवी के रूप में इसकी पूजा होती थी। लंबे समय तक इसे महज एक पौराणिक नदी के रूप में देखा गया, लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक शोध, उपग्रह छवियों, भू-गर्भीय विश्लेषण और पुरातात्त्विक खुदाइयों ने इसे एक भौगोलिक वास्तविकता साबित किया। ऋग्वेद, जिसका काल सरस्वती के उद्घाटन के बाद जैसा कि एस.पी गुप्ता और बी.बी. लाल का मानना है कि 3500 बी.सी.ई. के पूर्व मानते हैं, के मध्य रचा गया था, वेदों में सरस्वती नदी का 72 से अधिक बार उल्लेख मिलता है।

यह सिंधु और यमुना के बीच एक विशाल नदी थी। उदाहरण के रूप में ऋ ग्वेद में उल्लेख है- आ यत्साकं यशसो वावशाना: सरस्वती सप्तथी सिंधुमाता। इसमें कहा गया है कि सरस्वती नदी, जो सिंधु और अन्य नदियों की माता भी है, अथाह जलयुक्त होकर तीव्रगति से प्रवाहित हो रही है। एक और उदाहरण देखें जिसमें कहा गया है— ‘इमं मे गंगे यमुने सरस्वति, शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या।’ इसका तात्पर्य है कि सरस्वती गंगा-यमुना की तरह ही प्रतिष्ठित नदी मानी जाती थी और सिंधु सभ्यता में इसका धार्मिक, सांस्कृतिक व आर्थिक भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी।

विद्वानों और वैज्ञानिकों की भूमिका

सरस्वती नदी क्षेत्र में हुए विविध पुरातात्विक उत्खननों और अनुसंधानों को दिशा देने वाले प्रमुख विद्वानों और वैज्ञानिकों की भूमिका इस समूचे विमर्श का अभिन्न अंग है। इन विशेषज्ञों ने न केवल स्थल विशेष की खुदाई की, बल्कि सरस्वती नदी के ऐतिहासिक और भूगर्भीय अस्तित्व को प्रमाणित करने हेतु बहुआयामी कार्य किए। ए.एस.आई. के पूर्व महानिदेशक डॉ. बी.बी. लाल सरस्वती नदी से जुड़े अनुसंधानों के प्रणेता माने जाते हैं।

उन्होंने कालीबंगा और घाघर घाटी में उत्खनन कार्य कर यह सिद्ध किया कि यह क्षेत्र एक विकसित सभ्यता का केंद्र रहा है, जिसका अस्तित्व सरस्वती नदी से जुड़ा हुआ था। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द सरस्वती फ्लोज आन’ में इस नदी की निरंतरता और सांस्कृतिक विरासत को प्रमाणिक रूप से प्रस्तुत किया। पुरातत्वविद् डॉ. आर.एस. बिष्ट बनावली और धौलावीरा जैसे स्थलों के उत्खनन में अग्रणी रहे हैं। उनका कार्य मुख्यतः नगर नियोजन, जल संचयन प्रणाली और हड़प्पा कालीन जीवनशैली के अध्ययन पर केंद्रित रहा है।

धौलावीरा की जलीय प्रणाली का अध्ययन उन्होंने बहुत ही गहराई से किया और यह दिखाया कि किस प्रकार एक नदी-संबद्ध सभ्यता जल संसाधनों को सुव्यवस्थित करती थी। डॉ. एस.आर. राव ने लोथल में हुए उत्खनन का नेतृत्व किया। लोथल एक महत्वपूर्ण समुद्री व्यापार केंद्र था और सरस्वती–सिंधु सभ्यता के पश्चिमी छोर पर स्थित था। डॉ. राव ने यह स्पष्ट किया कि कैसे यह सभ्यता समुद्री मार्गों से भी जुड़ी थी और व्यापारिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण थी। राखीगढ़ी और मोहनजोदड़ो जैसे प्रमुख स्थलों पर कार्य करने वाले डॉ. जे.पी. जोशी सिंधु घाटी सभ्यता के परिभाषित दृष्टिकोण को बदलने वाले वैज्ञानिकों में से एक थे।

राखीगढ़ी का उत्खनन, जो अब तक का सबसे बड़ा हड़प्पा स्थल माना जाता है, उनके मार्गदर्शन में हुआ, जिससे सरस्वती–सिंधु सभ्यता की मध्य धारा की पुष्टि हुई। भूगर्भीय विश्लेषण के क्षेत्र में डॉ. विवेक धनेश्वर, जो ज्योलॉजिकल सर्वें आफ इंडिया से जुड़े हैं, ने सरस्वती नदी के प्राचीन नदी मार्ग को पुनः चिन्हित करने में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भूमिगत जल स्रोतों, उपग्रह चित्रों और भूगर्भीय डेटा के माध्यम से यह प्रमाणित किया कि घग्घर–हाकरा क्षेत्र में वास्तव में कभी एक विशाल नदी बहती थी।

बनावली क्षेत्र के उत्खनन कार्य में डॉ. ए.एस. गुप्ता ने प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने इस स्थल पर सरस्वती से संबंधित अनेक पुरावशेष प्राप्त किए जिनमें मिट्टी के बर्तन, धार्मिक प्रतीक, और नगर संरचना के प्रमाण शामिल थे। उनका शोध सरस्वती नदी के किनारे बसे एक सुव्यवस्थित नगर की उपस्थिति को उजागर करता है। वहीं, वैदिक ग्रंथों और सांस्कृतिक व्याख्याओं के आधार पर डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल, जो एक स्वतंत्र शोधकर्ता थे, ने सरस्वती नदी के मार्ग की व्याख्या की।

उन्होंने ऋग्वेद, महाभारत और अन्य ग्रंथों के आधार पर सरस्वती नदी के प्रवाह पथ और धार्मिक-सांस्कृतिक महत्ता को स्थापित किया। राजस्थान विश्वविद्यालय के डॉ. सतीश चंद्र गोस्वामी ने घाघर–हकरा क्षेत्र में भूगोल और पुरातत्व का समन्वय करते हुए विशेष शोध प्रस्तुत किया। उन्होंने जल स्रोतों, स्थलाकृतिक विशेषताओं, और स्थल-संस्कृति के अंतर्संबंधों को दर्शाया, जिससे यह क्षेत्र सरस्वती सभ्यता की दृष्टि से और अधिक प्रामाणिक बन गया।

इन सभी पुरातत्वविदों और वैज्ञानिकों के कार्यों का समुच्चय हमें यह समझाने में समर्थ रहा है कि सरस्वती नदी का अस्तित्व केवल एक पौराणिक धारणा नहीं, बल्कि ठोस ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक यथार्थ है। इन्होंने शोध, उत्खनन, विश्लेषण और प्रस्तुतीकरण के माध्यम से भारत की वैदिक और हड़प्पा कालीन सांस्कृतिक निरंतरता को पुनः प्रत्यक्ष करने का कार्य किया है, जो आधुनिक भारत के सांस्कृतिक पुनरुद्धार में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

शोध की शुरुआत

सरस्वती नदी पर सर्वप्रथम शोधकर्ताओं का ध्यान दिलाने का कार्य 1844 में ब्रिटिश सरकार के एक मेजर एफ. मर्केसन ने किया। हुआ यूं कि मेजर एफ. मर्केसन दिल्ली से सिंध तक एक सुरक्षित राजमार्ग के निर्माण हेतु सर्वेक्षण कर रहा था। उस दौरान उसे एक सूखे जलमार्ग का पता चला। उसके अनुसार यह जलमार्ग इतना चौड़ा था कि उस पर आठ समानांतर सड़कें बनाई जा सकती थीं। इस घटना के 25 वर्ष बाद 1869 में पुरातत्वविद् अलेक्स को खंभात की खाड़ी में हिमालयी जलोढ़ मिट्टी के जमाव का पता चला, जिसे उसने ऋ ग्वेद की सरस्वती नदी से निर्मित माना।

सरस्वती नदी के शोध को आगे बढ़ाने का श्रेय भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के सी.एफ. ओल्डेहम और आर.डी. ओल्डेहम नामक अंग्रेज पदाधिकारियों को भी जाता है, जिन्होंने 1874 में थार के रेगिस्तान में एक प्राचीन नदी का मार्ग खोजा था और जिसका अध्ययन करने के बाद 1893 में इसे ऋ ग्वेद में वर्णित सरस्वती नदी बताया था। 1942 में स्टाइन ने सरस्वती नदी के अस्तित्व को स्वीकार किया। 1952 में डॉ. कृष्णन ने अपने एक शोधपत्र में सरस्वती को 5,000 बी.सी.ई. की एक विशाल नदी बताया था। तत्पश्चात 1960 के दशक से किए गए पुरातात्त्विक उत्खनन में यह बात सामने आई कि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, बनावली, राखीगढ़ी, धौलावीरा आदि अनेक स्थल उस क्षेत्र में बसे थे, जो प्राचीन सरस्वती नदी के तट पर थे।

विशेष रूप से घाघर-हकरा नदी के तट पर स्थित ये स्थल आज कई शोधकर्ताओं द्वारा ‘प्राचीन सरस्वती नदी के अवशेष’ के रूप में देखे जाते हैं। जबकि घाघर-हकरा एक मौसमी नदी है, उपग्रह चित्रों से यह स्पष्ट हुआ है कि कभी इस क्षेत्र में एक विशाल नदी बहती थी, जिसकी चौड़ाई 3–10 किलोमीटर तक हो सकती थी। सरस्वती के सर्वेक्षण में सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव तब आया जब पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर ने ‘बाबा साहब आपटे समिति’, जो अब ‘अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना’ है, के साथ मिलकर ‘सरस्वती शोध प्रकल्प’ की रचना की और अपनी टीम के साथ सरस्वती नदी के उद्गम आदिबद्री से 19 नवंबर, 1985 को सरस्वती यात्रा आरंभ की और 20 दिसंबर, 1985 को लगभग 4,000 किलोमीटर की यात्रा पूरी करके गुजरात के प्रभास पाटन पहुंचे। उल्लेखनीय है कि प्रभास पाटन को सरस्वती का समुद्र संगम माना जाता है। इस यात्रा में वाकणकर जी ने सरस्वती के सूखे जलमार्गों का भौतिक सर्वेक्षण तथा इसके किनारों पर बसी प्राचीन बस्तियों का स्थलीय अध्ययन भी किया।

उपग्रह चित्र और भू-गर्भीय अध्ययन सरस्वती नदी की खोज में महत्वपूर्ण साबित हुए हैं। इसरो ने 2003 में अपनी रिपोर्ट में पाया कि घग्घर-हाकरा नदी वास्तव में एक मृत नदी के पुराने मार्ग का अनुसरण करती है। वहीं बार्क संस्था ने 2006 में भूमिगत जल स्रोतों के माध्यम से राजस्थान के जैसलमेर एवं बीकानेर के शुष्क क्षेत्रों में गहरी ताजे पानी की धाराओं की खोज की, जो किसी समय एक बड़ी नदी से जुड़ी हो सकती थीं। सी.एस.आई.आर.—एन.जी.आर.आई. ने 2021 में यह निष्कर्ष निकाला कि यमुना और सतलुज जैसी नदियां कभी सरस्वती में मिलती थीं, लेकिन बाद में उनके मार्ग बदल गए, जिससे सरस्वती में जल का प्रवाह समाप्त हो गया।

सरस्वती नदी के सूखने की प्रक्रिया लगभग 4000 वर्ष पूर्व शुरू हुई। भू–गर्भीय परिवर्तनों के कारण सतलुज नदी का मार्ग पश्चिम की ओर और यमुना का पूर्व की ओर बदल गया, जिससे सरस्वती का मुख्य जल स्रोत कट गया। इस प्रक्रिया ने धीरे-धीरे सरस्वती नदी को मौसमी बना दिया और अंततः वह लुप्त हो गई। यह घटना सिंधु घाटी सभ्यता के पतन से भी मेल खाती है, जो यह संकेत देती है कि जल स्रोतों का समाप्त होना किसी सभ्यता के अंत का कारण भी बन सकता है।

खुदाई स्थल का एक अन्य हिस्सा

पुरातात्विक प्रमाण

कालीबंगा (राजस्थान) में सिंचाई प्रणाली के अवशेष मिले, जो यह दर्शाते हैं कि यह क्षेत्र एक स्थायी जल स्रोत के पास था। राखीगढ़ी (हरियाणा) में भारत का सबसे बड़ा हड़प्पा स्थल था, जहां पक्की सड़कें, जल निकासी प्रणाली, श्रृंगार सामग्री, तांबे के औज़ार और मानव कंकाल मिले। बनावली और लोथल जैसे स्थलों पर बंदरगाह और जलाशयों के प्रमाण मिले, जो यह दर्शाते हैं कि ये क्षेत्र व्यापारिक दृष्टि से काफी विकसित थे। ऐतिहासिक ग्रंथ और विदेशी यात्रियों के विवरण भी इसके गवाह हैं। महाभारत और भागवत पुराण सरस्वती नदी के पवित्र स्वरूप का वर्णन करते हैं। 11वीं सदी में भारत आने वाले अलबरूनी ने सरस्वती नदी का उल्लेख करते हुए लिखा कि यह ‘कभी विशाल रही नदी’ थी, जो अब सूख चुकी है।

विभिन्न परियोजनाएं

आधुनिक समय में सरस्वती नदी के पुनरुद्धार की विभिन्न परियोजनाएं चालू हैं। हरियाणा सरकार का सरस्वती धरोहर बोर्ड पुरानी धाराओं की खुदाई कर रहा है, और कई क्षेत्रों में जल प्रवाह को फिर से शुरू किया गया है। केंद्र सरकार के जल शक्ति मंत्रालय और सी.एस.आई.आर. की वैज्ञानिक टीमें वर्तमान जल स्रोतों की पहचान हेतु गहराई से अनुसंधान कर रही हैं। साथ ही, तीर्थस्थलों जैसे कुरुक्षेत्र, आदिबद्री, पेहोवा आदि को जोड़कर सांस्कृतिक पुनरुद्धार की दिशा में भी प्रयास चल रहे हैं। हालांकि, इन परियोजनाओं की आलोचनाएं भी होती रही हैं। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि सरस्वती केवल एक पौराणिक नदी है या ऋ ग्वेद में उल्लिखित यह नाम वास्तव में एक छोटी नदी (जैसे घग्घर या टांगरी) को संदर्भित करता है। उनका कहना है कि भू–गर्भीय प्रमाण निर्णायक नहीं हैं, क्योंकि इन्हें अन्य शुष्क नदियों की ही तरह व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन उपग्रह चित्रों, जल विज्ञान और पुरातात्विक प्रमाणों की संख्या में वृद्धि के चलते इस धारणा में क्रमशः व्यापक परिवर्तन हो रहा है।

कलयुग के भगीरथ

समग्र रूप से देखा जाए तो राजस्थान में हुआ उत्खनन न केवल सरस्वती नदी की ऐतिहासिकता और पौराणिकता के बीच पुल बनाता है, बल्कि इसे वैज्ञानिक, पुरातात्विक, भू गर्भीय तथा सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से एक व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है। सरस्वती नदी का पुनरुद्धार महज एक नदी का पुनर्जीवन नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक चेतना को पुनर्जीवित करने जैसे गहरे उद्देश्य से संचालित है।
सरस्वती से जुड़ी वैज्ञानिक खोजें, उत्खनन, सांस्कृतिक पुनरुद्धार प्रयास और साहित्यिक–वैज्ञानिक विश्लेषण यह संकेत देते हैं कि भविष्य में हम सरस्वती को सिर्फ ग्रंथों में ही नहीं, बल्कि धरातल पर बहते हुए भी देख सकते हैं।

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