बिहार विधानसभा का चुनाव ज्यों-ज्यों नजदीक आता जा रहा है, वैसे ही मुस्लिम वोट बैंक के लिए तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों की आपा-धापी शुरू हो गई है। इनमें कांग्रेस, राजद, ओवैसी की एआईएमआईएम सहित कई अन्य दल शामिल हैं। 2020 से पूर्व बिहार में एआईएमआईएम एक छोटी पार्टी हुआ करती थी। मगर 2020 के विधानसभा चुनाव में इस पार्टी ने 20 सीटों पर चुनाव लड़कर पांच सीटें जीतकर तमाम तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए खतरे की घंटी बजा दी। बिहार के अलावा 2027 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पूर्व भी इसी तरह की राजनितिक आहट देखने को मिल रही है।
बिहार में मुस्लिम जनसंख्या 17.7 प्रतिशत
बिहार में कुल जनसंख्या का 17.7 प्रतिशत मुस्लिम हैं। बिहार के 243 विधानसभा की सीटों में 47 सीटों पर मुस्लिम मतदाता काफी अहम भूमिका निभाते हैं। सीमांचल इलाके के चार जिलों का 24 विधानसभा के सीटों पर मुस्लिम मतदाता सबसे प्रभावी भूमिका निभाते हैं। बिहार की 11 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां 40% से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं। सात सीटों पर 30 से 40% के बीच से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं। इसके अलावा 29 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां पर 20 से 30 फ़ीसदी के बीच मुस्लिम मतदाता हैं। इस तरह मुस्लिम मतदाता वर्ग बिहार में किसी भी पार्टी के लिए काफी अहम हो जाता है। बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में 19 मुस्लिम विधायक चुनकर आए थे। इनमें ओवैसी की पार्टी के पांच विधायक थे। अन्य दलों में आरजेडी से 8, कांग्रेस से 4, भाकपा-माले से एक और बसपा से भी एक मुस्लिम उम्मीदवार ने जीत दर्ज की थी। बसपा का एकमात्र मुस्लिम विधायक बाद में नितीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड में शामिल हो गया था।
कांग्रेस से दूर हो रहे मुस्लिम वोटर
आजादी के बाद से बिहार में पूरे देश की तर्ज पर मुस्लिम मतदाता लंबे समय तक कांग्रेस के साथ रहा। लेकिन, 1990 के बाद से यह मुस्लिम मतदाता कांग्रेस से दूर होते चले गए। 1997 में लालू प्रसाद यादव ने राजस्त्रिया जनता दल का गठन किया तो मुस्लिम मतदाता का सबसे बड़ा हिस्सा उनके साथ चला गया।
लालू यादव के साथ क्यों जुड़े मुस्लिम वोटर
लालू यादव के साथ मुस्लिमों के जुड़ने की एक बहुत बड़ी वजह 1989 में हुआ भागलपुर का सांप्रदायिक दंगा था। वर्तमान में इंडि गठबंधन के दलों के आपस में एकमत होकर चुनाव लड़ने का सबसे बड़ा कारण उनकी मुस्लिम मतदाताओं पर अत्याधिक निर्भरता है।
बिहार के 77 प्रतिशत मुस्लिमों ने किया था राजद को वोट
सीएसडीएस के आंकड़ों के अनुसार बिहार के मुस्लिम मतदाताओं ने 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में 77% मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस राजद महागठबंधन को वोट दिया था। वहीं बिहार के 11% मुसलमानों का वोट ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को अपना मत दिया था। 2020 के विधानसभा चुनाव में 12% मुस्लिमों का वोट जेडीयू, बीजेपी और बसपा और निर्दलीय को चला गया। 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू ने 11 मुस्लिम कैंडिडेट्स को टिकट दिया था, लेकिन उनमें से एक को भी जीत नहीं मिली।
पूरे देश में कांग्रेस को मिले 38 फीसदी मुस्लिम वोट
सीएसडीएस और लोक नीति के सर्वे के मुताबिक, लोकसभा चुनाव में पूरे देश में कांग्रेस को 38% मुसलमानों का वोट मिला था। दूसरे शब्दों में हर तीसरे मुसलमान का वोट कांग्रेस पार्टी को मिला था। इसके अलावा कांग्रेस की सहयोगी पार्टियों को मुसलमानों का 27% वोट मिला था। कुल मिलाकर लगभग 65 % मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को वोट दिया था। कुछ मुस्लिम बहुल्य राज्यों की बात करें जहाँ कांग्रेस पार्टी सत्ता या विपक्ष में हैं तो उनमें जम्मू और कश्मीर में कांग्रेस पार्टी अपने सहयोगी नेशनल कांफ्रेंस के साथ सत्ता में है। असम में जहाँ कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है वहां 34 % मुस्लिम आबादी है।असम दूसरा राज्य है जहाँ कांग्रेस पार्टी मुख्य विपक्षी दल है।
जबकि केरल में 27% मुस्लिम आबादी है वहां कांग्रेस पार्टी 2016 से विपक्ष में है। झारखंड में कांग्रेस पार्टी अपने सहयोगी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के साथ सत्ता में है, वहां मुसलमानों की संख्या 15% है। कर्नाटक और तेलंगाना में लगभग 13% मुस्लिम वोटर हैं, वहां कांग्रेस पार्टी सत्ता में है। पश्चिम बंगाल जम्मू कश्मीर और असम के बाद प्रतिशत के हिसाब से देश का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है, मगर वहां कांग्रेस पार्टी का एक भी विधायक नहीं है। ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में मुस्लिम मतों की पूरी सेंधमारी कर रखी है। ममता बनर्जी से पूर्व मुस्लिम मतदाताओं का बड़ा वर्ग वाम दलों को और छोटा वर्ग कांग्रेस पार्टी को मत देता था। मगर, अब लगभग पूरा मुस्लिम मतदाता वर्ग अब ममता बनर्जी के पीछे लामबंद हो चुका है। दिल्ली के भी मुस्लिम बाहुल्य इलाको में कांग्रेस पार्टी को एक भी सीट विधानसभा में विगत तीन चुनावों से नहीं मिल पा रहा है।
बिहार के मुस्लिमों का बदला मिजाज
बिहार में 2020 के बाद मुस्लिम मतदाताओं का मिजाज बदला गया है। असदुद्दीन ओवैसी की नेतृत्व वाली एआईएमआईएम मुसलमानों की सियासत करने के लिए जानी जाती है। मुस्लिम आबादी वाले बिहार के सीमांचल इलाके में एआईएमआईएम अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश में भी जुटी है। ऐसे में ओवैसी की पार्टी भी वक़्फ़ कानून के विरोध के बहाने बिहार की सियासत में अपनी मौजूदगी दर्ज कराना चाहती है, ताकि अपने कोर वोट बैंक पर उसकी पकड़ बरकरार रहे।
एआईएमआईएम ने 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट में शामिल होकर लड़ा था और उसने 20 सीटों पर चुनाव लड़कर पांच सीटों पर जीत भी दर्ज की थी। हालांकि पार्टी के चार विधायक बाद में आरजेडी में शामिल हो गए। एआईएमआईएम इस बार महागठबंधन का हिस्सा बनकर चुनाव लड़ना चाहती है, ताकि मुसलमानों का वोट बटने से और एनडीए को सत्ता में आने से रोका जा सके। जबकि कांग्रेस और आरजेडी जैसी एनडीए विरोधी पार्टियां एआईएमआईएम को हमेशा वोट कटवा के रूप में देखती रही हैं। मतलब साफ है कि लड़ाई मुस्लिम वोटों पर दावेदारी की है और वक़्फ़ कानून के विरोध के पीछे की सियासत भी यही है कि हर विपक्षी दल खुद को सबसे बड़ा मुस्लिम हितैषी दिखाना चाहता है।
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के अपने विचार हैं। आवश्यक नहीं कि पाञ्चजन्य उनसे सहमत हो)
अभय कुमार, सीएसडीएस (CSDS ), इप्सोस (IPSOS) सहित कई रिसर्च और मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। भारतीय राजनीति सामाजिक और अंतरराष्ट्रीय मामलो से जुड़े मुद्दों पर खास दिलचस्पी है और इसके लिए लिखते रहते हैं।
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