महाराणा प्रताप ने अकबर को कभी बादशाह कहकर संबोधित नहीं किया। उन्होंने उसे हमेशा तुर्क आक्रांता ही कहा। मेवाड़ से प्रथम युद्ध (1568 ई.) के बाद ही अकबर को यह स्पष्ट हो गया था कि युद्ध से मेवाड़ को जीतना कठिन है। इस बीच महाराणा उदय सिंह की मृत्यु के बाद महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ में रहकर मेवाड़ का राज्य संभालने लगे। महाराणा का भाई जगमाल, जो स्वयं को गद्दी का अधिकारी बता रहा था, आगरा में अकबर के दरबार में उपस्थित हुआ। उसे मेवाड़ की सीमा पर जहाजपुर परगना देकर अकबर ने मेवाड़ की अंर्तकलह को स्थाई बना दिया। इस अंर्तकलह का लाभ उठाने के लिए अकबर ने मेवाड़ से युद्ध करने के स्थान पर कूटनीति से संधि करने का प्रस्ताव पेश किया।

सेवानिवृत्त अधिकारी, वन विभाग
मेवाड़ के इतिहास के जानकार,
झाला मन्ना के उत्तराधिकारी
इधर, प्रताप ने मेवाड़ का महाराणा बनते ही सिरोही पर कल्ला देवड़ा के जरिए अधिकार कर लिया तथा कुछ समय बाद राव सुरताण से मित्रता भी कर ली। महाराणा प्रताप सिंह ने मंदसौर के मुगल थानों पर जबरदस्त हमले कर मुगलों को चेता दिया कि मेवाड़ युद्ध के लिए तैयार है।
मुगलों का प्रथम संधि प्रस्ताव
अकबर को प्रताप के महाराणा बनने की जानकारी लग गई थी, लेकिन पहले गुजरात के विद्रोह से निपटना उसके लिए अधिक जरूरी था और सिद्धपुर की ओर अभियान किया। अक्तूबर 1572 ई. में अकबर ने अपने सबसे अच्छे कूटनीतिज्ञ जलाल खां कोरची को प्रताप से बातचीत करने मेवाड़ भेजा। कोरची ने महाराणा के समक्ष प्रस्ताव रखा कि राजपूताने के अधिकांश राजा अकबर के दरबार में मनसब स्वीकार कर हाजिरी बजा रहे हैं और मुगलों की ओर से राजपूतों और भारत के अन्य हिन्दू राज्यों को जीत कर मुगल सम्राज्य को बढ़ा रहे हैं। ऐसे में न तो धन से और न ही बल से अकबर विजय पाना संभव है। जलाल खां ने महाराणा प्रताप को यह समझाने का प्रयास किया कि मुगल संप्रभुता स्वीकार करना मेवाड़ के हित में है, किंतु महाराणा अपनी बात पर अडिग रहे और संधिवार्ता विफल हो गई। महाराणा प्रताप ने कहा, “संधि राजाओं के मध्य होती है। आक्रांताओं के साथ संधि नहीं होती।’’
दूसरी बार मान सिंह को भेजा
जलाल खां कोरची नवंबर 1572 ई. में आगरा लौट गया। छह माह बाद गुजरात की समस्या से निपट कर अकबर ने मान सिंह के नेतृत्व में डूंगरपुर व उदयपुर की ओर सेना भेजी। उसके साथ शाह कुली खां, मुराद खां, मुहम्मद कुली खां, सैयद अब्दुल्ला, मान सिंह का छोटा भाई जगन्नाथ कछवाहा, राजा गोपाल सिंह कछवाहा, बहादुर खां, लश्कर खां, जलाल खां और बूंदी के राव हाड़ा भोज थे। अकबर का संधि प्रस्ताव लेकर मान सिंह डूंगरपुर पहुंचा। वहां रावल आसकरण से उसका युद्ध हुआ।
मान सिंह की सेना ने डूंगरपुर जीत लिया और रावल वहां से निकल कर पहाड़ों में चले गए। डूंगरपुर पर अधिकार करने के बाद मान सिंह ने अधिकतर सेना को अजमेर भेज दिया। वह कुछ सैनिकों को साथ रख कर महाराणा से समझौता वार्ता करने के लिए जून 1573 ई. में उदयपुर पहुंचा। अकबर के संधि प्रस्ताव पर महाराणा ने मान सिंह ने कहा, ‘‘एक मलेच्छ, तुर्क आक्रांता से किसी भी तरह की संधि नहीं हो सकती।’’ उन्होंने मान सिंह को प्रस्ताव दिया कि वह मेवाड़ के पाले में आ जाए और मुगलों को भारत से भगाने में उनका साथ दे।’’
यह सुनकर मान सिंह स्तब्ध रह गया। हालांकि राजकीय शिष्टाचार के अनुसार महाराणा ने उसका सत्कार किया और भोजन के समय अपने पुत्र अमर सिंह को साथ भोजन करने के लिए भेजा। मान सिंह और उसके साथी भोजन कक्ष में अपने-अपने आसन पर बैठ गए। वे महाराणा की प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन उन्होंने कहलवा भेजा कि उनके पेट में दर्द है, इसलिए वह भोजन नहीं कर सकते। दरअसल, महाराणा प्रताप मान सिंह के साथ बैठकर भोजन नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को भेजा था। महाराणा प्रताप का यह निर्णय उचित था, लेकिन मान सिंह को यह बात खटक गई। उसने अपमानित महसूस किया।
उपस्थित लोगों में कानाफूसी होने लगी। भोजन के बाद केसर मिश्रित पान के सेवन के वक्त मेवाड़ के सामंत भीम सिंह डोडिया और मान सिंह के बीच शाब्दिक विवाद भी हुआ था। इससे वह रुष्ट हुआ और महाराणा से आज्ञा लेकर आगरा की ओर रवाना हो गया। वह सीधे आगरा पहुंचा और अकबर से मुलाकात कर मेवाड़ में महाराणा प्रताप से वार्ता के विफल होने की जानकारी दी।
अकबर का तीसरा प्रयास
अकबर उसी समय मेवाड़ पर चढ़ाई करना चाहता था, लेकिन उस समय वह अपने राज्य को व्यवस्थित करने में लगा हुआ था। अतः उसने सितंबर-अक्तूबर 1573 ई. में आमेर के राजा भगवन्तदास को संधि प्रस्ताव के साथ महाराणा के पास भेजा। भगवन्तदास मान सिंह का पिता व भारमल का बेटा था और पहले महाराणा उदय सिंह का सामंत था, पर 1562 ई. में अकबर ने उसकी बहन से विवाह किया। इसके बाद भगवन्तदास मेवाड़ का सामंत पद छोड़कर अकबर की खिदमत में चला गया। प्रताप को अपनी ताकत दिखाकर डराने के मकसद से वह बड़नगर, रावलिया आदि इलाकों पर कब्जा करता हुआ ईडर पहुंचा। ईडर के राय नारायणदास प्रताप के ससुर थे, उन्होंने भगवन्तदास की खातिरदारी की, लेकिन मुगल दरबार में नहीं गए। महाराणा प्रताप ने गोगुंदा के महलों में भगवन्तदास से मुलाकात की, जब उसने अकबर का संधि प्रस्ताव सुनाया तो उन्होंने कठोरता से मना कर दिया।
अबुल फजल का झूठ
अबुल फजल लिखता है, ‘‘उदयपुर में बागियों को सबक सिखाकर राजा भगवन्तदास, शाह कुली महरम, लश्कर खां समेत कुछ सिपहसालारों के साथ राणा को समझाने गोगुंदा पहुंचा। भगवन्तदास को राणा अपने महल ले गया। राणा का दिल उजाड़ था। उसने खुद न आकर अपने बेटे अमरा को राजा भगवन्तदास के साथ बादशाही खिदमत में भेजा। शहंशाह ने अमरा (अमर सिंह) को वापस मेवाड़ भेज दिया।’’ यह बिल्कुल असत्य है। यह बात सिवाय अबुल फजल के किसी भी मुगल इतिहासकार ने नहीं लिखी। अबुल फजल की इस बात को गलत साबित करने वाला था जहांगीर। ‘तुजुक-ए-जहांगीरी’ में जहांगीर लिखता है राणा अमर सिंह ने हिन्दुस्थान के किसी बादशाह को नहीं देखा। उसने और उसके बाप-दादाओं ने भी कभी किसी बादशाह के पास हाजिर होकर ताबेदारी नहीं की।
टोडरमल ने मांगा हाथी राम प्रसाद
एक माह बाद ही दिसंबर 1573 ई. में अकबर ने अपने वित्त मंत्री राजा टोडरमल को वार्ता के लिए मेवाड़ भेजा, लेकिन वह भी महाराणा प्रताप के साथ समझौता वार्ता में विफल होकर खाली हाथ लौट गया। महाराणा प्रताप को संधि के लिए मनाने के लिए अकबर की ओर से यह चौथा संधि प्रस्ताव दल मेवाड़ भेजा गया था। जब टोडरमल को अपना काम बनता हुआ नहीं दिखा, तो उसने महाराणा से कहा कि ‘संधि की बात छोड़िए, आप तो बस अकबर के लिए एक तोहफा ही भिजवा दीजिए। तोहफे के रूप में यदि आप अपना प्रिय रामप्रसाद हाथी दे दें तो बेहतर रहेगा।’ लेकिन वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने टोडरमल का यह प्रस्ताव भी ठुकरा दिया और कहा कि पहले तो आप बुजुर्ग हैं, दूसरे आप दूत हैं, इस खातिर हम विनती करते हैं कि ऐसा प्रस्ताव दोबारा न रखिएगा।
अबुल फजल लिखता है कि टोडरमल जब राणा को समझाने गया, तो उन्होंने अदब के साथ उसके साथ दूत जैसा व्यवहार किया, लेकिन संधि प्रस्ताव को ठुकरा दिया। प्रताप अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता और अस्मिता के साथ समझौता कर उसे किसी विदेशी आक्रान्ता को समर्पित नहीं करना चाहते थे। वे भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति के पुरोधा थे और अकबर आक्रांता था। इस तरह, अकबर ने चार बार संधि प्रस्ताव भेजा, लेकिन वह महाराणा प्रताप के स्वाभिमान को डिगा नहीं सका। अकबर के दरबारी कवि दुरसा आढ़ा ने लिखा है—
कदे न नमावे कंध, अकबर ढिग आवेने ओ।
सूरज वंश संबंध, पाले राण प्रतापसी।।
इसका अर्थ है, सूर्य किसी के भी सामने नहीं झुकता। प्रताप सूर्य का वंशज है, इसलिए अपनी वंश-मर्यादा को रखने के लिए वह भी किसी के सामने नतमस्तक नहीं होता।
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