वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास के सर्वकालिक महानायक हैं। प्रताप एक आदर्श महापुरुष थे, जिनमें आश्चर्यजनक रूप से कई गुण समाहित थे। वे योग्य व आज्ञाकारी पुत्र, प्रजापालक राजा, जन-जन के चहेते, कुशल योद्धा, विलक्षण रणनीतिकार, अद्भुत कूटनीतिज्ञ, दृढ़प्रतिज्ञ, संघर्षशील नायक, प्रेरणादाई नेतृत्वकर्ता, सत्-चरित्र पुरुष, सत्यनिष्ठ मित्र, क्षमाशील पिता तथा बेहद कठोर प्रशासक थे। अपने जीवन काल में ही प्रताप की कीर्ति पताका समस्त आर्यावर्त में फहराने लगी थी। आज पूरे विश्व में प्रताप के शौर्य, त्याग, संघर्ष व स्वातंत्र्य प्रेम का यशस्वी शंखनाद गुंजायमान है।
झूठे अंग्रेजों से वामपंथी इतिहासकारों तक

निदेशक, प्रताप गौरव केंद्र, उदयपुर
अपनी सत्ता को वैध स्वरूप देने के लिए अंग्रेजों ने दिल्ली को केंद्र में रखकर इतिहास लिखा और शेष भारत को दिल्ली से शासित बताया। इसके लिए ब्रिटिश काल में दो इतिहास अनुसंधान केंद्र खोले गए। पहला था अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और दूसरा इलाहाबाद विश्वविद्यालय। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मुस्लिम अध्ययन के लिए शोध पीठ की स्थापना कर मोहम्मद हबीब (इरफान हबीब के पिता) को तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मुस्लिम अध्ययन पीठ का अधिष्ठाता ब्रिटिश अधिकारी एल.एफ फ्रेडरिक रशब्रुक विलियम्स को बनाया गया।
भारतीय इतिहास के विकृतिकरण की प्रक्रिया यहीं से शुरू हुई, जिसे आजादी के बाद आगे बढ़ाया वामपंथी इतिहासकारों-साहित्यकारों ने। कभी साहित्य रचनाओं द्वारा, कभी किंवदंतियों या कभी झूठ का सहारा लेकर प्रताप के जीवन के सकारात्मक पक्षों को धूमिल कर उन्हें पराजित, भगोड़ा, अनुभवहीन या नैराश्य में डूबा चित्रित करने का दुस्साहस किया गया।
वामपंथी इतिहासकारों ने भारतीय राजाओं की विजय की कहानियों को भी पराजय की कहानी में बदल दिया। इसमें मेवाड़ का इतिहास भी था, जो 13वीं-15वीं सदी में उत्तर भारत का प्रमुख हिंदू इतिहास था। इसे भी दिल्ली केंद्रित लिख कर मेवाड़ की सत्ता को ही नकार दिया गया। महाराणा प्रताप को महान पराक्रमी लिख कर भी उन्हें मुगलों से पराजित बताया गया, जबकि अकबर के दरबारी अब्दुल कादिर बदायूंनी और मुगल इतिहासकार मौतमिद खां ने लिखा है कि हल्दीघाटी में मेवाड़ की सेना ने मुगल सेना को न सिर्फ पराजित किया, बल्कि इतना डरा दिया कि वह मानसिक रूप से युद्ध करने की स्थिति में ही नहीं थी। साहित्यिक झूठ यह कि अकबर ने प्रताप को जंगल में छुपकर दाने-दाने के लिए मोहताज कर दिया। उन्हें घास की रोटियां खानी पड़ीं। वास्तव में मेवाड़ में मुसीबत मुगलों की थी, न कि प्रताप की।
अकबर की सेना प्रताप की सेना से लड़ न सकी और हल्दीघाटी से भागकर गोगुंदा में कैदी की तरह रही। वहां रसद सामग्री के अभाव में घोड़े और चूहे मार कर खाए। जब ये खत्म हो गए तो जंगली आम खाए, जिससे दस्त लगने से कई सैनिक मर गए। मानसिक रूप से टूटी सेना को आखिरकार अजमेर बुलाना पड़ा। पराजय का घाव इतना गहरा था कि अकबर ने अपने सेनापति मान सिंह और आसफ खां की ड्योढ़ी माफ कर दी। वामपंथी इतिहासकारों ने यह झूठ भी फैलाया कि प्रताप के पास जीवन-यापन या युद्ध के लिए संपत्ति नहीं थी, जबकि मेवाड़ शुरू से समृद्ध था। यहां सीसा, जस्ता और चांदी की खदानों से प्रागैतिहासिक काल से ही धातु प्रसंस्करण करने का ज्ञान स्थानीय लोगों को था। इसमें विशेषकर भील समाज के कीमियागर (धातु विज्ञान) दक्ष थे।
अत्याचारी अकबर को बताया ‘महान’
वामपंथी इतिहासकारों ने अकबर को ‘महान’ बताया, जबकि वह किसी भी दृष्टि से किसी योग्य ही नहीं था। प्रताप ने जहां अब्दुल रहीम खानखाना के हरम की महिलाओं को माता समान बता कर उनकी ससम्मान सुरक्षित वापसी सुनिश्चित की, वहीं अकबर आगरा में मीना बाजार लगाकर हिंदू स्त्रियों को अपनी हवस का शिकार बनाता था। वह कट्टरपंथी ही नहीं, अत्याचारी भी था। 1567-68 में चित्तौड़ विजय के बाद अकबर द्वारा 30,000 निर्दोष आबाल वृद्ध हिंदू स्त्री-पुरुषों का नरसंहार इसका प्रमाण है। अबुल फजल ने अकबरनामा में अकबर द्वारा गाली-गलौज करने के कई प्रसंगों का वर्णन किया है।
5 घंटे में अकबर की सेना ढेर
हल्दीघाटी का युद्ध तीन चरणों में लड़ा गया, जो लगभग 5 घंटे चला। प्रथम चरण प्रातः 8 बजे के बाद आरंभ हुआ, जिसमें हल्दीघाटी के मुहाने से प्रताप की सेना ने आक्रमण किया। इसमें हरावल के बाईं ओर से हकीम खां सूर सैनिकों के साथ आगे बढ़ा और मुगल सेना के दाईं ओर टूट पड़ा। इससे मुगल सेना पहले ही धक्के में बिखर गई और लगभग 5-7 कोस दूर बनास नदी के पार भाग गई।
दूसरे चरण का युद्ध हल्दी घाटी के मुहाने से लगभग सवा कोस दूर हुआ। वहां अकबर की ओर से कछवाहों के राजपूत सैनिकों ने मेवाड़ की सेना से मोर्चा लिया। मेवाड़ की सेना के दबाव से मुगलों की राजपूत टुकड़ी लगभग पौन कोस पीछे भाग कर बनास के दक्षिणी किनारे पर पहुंच गई, जहां तीसरे चरण का युद्ध हुआ। मुगल सेना की मदद के लिए मिहतर खां ने भागी हुई सेना को वापस बुलाया और सुरक्षित सेना लेकर आया।
यहां भीषण युद्ध हुआ, जिसमें झाल बीदा (मान सिंह) और हकीम खां सूर वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध के दौरान तेज बारिश के बीच दोपहर के बाद युद्ध समाप्त हो गया। युद्ध में इतना खून बहा कि युद्ध मैदान में बनास नदी का पानी जो पानी भर गया था, वह लाल हो गया, जिससे इसका नाम ‘रक्त तलाई’ पड़ा।
हल्दीघाटी युद्ध के बाद
यह झूठ लिखा गया कि युद्ध में अकबर की सेना विजयी रही, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं है। युद्ध के बाद प्रताप ने सेना के साथ कोल्यारी गांव में डेरा डाला तथा घायलों की सेवा-सुश्रूषा की। मेवाड़ी सैनिकों के साथ भील सैनिकों ने चारों ओर पहाड़ी नाकों व रास्तों की नाकाबंदी कर दी थी। मेवाड़ के पर्वतीय क्षेत्र में किसी का प्रवेश संभव नहीं था। भील सैनिकों की सहायता से मुगल सेना की रसद आपूर्ति भी काट दी गई थी।
दरअसल, युद्ध के अगले दिन 19 जून को मेवाड़ की सेना के अचानक आक्रमण की आशंका से भयभीत मुगल सेना के साथ मान सिंह जब गोगुंदा पहुंचा, तो वह पूरी तरह खाली था। उसे गोगुंदा जाने वाले मार्ग पर स्थित राणा के महलों में कुछ रक्षक और मंदिरों में पुजारी आदि दिखे। बदायूंनी ने लिखा है, ‘‘दूसरे दिन हमारी सेना ने वहां से चलकर रणखेत को इस अभिप्राय से देखा कि हर एक ने कैसा काम किया था। फिर दर्रें (घाटी) से हम गोगुंदा पहुंचे, जहां राणा के महलों के कुछ रक्षक तथा मंदिर वाले, जिनकी संख्या 20 थी, हिंदुओं की पुरानी रीति के अनुसार अपनी प्रतिष्ठा के निमित्त अपने-अपने स्थानों से निकल आए और सब के सब लड़कर मारे गए।
अमीरों को यह भय था कि रात के समय कहीं राणा उन पर टूट न पड़े, इसलिए अपनी रक्षार्थ उन्होंने सब मोहल्लों में आड़ खड़ी करा दी और गांव के चारों तरफ खाई खुदवाकर इतनी ऊंची दीवार बनवा दी कि सवार उसको फांद न सके। फिर वे मरे हुए सैनिकों और घोड़ों की सूची बादशाह के पास भेजने की तैयारी करने लगे, जिस पर सैय्यद अहमद खां बारहा ने कहा-ऐसी फेहरिस्त बनाने से क्या लाभ है? मान लो कि हमारा एक भी घोड़ा व आदमी मारा नहीं गया। इस समय तो खाने के सामान का बंदोबस्त करना चाहिए। इस पहाड़ी इलाके में न तो अधिक अन्न पैदा होता है और न बंजारे आते हैं और मुगल सेना भूखों मर रही है। इस पर वे खाने के सामान के प्रबंध का विचार करने लगे। फिर वे एक अमीर की अध्यक्षता में सैनिकों को इस अभिप्राय से समय-समय पर भेजने लगे कि वे बाहर जाकर अन्न ले आएं और पहाड़ियों में जहां कहीं लोग एकत्र मिलें, उनको कैद कर लें। मुगल सैनिकों को इन हालात में जानवरों का मांस और मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्रों में बहुतायत से पैदा होने वाले कच्चे आम खाकर निर्वाह करना पड़ा, जिससे उनमें से अधिकांश सैनिक बीमार पड़ गए।’’
मान सिंह गोगुंदा में चार माह तक रहा, लेकिन प्रताप के विरुद्ध कुछ न कर सका। उसकी असफलता से नाराज अकबर ने उसके साथ आसफ खां और काजी खां को दरबार में बुला लिया। उधर, प्रताप ने तत्काल मेवाड़ में नियुक्त मुगल थानों की जगह अपने थाने स्थापित कर दिए और तत्कालीन राजधानी कुंभलगढ़ चले गए।
युद्ध के परिणाम
- प्रत्यक्षदर्शी बदायूंनी ने हल्दीघाटी युद्ध को इस्लामीकरण का प्रयास बताया है। इसी दिन से मान सिंह के सेनापतित्व के संबंध में मुल्ला शीरी का कथन कि ‘हिंदू इस्लाम की सहायता के लिए तलवार खींचता है’, चरितार्थ हुआ। यह हिंदू के माध्यम से इस्लाम की वृद्धि का प्रयास था।
- युद्ध का अंत मेवाड़ की युद्धनीति के अनुरूप हुआ। मेवाड़ की सेना ने मुगल सैनिकों के मन में इतना खौफ पैदा कर दिया कि वे पहाड़ों की ओर आने से डर रहे थे। दूसरे दिन तक मुगल सैनिक भाग कर गोगुंदा पहुंचते रहे। सुरक्षा के लिए खाइयां खोदी गईं व प्रवेश मार्गों पर आड़ लगाई गई।
- गोगुंदा में कैदी की भांति रहने के बाद मुगल सेना ने मेवाड़ छोड़ दिया। इसके बाद अकबर सेना लेकर मेवाड़ आया। प्रताप ने विजय प्राप्त कर अपनी संप्रभुता सिद्ध की और इस उपलक्ष्य में ब्राह्मणों को जमीन दान दी। हल्दी घाटी के निकट वलीचा गांव का ताम्र पत्र इसका प्रमाण है।
- प्रताप की विजय ने मुगलों के अपराजेय होने के भ्रम को खत्म कर दिया। यह महाराणा प्रताप की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। इस युद्ध के बाद मुगल विरोधी शक्तियों को पुनः खड़ा होने का साहस मिला। इस तरह, प्रताप स्वतंत्रता, स्वाभिमान और संघर्ष के प्रतीक बन गए
विजय के शिलालेख
- ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, वि.सं. 1630 (जून 1573 ई.) को महाराणा प्रताप द्वारा एक ब्राह्मण को भूमिदान का उल्लेख।
- प्रताप ने अपने पुरोहित राम को ओड़ा गांव की जागीर दी। पंचोली जेता ने ओड़ा से मुगलों का थाना हटाया था। यह पुरोहित राम की जागीर का गांव था, जो पुनः उन्हें दिया गया। (कृष्ण पक्ष तृतीया, वि.सं. 1634 (1577 ई.))
- फाल्गुन शुक्ल पंचमी, वि.सं. 1639 (मार्च 1583 ई.) को महाराणा प्रताप ने मृगेश्वर गांव (मीरघेसर) प्रदान किया।
- ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी, वि.सं. 1642 रणछोड़ राय मंदिर प्रशस्ति, सुरखंड का खेड़ा, सराड़ा:- महाराणाधिराज प्रताप सींघजी ने राठड़ का रा, ज पराजित कर सिसोदीय, ण का राज संवत 1642, में राज प्रताप की, आ सुरखंड नगरे पर, राज काद उस समे, मुगल अकबर, के विषात सेनापती रा, मानसेह को सात जुद, था महाराणाजी अस वज, पइ ऊ खुसी में रनसड़, जी का मदीरा डोरी थ 3, स का प्रसद की आलु, बी हल 4 पुजारी कुव, र को दा जेठ सुकल-11।
अर्थात् महाराणाधिराज प्रताप सिंह ने राठौड़ का राज्य पराजित कर सिसोदियों का राज संवत् 1642 में राज का प्रताप (प्रताव) किया। उस समय अकबर के विख्यात सेनापति मान सिंह के साथ युद्ध किया। महाराणा जी इस युद्ध में विजयी हुए। इसी प्रसन्नता में रणछोड़जी का मंदिर की डोहली का प्रसाद किया। लुबी (भूमि) 4 हल पुजारी के पुत्र को दी। ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी। - जगन्नाथराय मंदिर, उदयपुर की प्रशस्ति (वैशाख पूर्णिमा, वि.सं. 1708 (13 मई, 1652 ई.)-
कृत्वा करे खड्ङ्गलतां स्ववल्लभां, प्रतापसिंहे समुपागते प्रगे।
सा खण्डिता मानवती द्विषच्चम्ः, संकोचयन्ती चरणं पराङ्मुखी।
(श्लोक सं. 41)
अर्थ – अपनी प्रियतमा खड्गलता (तलवार रूपी वल्लरी) को हाथ में लेकर प्रतापसिंह के रण भूमि में आ जाने पर खण्डिता नायिका के समान मानिनी (रुठी हुई) मान सिंह से मुक्त शत्रु सेना अपने पैर को सिकोड़ते हुए पराङ्मुखी (पीछे मुंह कर भागने वाली) हो गई। - वैद्यनाथ मंदिर प्रशस्ति, सीसारमा (वि.सं. 1772 माघ सुदी 12) : –
प्रतापसिंह होऽथ व भूव तस्माद्धनुर्धरो धैर्यधरो धरिण्याम्।
म्लेच्छाधिपात् क्षत्रिकुलेन मुक्तोधर्मोप्यथैनं शरणं जगाम्।। 34।।
प्रतापसिंहेन सुरक्षितोऽसौ पुष्ठः परं तुदिलतामगछत्।
अकब्बर म्लेच्छगणधिपस्य परं मनः शल्यमिवाभवद्यः ।। 35।।
(26 जनवरी, 1716 ई.)
अर्थ – उदय सिंह से प्रताप सिंह हुए। यह पृथ्वी पर धनुर्धारी तथा धैर्यवान के रूप में (प्रसिद्ध) हुए। क्षत्रिय कुल के द्वारा म्लेच्छ शासक से धर्म को मुक्त कराया। इस धर्म ने इसकी (प्रताप की) शरण ली।। 34।। प्रताप सिंह के द्वारा धर्म को सुरक्षित रखा गया। पुष्ट किया गया, जिससे वह तोंद वाला (बड़ा) हो गया। म्लेच्छाधिपति अकब्बर के लिए प्रताप मन में घुसा हुआ कांटा हो गया।। 35।। - रणछोड़ भट्ट प्रणत अमरकाव्यम् (सर्ग- 16, श्लोक सं. 35) : –
रणभुवि समुपेतं धन्य सेना समेतं,
वरागत यवनेशं भूपतिर्मानसिंहम्।
पवन बल निदानं म्लेच्छनाथैकतानं,
दलित समरमानं शौर्यशाणं ततान।। 35।।
अर्थ – प्रताप सिंह ने युद्धभूमि में सेना सहित आए यवनपति को वश में करने वाले, यवन सेना के निदान (पहचान), यवनपति को एकमात्र तान (मुखिया) मान सिंह का युद्ध में अभिमान चूर्ण कर वीरता रूपी शान का विस्तार किया। - ‘राज रत्नाकर’, महाकवि सदशिव (वि.सं. 1735) सप्तम सर्ग श्लोक 42 : –
अरिपट भवनाद् गृहीतवितः, पुनखलोकित सम्पराय भूमिः।
स समर विजयी यर्यो महीश, उदयपुरणभिमुखः प्रतापसिंहः।। 42।।
अर्थ- शत्रुओं के तंबुओं से धन लेकर व युद्धभूमि का पुनः अवलोकन कर पृथ्वीपति प्रताप सिंह युद्ध में विजयी होकर उदयपुर चल पड़ा।
टिप्पणियाँ