राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने विविध अभियानों और कार्यक्रमों के माध्यम से सदैव राष्ट्र सेवा, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान को अपना लक्ष्य बनाया है। इसके द्वारा प्रतिपादित ‘पंच प्रण’ सभ्यतागत विमर्श को नयी दिशा देने वाले मूल मंत्र हैं, जिनमें एक प्रमुख संकल्प ‘नागरिक कर्तव्य’ से संबंधित है।

कुलपति, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा
अब जब हम लोकतंत्र की प्रौढ़ अवस्था में प्रवेश कर रहे हैं, तब नागरिक कर्तव्य का महत्व और भी बढ़ गया है। केवल अधिकारों की मांग करना पर्याप्त नहीं, कर्तव्यों का पालन करना भी हर भारतीय का कर्तव्य बनता है। महात्मा गांधी ने कहा था कि अधिकारों का रास्ता कर्तव्यों से ही होकर गुजरता है।
नागरिक कर्तव्य की भूमिका
रा.स्व.संघ द्वारा प्रतिपादित पंच प्रण का उद्देश्य भारतीय नागरिकों के जीवन में चरित्र, कर्तव्यनिष्ठा और राष्ट्रप्रेम सहित अन्य मानवीय गुणों का विकास करना है। ‘नागरिक कर्तव्य’ सिखाते हैं कि राष्ट्र के प्रति हमारा प्रेम केवल भावनात्मक न होकर, व्यावहारिक भी होना चाहिए। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ‘गुरुजी’ ने कहा था, “व्यक्ति का उत्कर्ष तभी संभव है जब वह अपने छोटे-छोटे स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्र के व्यापक हित को जीवन का ध्येय बनाए।” देश के विकास, सुरक्षा, संस्कृति की रक्षा और सामाजिक सद्भाव को सुनिश्चित करने हेतु प्रत्येक नागरिक के लिए अपने दैनिक आचरण में कुछ नैतिक दायित्वों का निर्वहन करना अनिवार्य है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51ए में भी नागरिकों के मूल कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है। राष्ट्र के दृष्टिकोण से देखा जाए तो नागरिक कर्तव्य केवल औपचारिक दायित्व नहीं, बल्कि अपने देश के मूल स्वभाव एवं चिंतन के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का एक जीवंत साधन है।
राष्ट्रभक्ति -जीवन का मूल मंत्र
हमें अपने राष्ट्र के प्रति गर्व का भाव विकसित करना चाहिए। तभी हम भारत को पाएंगे और उसके बन सकेंगे। वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन भागवत अपने उद्बोधनों में बहुधा यह संदेश देते हैं, ‘राष्ट्रभक्ति कोई एक दिन का उत्सव नहीं, यह जीवन जीने का तरीका है। सतत साधना है। ऋ ग्वेद में लिखा है, ‘उप सर्प मातरं उप सर्प मातरं भूमिमेताम्’ अर्थात हे मनुष्य! तू इस मातृभूमि (राष्ट्र) की सेवा कर। यजुर्वेद भी सिखाता है, ‘नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्यै’ यानी कि मातृभूमि को हमारा नमस्कार हो, हमारा बार-बार नमस्कार हो।’
संविधान का सम्मान
भारत का संविधान केवल नागरिकों को अधिकार ही नहीं देता, अपितु उनके कर्तव्यों को भी निर्धारित करता है। ये कर्तव्य भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने, सामाजिक समरसता बनाए रखने और राष्ट्र के चहुंमुखी विकास को सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। संविधान के आदर्शों, नियमों और कानूनों का पालन करना एक सजग नागरिक की पहचान है। जाति, पंथ, भाषा या प्रांत के आधार पर भेदभाव करना भारतीय संस्कृति के आदर्शों के प्रतिकूल है। देश की आजादी के साथ ही समय-समय पर हमारी इस अनेकता को निशाना बनाकर हमें बांटने का कुत्सित प्रयास किया जाता रहा है। देश के प्रत्येक नागरिक को चाहिए कि वे इन व्याधियों से स्वयं को दूर रखते हुए सभी के साथ समानता, सहिष्णुता और प्रेम का व्यवहार करें।
कर का ईमानदारी से भुगतान
देश में नागरिकों के हितार्थ जितनी भी योजनाएं हैं, जैसे उज्ज्वला योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, आयुष्मान योजना, जल परियोजना, सड़क, सार्वजनिक परिवहन, सुरक्षा आदि की व्यवस्था हमारे कर के माध्यम से ही की जाती है। चाणक्य रचित अर्थशास्त्र कहता है, “कोषमूलो दण्डः, कोषमूलं पाल्यम्।’’ अर्थात् सुरक्षा (दण्ड व्यवस्था) का मूल कोष (राजकोष) है और कोष का आधार जनता द्वारा दिया गया कर है। इसलिए ईमानदारी से कर देकर हम सरकारी योजनाओं और विकास कार्यों को मजबूती प्रदान कर सकते हैं। सरकारी भवन, सड़कें, पार्क, बस, ट्रेनें, प्राकृतिक संसांधन आदि हमारी साझा संपत्ति हैं। इनकी रक्षा करना और इनका दुरुपयोग न करना प्रत्येक नागरिक का नैतिक कर्तव्य है। डॉ. हेडगेवार ने कहा था, “संपत्ति चाहे सार्वजनिक हो या निजी, उसका संरक्षण राष्ट्र के प्रति श्रद्धा का प्रत्यक्ष प्रमाण है।’’ इसलिए जब सरकार या व्यवस्था के प्रति कोई क्षोभ हो तब भी हमें राष्ट्र की संपत्ति को नुकसान न पहुंचाते हुए ही अपनी मांग और अपनी आवश्यकतों से सरकार को अवगत करवाना चाहिए।
स्वच्छता और पर्यावरण संरक्षण
2014 में जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने सबसे पहला अभियान देश की स्वच्छता को लेकर ही आरंभ किया था। उनका वह ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का आदर्श तो तभी साकार होगा, जब प्रत्येक नागरिक स्वच्छता को अपनी आदत बनाया। कूड़ा-कचरा न फैलाना, पेड़-पौधे लगाना एवं प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना एक जिम्मेदार नागरिक की पहचान है, और हमें इस पहचान को अपने आपसे जोड़ना ही होगा। वेद-उपनिषद् भी हमें यही सिखाते हैं।
देश हमें देता है सब कुछ
देश हमें देता है सब कुछ,
हम भी तो कुछ देना सीखें
सूरज हमें रोशनी देता,
हवा नया जीवन देती है,
भूख मिटाने को हम सबकी,
धरती पर होती खेती है,
औरों का भी हित हो जिसमें,
हम ऐसा कुछ करना सीखें
पथिकों को तपती दुपहर में,
पेड़ सदा देते हैं छाया,
सुमन सुगंध सदा देते हैं,
हम सबको फूलों की माला,
त्यागी तरुओं के जीवन से
हम परहित कुछ करना सीखे
जो अनपढ़ हैं उन्हें पढ़ायें,
जो चुप हैं उनको वाणी दें,
पिछड़ गये जो उन्हें बढ़ायें,
प्यासी धरती को पानी दें,
हम मेहनत के दीप जलाकर,
नया उजाला करना सीखें
शिक्षा का प्रसार
शिक्षा केवल व्यक्तिगत उन्नति का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्रीय प्रगति का आधार है। नागरिकों को चाहिए कि वे स्वयं शिक्षित हों और दूसरों को भी शिक्षित करें। विशेषकर निर्धन और वंचित वर्गों में शिक्षा के प्रसार की महती आवश्यकता है। बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने तो शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा था, “शिक्षा शेरनी का दूध है। उसे जो पीएगा, वही दहाड़ेगा।” नीति ग्रंथ का कथन है- “न चौरहार्यं न च राजहार्यं, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि। व्यये कृते वर्धते नित्यं, विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥’’ अर्थात् विद्या वह धन है जिसे न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बांट सकता है और न यह बोझ के समान भारी होता है। उपयोग करने पर यह और बढ़ता है और सब धनों में सर्वोत्तम है। तैत्तिरीयोपनिषद् भी कहता है, ‘सत्यं वद, धर्मं चर, स्वाध्यायान्मा प्रमदः’ यानी सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय (अध्ययन) के प्रति प्रमाद मत करो। चाणक्य जैसे राष्ट्रभक्त आचार्य ने शिक्षा को राष्ट्र निर्माण की आत्मा माना है। अतः नागरिकों को सतत अध्ययनशील, विवेकी और ज्ञानोपार्जन के लिए प्रतिबद्ध रहना चाहिए। भारतीय संविधान के तहत हम अपनी बात, अपने विचार प्रकट करने के लिए स्वतंत्र हैं। किंतु एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य है कि वह राय राष्ट्रहित के विरुद्ध न जाए। संघ के आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने कहा था- “राष्ट्र सर्वोपरि है; उसके समक्ष व्यक्तिगत विचारों और भावनाओं का स्थान गौण है।” इसलिए आलोचना भी रचनात्मक और राष्ट्रहितकारी होनी चाहिए।
नागरिक कर्तव्य की अवहेलना गलत
इतिहास साक्षी है कि जिस राष्ट्र के नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाते हैं, वह राष्ट्र कमजोर होता है। भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता, सामाजिक विद्वेष और पर्यावरण संकट जैसी समस्याएं नागरिक कर्तव्यों की उपेक्षा का ही परिणाम हैं। नागरिक कर्तव्य का पालन केवल सरकारी दबाव से नहीं, बल्कि स्वप्रेरणा से होना चाहिए। संघ के स्वयंसेवक इसका आदर्श प्रस्तुत करते हैं, चाहे वह आपदा राहत में हो, स्वच्छता अभियानों में या सामाजिक समरसता के प्रयासों में। संघ का उद्देश्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना है, जहां प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य को पहचान कर उसे उत्साहपूर्वक निभाए। जहां प्रत्येक नागरिक यजुर्वेद की उस उक्ति को चरितार्थ करे जिसमें कहा गया है, ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः’ अर्थात् हम पुरोहित राष्ट्र को सदैव जीवंत और जाग्रत बनाए रखेंगे।
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