विश्व पर्यावरण दिवस: पिघलते ग्लेशियर, जलते जंगल, त्राहिमाम करती धरती, धरती के बढ़ते तापमान से मानवता की घट रही सांसें
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विश्व पर्यावरण दिवस: पिघलते ग्लेशियर, जलते जंगल, त्राहिमाम करती धरती, धरती के बढ़ते तापमान से मानवता की घट रही सांसें

पूरी दुनिया आज तमाम तरह की सुख-सुविधाएं और संसाधन जुटाने के लिए किए जाने वाले मानवीय क्रियाकलापों के कारण ग्लोबल वार्मिंग जैसी भयावह समस्या से त्रस्त है।

by योगेश कुमार गोयल
Jun 5, 2025, 10:15 am IST
in भारत
World Environment Day

World Environment Day

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पूरी दुनिया आज तमाम तरह की सुख-सुविधाएं और संसाधन जुटाने के लिए किए जाने वाले मानवीय क्रियाकलापों के कारण ग्लोबल वार्मिंग जैसी भयावह समस्या से त्रस्त है। इसीलिए पर्यावरण की सुरक्षा तथा संरक्षण के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 5 जून को पूरी दुनिया में ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा तथा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा 16 जून 1972 को स्टॉकहोम में पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने के लिए यह दिवस मनाने की घोषणा की गई थी और पहला विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून 1974 को मनाया गया था। 19 नवम्बर 1986 को भारत में ‘पर्यावरण संरक्षण अधिनियम’ लागू किया गया। विश्व पर्यावरण दिवस धरती को बचाने के संकल्प के साथ पृथ्वी और उसके नाजुक पर्यावरण के बारे में सोचने और उसकी रक्षा करने के लिए प्रेरित करता है।

हालांकि विश्व पर्यावरण दिवस मनाए जाने का वास्तविक लाभ तभी है, जब हम इस आयोजन को केवल रस्म अदायगी तक ही सीमित न रखें बल्कि पर्यावरण संरक्षण के लिए इस अवसर पर लिए जाने वाले संकल्पों को पूरा करने हेतु हरसंभव प्रयास भी करें। पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में दुनियाभर में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील किया जाता रहा है। पृथ्वी का तापमान साल दर साल बढ़ रहा है और तमाम विशेषज्ञों का यही कहना है कि यही हाल रहा तो आने वाले वर्षों में हमें इसके गंभीर परिणाम भुगतने को तैयार रहना होगा। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीच्यूट के मुताबिक दुनियाभर में गर्मी का प्रकोप वर्ष दर वर्ष बढ़ रहा है। दुनिया के कुछ देश तो ऐसे भी हैं, जहां पारा 50 डिग्री के पार जा चुका है।

अमेरिका के गोडार्ड इंस्टीच्यूट फॉर स्पेस स्टडीज (जीआईएसएस) की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 1880 के बाद पृथ्वी का तापमान औसतन 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है और तापमान में सर्वाधिक बढ़ोतरी 1975 के बाद से ही शुरू हुई है। सैन डियागो स्थित स्क्रीप्स इंस्टीच्यूट ऑफ ओसनोग्राफी के शोधकर्ताओं के अनुसार पृथ्वी के तापमान में 1880 के बाद हर दशक में 0.08 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई। शोधकर्ताओं के मुताबिक 1900 से 1980 तक तापमान में वृद्धि प्रत्येक 13.5 वर्ष में दर्ज की जा रही थी किन्तु 1981 से 2019 के बीच तापमान में वृद्धि की समय सीमा 3 वर्ष हो गई है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि अभी 2.4 डिग्री तापमान और बढ़ेगा। आईपीसीसी की छवीं मूल्यांकन रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को तुरंत और तेजी से नियंत्रित नहीं किया गया तो 2100 तक वैश्विक तापमान 2.4 से 3.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। जलवायु वैज्ञानिकों के अनुसार 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पार करना भी पृथ्वी के पारिस्थितिकीय तंत्रों के लिए विनाशकारी हो सकता है, जिसे अब मानव गतिविधियों ने लगभग अवश्यंभावी बना दिया है।

पृथ्वी का तापमान बढ़ते जाने का ही दुष्परिणाम है कि सालभर जगह-जगह जंगल सुलगते रहते हैं, दुनियाभर में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ पिघल रही है, जिससे समुद्रों का जलस्तर बढ़ने के कारण दुनिया के कई शहरों के जलमग्न होने की आशंका जताई जाने लगी है। पृथ्वी के बढ़ते तापमान का असर सबसे पहले ध्रुवीय क्षेत्रों पर पड़ा है। आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ की मोटाई और विस्तार में लगातार गिरावट आ रही है। नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर (एनएसआईडीसी) की रिपोर्ट के अनुसार, आर्कटिक समुद्री बर्फ की मात्रा हर दशक 13 प्रतिशत की दर से घट रही है, जिससे समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा है और दुनिया के तटीय शहरों पर जलमग्न होने का खतरा मंडरा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की ‘स्टेट ऑफ द क्लाइमेंट इन एशिया 2023’ रिपोर्ट के अनुसार, भारत सहित एशिया के कई शहर जलवायु परिवर्तन के सबसे अधिक जोखिम में हैं।

भारत के कई हिस्सों में तो अब फरवरी महीने से ही बढ़ते पारे का प्रकोप देखा जाने लगता है। करीब दो दशक पहले देश के कई राज्यों में जहां अप्रैल माह में अधिकतम तापमान औसतन 32-33 डिग्री रहता था, वहीं अब मार्च महीने में ही पारा 40 डिग्री तक पहुंचने लगा है और यह जलवायु परिवर्तन का ही स्पष्ट संकेत है। भीषण गर्मी के कारण नदियां, नहर, कुएं, तालाब सूख रहे हैं। भूजल स्तर लगातार नीचे खिसकने से देश के अनेक इलाकों में गर्मी के मौसम में हर साल अब पेयजल की गंभीर समस्या भी विकट होने लगी है। गर्मी के मौसम में कई स्थानों पर हीट वेव की प्रचण्डता इतनी तीव्र रहने लगी है कि मौसम विभाग को अब हीट वेव को लेकर कभी ‘रेड अलर्ट’ जारी करना पड़ता है तो कभी ‘ऑरेंज अलर्ट’। निश्चित रूप से यह पर्यावरण के बिगड़ते मिजाज का ही स्पष्ट और खतरनाक संकेत है। हीटवेव अब केवल एक मौसमीय स्थिति नहीं बल्कि ‘स्लो ऑनसेट डिजास्टर’ बन चुकी है, जिसे संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों में भी आपदा की श्रेणी में रखा गया है। मौसम विभाग द्वारा रेड अलर्ट मौसम के अधिक खराब होने पर जारी किया जाता है, जो लू की रेंज में आने वाले सभी इलाकों के लिए होता है। ‘रेड अलर्ट’ का मतलब होता है कि मौसम बहुत खराब स्थिति में पहुंच चुका है और लोगों को सावधान होने की जरूरत है। ऑरेंज अलर्ट का मतलब होता है तैयार रहें और इस अलर्ट के साथ ही संबंधित अधिकारियों को हालातों पर नजर रखने की हिदायत होती है।

पर्वतीय क्षेत्रों का ठंडा वातावरण हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता है किन्तु पहाड़ों की ठंडक भी धीरे-धीरे कम हो रही है और मौसम की प्रतिकूलता लगातार बढ़ रही है। प्रकृति कभी समुद्री तूफान तो कभी भूकम्प, कभी सूखा तो कभी अकाल के रूप में अपना विकराल रूप दिखाकर हमें निरन्तर चेतावनियां देती रही है किन्तु जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर वैश्विक चिंता व्यक्त करने से आगे हम शायद कुछ करना ही नहीं चाहते। कहीं भयानक सूखा तो कहीं बेमौसम अत्यधिक वर्षा, कहीं जबरदस्त बर्फबारी तो कहीं कड़ाके की ठंड, कभी-कभार ठंड में गर्मी का अहसास तो कहीं तूफान और कहीं भयानक प्राकृतिक आपदाएं, ये सब प्रकृति के साथ खिलवाड़ के ही दुष्परिणाम हैं और यह सचेत करने के लिए पर्याप्त हैं कि यदि हम इसी प्रकार प्रकृति के संसाधनों का बुरे तरीके से दोहन करते रहे तो स्वर्ग से भी सुंदर अपनी पृथ्वी को हम स्वयं कैसी बना रहे हैं और हमारे भविष्य की तस्वीर कैसी होने वाली है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के अनुसार हम इस समय तीन प्रमुख संकटों की चिंताजनक तीव्रता का सामना कर रहे हैं, जलवायु परिवर्तन का संकट, प्रकृति और जैव विविधता के नुकसान का संकट और प्रदूषण तथा अपशिष्ट का संकट। यह संकट दुनिया के पारिस्थितिकी तंत्र पर हमला कर रहा है, अरबों हेक्टेयर भूमि ख़राब हो गई है, जिससे दुनिया की लगभग आधी आबादी प्रभावित हो रही है और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के आधे हिस्से पर खतरा मंडरा रहा है। यूएनईपी और संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व की लगभग 40 प्रतिशत भूमि बंजर होती जा रही है, जिससे विश्व की आधी जनसंख्या प्रभावित हो रही है। करीब 3.2 अरब लोग सीधे तौर पर भूमि क्षरण की चपेट में हैं। यह संकट केवल पारिस्थितिक नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और मानव अस्तित्व से जुड़ा संकट बन चुका है। ग्रामीण समुदाय, छोटी जोत वाले किसान और बेहद गरीब लोग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि भूमि बहाली भूमि क्षरण, सूखे और मरुस्थलीकरण की बढ़ती लहर को उलट सकती है।

पर्यावरण पर लिखी अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ में मैंने विस्तार से यह वर्णन किया है कि किस प्रकार शहरों के विकसित होने के साथ-साथ दुनियाभर में हरियाली का दायरा सिकुड़ रहा है और कंक्रीट के जंगल बढ़ रहे हैं। विश्वभर में प्रदूषण के बढ़ते स्तर के कारण हर साल तरह-तरह की बीमारियों के कारण लोगों की मौतों की संख्या तेजी से बढ़ रही हैं, यहां तक कि बहुत से नवजात शिशुओं पर भी प्रदूषण के दुष्प्रभाव स्पष्ट देखे जाने लगे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक प्रतिवर्ष विश्वभर में प्रदूषित हवा के कारण करीब सत्तर लाख लोगों की मौत हो जाती है। प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को क्षति पहुंचाकर हम स्वयं जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याओं का कारण बन रहे हैं और यदि गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं को लेकर हम वाकई चिंतित हैं तो इन समस्याओं का निवारण भी हमें ही करना होगा ताकि हम प्रकृति के प्रकोप का भाजन होने से बच सकें अन्यथा प्रकृति से जिस बड़े पैमाने पर खिलवाड़ हो रहा है, उसका खामियाजा समस्त मानव जाति को अपने विनाश से चुकाना पड़ेगा।

बहरहाल, पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए साल में केवल एक दिन 5 जून को ‘पर्यावरण दिवस’ मनाने की औपचारिकता निभाने से कुछ हासिल नहीं होगा। यदि हम वास्तव में पृथ्वी को खुशहाल देखना चाहते हैं तो इसके लिए प्रतिदिन गंभीर प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। यदि हम चाहते हैं कि हम धरती मां के कर्ज को थोड़ा भी उतार सकें तो यह केवल तभी संभव है, जब वह पेड़-पौधों से आच्छादित, जैव विविधता से भरपूर तथा प्रदूषण से सर्वथा मुक्त हो और हम चाहें तो सामूहिक रूप से यह सब करना इतना मुश्किल भी नहीं है। यह अब हमें ही तय करना है कि हम किस युग में जीना चाहते हैं? एक ऐसे युग में, जहां सांस लेने के लिए प्रदूषित वायु होगी और पीने के लिए प्रदूषित और रसायनयुक्त पानी तथा ढ़ेर सारी खतरनाक बीमारियों की सौगात या फिर ऐसे युग में, जहां हम स्वच्छंद रूप से शुद्ध हवा और शुद्ध पानी का आनंद लेकर एक स्वस्थ एवं सुखी जीवन का आनंद ले सकें। दरअसल अनेक दुर्लभ प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर हमारी पृथ्वी प्रदूषित वातावरण के कारण धीरे-धीरे अपना प्राकृतिक रूप खो रही है। ऐसे में जब तक पृथ्वी को बचाने की चिंता दुनिया के हर व्यक्ति की चिंता नहीं बनेगी और इसमें प्रत्येक व्यक्ति का योगदान नहीं होगा, तब तक मनोवांछित परिणाम मिलने की कल्पना नहीं की सकती।

Topics: world environment day themeworld environment day historyविश्व पर्यावरण दिवसWorld Environment Dayworld environment day 2025
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