बांग्लादेश में कथित छात्र आंदोलन के पीछे क्या जमात उद दावा का हाथ था..? और क्या यह वास्तव में पाकिस्तान के विघटन का बदला था? क्या यह शेख हसीना के परिवार के प्रति वही षड्यन्त्र था, जिसे पांचजन्य ने शुरू से कहा है? क्या यह ईस्ट पाकिस्तान की पहचान वापस पाने के लिए ही कथित आंदोलन था? यह सारे प्रश्न इसलिए अब उठ रहे हैं क्योंकि प्रतिबंधित आतंकी संगठन जमात उद दावा के वरिष्ठ नेताओं ने ऐसा दावा किया है कि इस संगठन ने बांग्लादेश में शेख हसीना विरोधी विरोध प्रदर्शनों में भूमिका निभाई थी।
पीटीआई के अनुसार यह दावा किया है पाकिस्तान में पंजाब प्रांत में रहीम यार खान के पास अल्लाहाबाद में एक रैली में बोलते हुए जमात के नेता सैफुल्ला कसूरी और मुजममिल हाशमी ने। कसूरी ने ढाका में हुए विद्रोह को 1971 के मुक्ति संग्राम का बदला कहा है।
उसने कहा कि “मैं चार साल का था जब 1971 में पाकिस्तान का विभाजन हुआ था। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने घोषणा की थी कि उन्होंने खलीज (बंगाल की खाड़ी) में दो-राष्ट्र सिद्धांत को डुबो दिया है। 10 मई को, मैंने … हमने 1971 का बदला ले लिया है।“
ऐसा ही कुछ हाशमी ने गुँजरावाला में कहा था कि “हमने आपको पिछले साल बांग्लादेश में हराया है।“ इस संगठन का दावा बहुत हैरान करने वाला नहीं है, क्योंकि बांग्लादेश में शेख हसीना के जाने के बाद लगातार ही जिहादी कट्टरता बढ़ रही है। हिंदुओं के साथ जो हो रहा है, वह तो हो ही रहा है मगर साथ ही उन मुस्लिमों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है, जो अवामी लीग के समर्थक हैं और साथ ही जो बांग्लादेश के उस इतिहास को मानते हैं, जिसमें उनकी बांग्ला पहचान सम्मिलित है।
जिहादी कट्टरपंथी मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार में जमकर फलफूल रहे हैं और उन सभी लोगों को जेल भेजा जा रहा है, जो इस कट्टरता का विरोध कर रहे हैं। यहाँ तक कि चुनावों की बात करने वाले लोगों को भी मुल्क का दुश्मन ठहराया जा रहा है।
शेख हसीना के पिता जिन्होनें बांग्लादेश के लिए संघर्ष किया था, उनकी हर पहचान को सिरे से मिटाया जा चुका है और इतना ही नहीं जिस इंदिरा गांधी के कारण बांग्लादेश को पश्चिमी पाकिस्तान के अत्याचारों से मुक्ति मिली थी, उनके नाम पर बना इंदिरा गांधी कल्चरल सेंटर भी जलाया जा चुका है। अगस्त 2024 के बाद पागल भीड़ ने जैसे 1971 की हर निशानी मिटाना आरंभ कर दिया था। अब ऐसे में जब जमात उद दावा यह दावा कर रहा है कि उसने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो क्या यह माना जाए कि यह कथित छात्र आंदोलन न ही स्वत: स्फूर्त था और न ही शेख हसीना की सरकार से इस कारण दुखी थे कि वह कथित भ्रष्टाचार कर रही थी या फिर तानाशाही कर रही थी, दरअसल वे शेख हसीना की उस पहचान से दुखी थे, जो उन्होनें अपने पिता शेख मुजीबुर्रहमान से पाई थी और जो पाकिस्तान के अत्याचारों को उजागर करती रहती थी।
जमात-ए-इस्लामी से भी प्रतिबंध हटा और कट्टरपंथियों की मौज
बांग्लादेश को लेकर यदि जमात-उद-दावा यह दावा कर रहा है कि उसने शेख हसीना सरकार को गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो वहीं बांग्लादेश में एक और अन्य कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी से भी वहाँ की सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिबंध हटा दिया है। बांग्लादेश में सुप्रीम कोर्ट भी कट्टरपंथी तत्वों को राहत देता जा रहा है। कुछ दिन पहले ही जमात के ही एक ऐसे कट्टरपंथी नेता आज़हरुल इस्लाम को रिहा किया था, जिस पर 1971 के मुक्ति संघर्ष के दौरान हजारों हत्याओं का आरोप था।
इस फैसले का स्वागत और किसी ने नहीं बल्कि मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार के पूर्व कानूनी सलाहकार आसिफ नज़रुल ने किया था और इस फैसले को सीधे पिछले वर्ष के कथित छात्र आंदोलन का परिणाम बताया था, जिसके कारण शेख हसीना की सरकार 5 अगस्त 2024 को गिर गई थी और उन्हें अपना देश छोड़कर भारत आना पड़ा था।
अब बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2013 में बांग्लादेश उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी को चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के लिए पात्र माना है। शेख हसीना की सरकार ने पिछले वर्ष अगस्त में जमात-ए-इस्लामी को प्रतिबंधित कर दिया था, मगर इस प्रतिबंध को उसी महीने मुहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार ने उठा लिया था।
वर्ष 2013 में बांग्लादेश के उच्च न्यायालय ने इस आधार पर जमात-ए-इस्लामी का राजनीतिक दल का पंजीकरण रद्द कर दिया था कि इस दल का चरित्र धर्मनिरपेक्षता के विरोध के कारण असंवैधानिक है। और 2018 में चुनावों से पहले बांग्लादेश के चुनाव पैनल ने औपचारिक रूप से जमात के पंजीकरण को रद्द कर दिया था। जमात ने इसके खिलाफ 3 दिसंबर 2024 को अपील की थी और मई 2025 में इसकी सुनवाई पूरी हुई और सुनवाई के बाद रविवार को यह फैसला सुनाया गया।
बांग्लादेश में जो भी हो रहा है, उससे एक बात तो स्पष्ट है कि कट्टरपंथियों का बोलबाला हो रहा है। पाञ्चजन्य ने अगस्त 2024 से ही यह कहा था कि यह कथित छात्र आंदोलन शेख हसीना को अपदस्थ करने का नहीं, बल्कि कुछ और है और अब जिस प्रकार से जमात-उद-दावा, यह दावा कर रहा है कि यह 1971 का बदला है, उससे पाञ्चजन्य का विश्लेषण और सटीक प्रमाणित हो रहा है।
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