‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद विवादित टिप्पणी करने वाले अशोका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम जमानत तो दे दी, लेकिन सख्त टिप्पणियों के साथ। जमानत देने से पहले न्यायमूर्ति सूर्यकांत बाली की पीठ ने यह स्पष्ट किया, ‘‘देश की सुरक्षा से जुड़ी किसी भी जांच में न्यायालय कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। प्रोफेसर अली की बातों से गंभीर राष्ट्रीय सुरक्षा चिंता उत्पन्न होती है और यह सिर्फ ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का मामला नहीं है, बल्कि एक बड़ी पड़ताल की मांग करता है।
विशेष जांच दल अब इस पूरे मामले की तह तक जाएगा।’’ न्यायालय ने यह भी कहा, ‘‘सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन क्या इस मुद्दे पर बोलने का यह सही समय है? सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन क्या यह समय इतना सांप्रदायिक होने की बात करने का है? देश ने एक बड़ी चुनौती का सामना किया है। दहशतगर्द हर तरफ से आए और हमारे मासूमों पर हमला किया। हम एकजुट रहे, लेकिन इस समय इस अवसर पर सस्ती लोकप्रियता क्यों हासिल की जाए?’’
जब 22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम में आतंकियों ने 26 निर्दोष लोगों की उनका धर्म पूछकर हत्या कर दी थी। आरोप है कि भारत ने प्रतिकार स्वरूप पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों पर 6-7 मई की रात ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत जब कार्रवाई की तो प्रो. अली खान ने सोशल मीडिया पर भारतीय सेना और विशेष रूप से कर्नल सोफिया कुरैशी को निशाना बनाते हुए विवादित टिप्पणी की थी। प्रो. अली ने एक्स पर पोस्ट किया था, ‘‘दक्षिणपंथी टिप्पणीकारों को कर्नल कुरैशी की तारीफ करने के साथ-साथ लिंचिंग, हिंसा और बुलडोजर कार्रवाई के खिलाफ भी बोलना चाहिए।’’ हालांकि प्रो. अली ने पोस्ट बाद में हटा दिया था, लेकिन इस पोस्ट को लेकर उनके खिलाफ मामला दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार किया गया था।
प्रो. अली के समर्थक इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बता रहे हैं, परंतु यह प्रश्न यहीं तक सीमित नहीं है। महमूदाबाद परिवार की पृष्ठभूमि पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि यह ‘विचार’ नहीं, बल्कि ‘विरासत’ का दोहराव है। प्रो. अली का परिवार मुस्लिम लीग के समर्थक और पाकिस्तान के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाने वालों में शामिल रहा है। उनके दादा राजा मोहम्मद अमीर अहमद खान मुस्लिम लीग के वित्तपोषक और जिन्ना के घनिष्ठ थे। विभाजन के बाद जब वे पाकिस्तान गए तो वहां सम्मान स्वरूप डाक टिकट जारी हुआ और कराची में एक क्षेत्र को ‘महमूदाबाद’ नाम दिया गया।
वहीं, उनके परदादा मोहम्मद अली मोहम्मद खान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पहले कुलपति थे, जिन्होंने उस संस्थान को मुस्लिम अलगाववाद का वैचारिक केंद्र बनाने में निर्णायक भूमिका निभाई। सर सैयद अहमद खान से लेकर एएमयू छात्रसंघ तक ने भारत के विभाजन की मानसिकता को खाद-पानी इसी तंत्र ने दिया।
स्वतंत्रता के बाद भी एएमयू के विचार और व्यवहार में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आया। कभी ‘हिंदुस्तान मुर्दाबाद’ के नारे लगे, तो कभी कुलपतियों पर हमले हुए। यही ऐतिहासिक मानसिकता आज प्रो. अली के रूप में नए चेहरे से प्रकट हो रही है, जो शिक्षाविद् के मुखौटे में राजनीति और वैचारिक विष का प्रचार कर रहे हैं।
इसलिए यह आवश्यक है कि हम अली खान महमूदाबाद की हालिया टिप्पणियों को केवल एक ‘अकादमिक विमर्श’ मानकर खारिज न करें। उनके विचार उनकी वैचारिक विरासत का स्वाभाविक विस्तार हैं, जो देश की एकता और सुरक्षा के लिए खतरे का संकेत हैं। सर्वोच्च न्यायालय की स्पष्ट टिप्पणी हमें यह सोचने को बाध्य करती है कि जब किसी विचार का मूल पाकिस्तान में हो, तो उसके ‘अभिव्यक्ति’ के अधिकार की सीमा भी राष्ट्रीय हितों से टकराने नहीं दी जा सकती।
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