शिक्षा के माध्यम से ही कोई भी राष्ट्र या समाज अपने आदर्शों-आकांक्षाओं, स्वप्नों-संकल्पों को साकार करता है। राष्ट्रीय हितों एवं युगीन सरोकारों की पूर्त्ति का सबसे समर्थ व सशक्त माध्यम यही है। लेकिन कांग्रेस और वामपंथ पोषित शासन-व्यवस्था में शिक्षण संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों में शीर्ष पदों पर निष्पक्ष, योग्य एवं अनुभवी विद्वानों-विशेषज्ञों की जगह दल एवं विचारधारा-विशेष के प्रति झुकाव व प्रतिबद्धता रखने वालों को वरीयता दी गई। नतीजा, संपूर्ण शिक्षा, कला एवं साहित्य जगत वैचारिक खेमेबाजी एवं पृष्ठ-पोषित पूर्वाग्रहों का अड्डा बन गया। इतिहास, सामाजिक विज्ञान और साहित्य की पाठ्यपुस्तकों व पाठ्यक्रमों में चुन-चुनकर ऐसी विषय-सामग्री संकलित की गई, जो हीनता की ग्रंथियां विकसित करने वाली थीं। इनमें स्वत्व और स्वाभिमान की भावना कम थी। पारंपरिक स्रोतों, प्राचीन शास्त्रों, उत्खनन से प्राप्त साक्ष्यों आदि की उपेक्षा की गई। लोक-साहित्य, लोक-स्मृतियों एवं लोक-मान्यताओं को ताक पर रख गया। केवल विदेशी आक्रांताओं या उनके आश्रय में रहे व्यक्तियों-यात्रियों द्वारा लिखे गए विवरणों को इतिहास का सबसे प्रामाणिक स्रोत मानकर नैरेटिव गढ़े गए और मनमानी व्याख्याएं की गईं।

शिक्षाविद् एवं स्तंभकार
अध्ययन-अध्यापन को रोचक, व्यावहारिक, रोजगारपरक, प्रासंगिक एवं जीवनोपयोगी बनाने के लिए पाठ्यक्रम में बदलाव की मांग दशकों से की जा रही थी। आज जब एनसीईआरटी शिक्षा में वांछित सुधार तथा पाठ्यपुस्तकों में अपेक्षित कर रही है तो प्रतिगामी, जड़तावादी, वामपंथी व क्षद्म पंथनिरपेक्षतावादी शक्तियां अनावश्यक विरोध कर रही हैं।
पाठ्यक्रमों में बदलाव जरूरी
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने हाल ही में 7वीं कक्षा की इतिहास की पुस्तक से मुगलों और दिल्ली सल्तनत से जुड़े सभी संदर्भ हटाए हैं। उनकी जगह भारतीय परंपराओं, मगध, मौर्य, शुंग और सातवाहन जैसे प्राचीन भारतीय राजवंशों, पवित्र भूगोल, मेक इन इंडिया, महाकुंभ मेला, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसी सरकारी पहलों और अटल सुरंग जैसी सरकारी योजनाओं को शामिल किया है। यह पहल और परिवर्तन राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 तथा राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (एनसीएफ) की संस्तुति पर किया गया है।
इससे पूर्व कक्षा 10वीं,11वीं, और 12वीं के इतिहास व राजनीतिशास्त्र के पाठ्यक्रम से गुटनिरपेक्ष आंदोलन, शीतयुद्ध काल, विश्व राजनीति में अमेरिकी आधिपत्य, लोकतंत्र व विविधता, लोकतंत्र की चुनौतियां, प्रमुख संघर्ष व आंदोलन, संस्कृतियों का टकराव, सेंट्रल इस्लामिक लैंड्स, अफ्रीकी-एशियाई देशों में इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना, उदय एवं विस्तार, मुगल दरबारों का इतिहास और औद्योगिक क्रांति से जुड़े अध्यायों को हटाकर कुछ अध्याय जोड़े गए थे। इनमें 11वीं के इतिहास में घुमंतू या खानाबदोश साम्राज्य, 12वीं में ‘यात्रियों की नजरों से’ तथा ‘किसान, जमींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य’ जैसे अध्याय शामिल हैं। वहीं, राजनीतिशास्त्र में ‘समकालीन विश्व में सुरक्षा’ नामक अध्याय के अंतर्गत ‘सुरक्षा : अर्थ और प्रकार, आतंकवाद’, ‘पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन’ अध्याय के अंतर्गत ‘पर्यावरण आंदोलन, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण’ तथा ‘क्षेत्रीय आकांक्षाए’ अध्याय के अंतर्गत ‘क्षेत्रीय दलों का उदय, पंजाब संकट, कश्मीर मुद्दा, स्वायत्तता के लिए आंदोलन’ जैसे शीर्षक शामिल किए गए थे। 10वीं कक्षा में ‘खाद्य सुरक्षा’ के अंतर्गत पढ़ाया जा रहा पाठ ‘कृषि पर वैश्वीकरण के प्रभाव’ तथा ‘धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्ष राज्य’ से फैज अहमद फैज की उर्दू में लिखी दो नज्में भी हटाई गई थीं। इसी तरह, गणित एवं विज्ञान की पुस्तकों से भी कुछ अध्याय हटा कर नए विषय जोड़े गए थे।
आक्रांताओं से मोह क्यों?
एनसीईआरटी पाठ्यक्रम को रोचक, रचनात्मक, युक्तिसंगत, ज्ञानवर्धक, बोधगम्य, प्रासंगिक, समाजोपयोगी एवं युगानुकूल बनाने के लिए समय-समय पर उसमें परिवर्तन और संशोधन करती रही है। कई बार उसका उद्देश्य पाठ्यपुस्तकों का बोझ कम करना या पाठ्यक्रम को अद्यतन बनाना भी होता है। लेकिन सेकुलरिज्म के झंडाबरदारों को समस्या केवल दिल्ली सल्तनत और मुगलों का पाठ हटाए जाने से है। कोई इनसे पूछे कि क्यों इतिहास की पाठ्यपुस्तकें इस तरह से क्यों लिखी गईं कि विद्यार्थियों को दिल्ली सल्तनत और मुगलों की वंशावली तो याद रह जाती है, लेकिन भारतीय राजवंशों एवं ज्ञान-परंपराओं की सामान्य जानकारी भी नहीं होती? क्यों मध्यकालीन एवं आधुनिक भारत के इतिहास का पाठ्यक्रम दिल्ली सल्तनत, मुगल वंश, ईस्ट इंडिया कंपनी, अंग्रेज शासकों-लॉर्डों-सेनानायकों एवं स्वतंत्रता-आंदोलन के नाम पर चंद नेताओं-परिवारों तक सीमित रखा गया?
भारत के प्रभावशाली राज्यों और राजवंशों, जैसे- मगध, मौर्य, गुप्त, चोल, चालुक्य, पाल, प्रतिहार, पल्लव, परमार, वाकाटक, विजयनगर, कार्कोट, कलिंग, काकतीय, मैत्रक, मैसूर के ओडेयर, असम के अहोम, नागा, सिख, राष्ट्रकूट, शुंग, सातवाहन आदि की चर्चा भी बहुधा कम या नहीं के बराबर मिलती है। जबकि इनके सुदीर्घ शासन-काल में कला, साहित्य, संस्कृति का अभूतपूर्व विकास हुआ। सुनियोजित नगर बसाए गए, सड़कें बनीं, अन्य देशों के साथ व्यापारिक-सांस्कृतिक संबंध विकसित हुए, विख्यात शिक्षण-केंद्र स्थापित किए गए, कला एवं स्थापत्य की दृष्टि से उत्कृष्ट किले-मठ-मंदिर आदि बनाए गए।
क्या इन सांस्कृतिक धरोहरों की जानकारी युवा पीढ़ी को नहीं दी जानी चाहिए? यही नहीं, यूरोपीय दृष्टिकोण से लिखे गए इतिहास में विदेशी शासकों-सामंतों-आक्रांताओं को विशेष महत्व दिया गया, जबकि भारतीय राजाओं, सरदारों का कमतर आंका गया। कौन नहीं जानता कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में विदेशी आक्रांताओं की अतिरंजित विवेचना की गई और सनातन भारत के साहस, संघर्ष एवं प्रतिरोध को कम महत्व दिया गया। देश के गौरवशाली अतीत को इतिहास में सहेजने की बजाए वामपंथी इतिहासकारों ने केवल दिल्ली-केंद्रित इतिहास को केंद्र में रखा। इसी तरह, महान संतों, समाज-सुधारकों, क्रांतिकारियों, राष्ट्रनिष्ठ स्वतंत्रता सेनानियों को नेपथ्य में रख, दो-चार का महिमामंडन किया गया!
भारतीय दृष्टि की जगह विभेदकारी सामग्री
भाषा, साहित्य, इतिहास, राजनीति शास्त्र, दर्शन जैसे मानविकी विषयों की पाठ्यपुस्तकों में सांस्कृतिक एकता एवं अखंडता को मजबूती देने वाली सामग्री हो, जिससे भारतीय ज्ञान-परंपरा को बढ़ावा मिले तथा, अस्तित्ववादी विमर्श व विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर विराम लगे। इसकी जगह परस्सर पहयोग, समन्वय, संतुलन, सामाजिकता, संवेदनशीलता एवं देशभक्ति जैसे मूल्यों को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन मिलना चाहिए। यह कैसी विडंबना है कि हमारे बौद्धिक-राजनीतिक-अकादमिक विमर्श में ‘भारत वर्ष में व्याप्त विविधता में एकता’ का उल्लेख तो भरपूर किया जाता है, पर उस एकत्व को पोषण देने वाले मूल्यों, मान्यताओं, परंपराओं, प्रमुख घटकों, मंदिरों, मठों, तीर्थों, त्योहारों आदि की चर्चा नहीं होती! क्या पाठ्यक्रम में इन्हें यथोचित स्थान नहीं मिलना चाहिए? क्या यह सत्य नहीं कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था व पाठ्य-सामग्रियों में आलोचनात्मक विश्लेषण के नाम पर श्रद्धा, आस्था एवं विश्वास की तुलना में संदेह, अनास्था एवं अविश्वास को वरीयता दी गई? उसमें अधिकार भाव की प्रबलता रही, जबकि कर्तव्यभाव गौण रहा। नैतिक मूल्यों एवं संस्कारों की उपेक्षा की गई तथा येन-केन-प्रकारेण अर्जित की जाने वाली सफलता को प्राथमिकता दी गई। परस्पर सहयोगी भावना विकसित करने के स्थान पर विद्यार्थियों में अंधी प्रतिस्पर्द्धा विकसित की गई।
औपनिवेशिक मानसिकता, अस्मितावादी विमर्श एवं वर्गीय चेतना के प्रश्रय एवं प्रभाव में हीन भावनाओं, अलगाववादी वृत्तियों तथा पारस्परिक मतभेदों-असहमतियों-संघर्षों आदि को शिक्षा के माध्यम से दशकों तक पाला, पोसा व परवान चढ़ाया गया। मूल बनाम बाहरी, उत्तर बनाम दक्षिण, आर्य बनाम द्रविड़, राष्ट्रभाषा बनाम क्षेत्रीय भाषा, स्त्री बनाम पुरुष, व्यक्ति बनाम समाज, वर्गीय/जातीय/पांथिक अस्मिता बनाम राष्ट्रीय अस्मिता, परंपरा बनाम आधुनिकता, नगरीय बनाम ग्रामीण, मजदूर बनाम किसान, गरीब बनाम अमीर, उपभोक्ता बनाम उत्पादक, उद्योगपति बनाम सर्वहारा, मनुष्य बनाम प्रकृति, विकास बनाम पर्यावरण जैसी मिथ्या एवं कृत्रिम लड़ाइयां शिक्षा, साहित्य, कला व संस्कृति के माध्यम से खड़ी की गईं। परिवार, समाज एवं राष्ट्र की विभिन्न इकाइयों को परस्पर विरोधी मानने वाली ऐसी खंडित एवं विभेदकारी दृष्टि के स्थान पर, क्या शिक्षा-व्यवस्था में समन्वय और समग्रता पर आधारित भारतीय दृष्टि को स्थान नहीं मिलना चाहिए?
भारत की दृष्टि तो सदा से ही आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक रही है। पुराणों-महाकाव्यों से लेकर ऐतिहासिक महत्व के अन्य ग्रंथों एवं साहित्य आदि को पढ़कर कोई भी सहज अनुमान लगा सकता है कि इनका मूल उद्देश्य युद्धों-आक्रमणों आदि की अतिरंजित विवेचना न होकर, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य एवं करणीय-अकरणीय जैसे गूढ़ एवं जटिल प्रश्नों के उत्तर प्रस्तुत करना तथा परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों की विवेचना कर, व्यक्ति-मन को अकर्मण्यता, द्वंद्व एवं शंकाओं से मुक्त करना है। इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में आज भी इस दृष्टि का अभाव है।

प्रश्न शेष
प्रश्न है कि पाठ्यपुस्तकों में मुगलों का महिमामंडन क्यों? क्या मुगल विदेशी आक्रांता नहीं थे? क्या उन्होंने सदैव भारत से अलग अपनी पहचान को न केवल जीवित रखा, बल्कि उसे बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत भी किया? इन आक्रांताओं ने भारत से लूटे गए धन का बड़ा हिस्सा समरकंद, खुरासान, दमिश्क, बगदाद, मक्का, मदीना जैसे शहरों एवं वहां के विभिन्न घरानों व खलीफा आदि पर खर्च किया। जिस तैमूर ने अपने समय में विश्व की लगभग 5 प्रतिशत आबादी का कत्लेआम किया, दिल्ली में लाखों निर्दोष हिंदुओं का नरसंहार किया, वे उससे खुद को जोड़ने में गाैरव का अनुभव करते थे। मुगल केवल भारत को लूटने के उद्देश्य से आए थे। यहां बसने के पीछे भी उनका उद्देश्य ऐशो-आराम से जिंदगी बिताना ही था, न कि भारत का निर्माण करना।
बाबर तो भारत और भारतीयों से इतनी घृणा करता था कि मरने के बाद स्वयं को भारत से बाहर दफनाने की इच्छा जताई थी। अधिकांश मुगल शासक अय्याश और मदांध थे। नैतिकता, चारित्रिक शुचिता एवं आदर्श जीवन-मूल्यों के पालन आदि की कसौटी पर वे भारतीय राजाओं के पासंग बराबर भी नहीं थे। अधिकांश मुगल शासक कट्टर इस्लामी थे, जिन्होंने बहुसंख्यकों पर बहुत जुल्म किए, जबरन उनका कन्वर्जन कराया। उनके शासन-काल में मठों-मंदिरों का ध्वंस किया गया, भगवान के विग्रह तोड़े गए, पुस्तकालय जलाए गए। सिख गुरुओं, गुरु-पुत्रों, जैन-बौद्ध व हिंदू संतों के विरुद्ध तो उन्होंने हिंसा एवं बर्बरता की सारी सीमाएं पार कर दीं। यहां तक कि मुगलों के शासन काल में हिंदुओं को स्वधर्म का पालन करने एवं तीर्थयात्राओं आदि के लिए भी भारी-भरकम कर चुकाना पड़ता था।
एक भी मुगल शासक ऐसा नहीं था, जिसने लोक-कल्याण की भावना से शासन किया। लेकिन कथित गंगा-जमुनी तहजीब के पैरोकार व पंथनिरपेक्षता के झंडाबरदार अकबर को महानतम शासक बताते नहीं थकते। वे यह नहीं बताते कि अकबर ने चितौड़ का दुर्ग जीतने के बाद 40,000 निःशस्त्र हिंदुओं को मौत के घाट उतरवा दिया था। अकबर, जहांगीर और शाहजहां आदि को इतिहास से लेकर साहित्य और सिनेमा में भी आदर्श प्रेमी की तरह प्रस्तुत किया जाता है। सच यह है कि उनके हरम में हजारों स्त्रियां बंदी बनाकर या जबरन लाई जाती थीं। वे असहनीय यातनाएं झेलने को अभिशप्त होती थीं।
अबुल फजल के अनुसार, अकबर के हरम में 5,000 महिलाएं थीं, जिनमें से अधिकांश राजनीतिक संधियों या युद्ध में जीत के बाद उसे उपहार स्वरूप मिली थीं। मुगलों के काल में कला, वास्तु, स्थापत्य, भवन-निर्माण आदि के विकास का यशोगायन करते समय इस तथ्य की नितांत उपेक्षा की गई कि वे जहां से आए थे, उन क्षेत्रों में कला या निर्माण के ऐसे एक भी नमूने या उदाहरण देखने को नहीं मिलते। क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि जिन्हें हम मुगलों की देन कहते हैं, दरअसल वे भारत के शिल्पकारों, वास्तुविदों, कारीगरों, कलाकारों की पारंपरिक एवं मौलिक दृष्टि, खोज व कुशलता के परिणाम हैं?
ऐसा भी नहीं कि मुगल अजेय रहे या पूरे भारतवर्ष पर उनका आधिपत्य रहा। उन्हें अनेक युद्धों में हार या असफलता मिली और निरंतर विरोध झेलना पड़ा। वास्तव में, प्रभाव, विस्तार एवं शासनावधि की दृष्टि से भी अनेक भारतीय राजवंश उनसे कहीं आगे हैं। हमारी पूरी शिक्षा-व्यवस्था व दशकों तक पढ़ाई जाने वाली पाठ्य-सामग्रियों में जोड़ने वाले तत्वों का अभाव रहा, जबिक विघटनकारी पूर्वाग्रहों का प्रभाव रहा। अंग्रेजों के जाने के बाद भी यही पढ़ाया जाता रहा कि रामायण-महाभारत ‘मिथक’ हैं। प्रश्न यह है कि क्या स्वतंत्र भारत की गौरवशाली यात्रा एवं उपलब्धियों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए?

क्या भारत की सफल लोकतांत्रिक यात्रा के क्रमिक सोपानों का उल्लेख पाठ्यक्रम में नहीं होना चाहिए? क्या आपातकाल के दौरान सर्वसाधारण एवं प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा किए गए संघर्ष व झेली गई यातनाओं की व्यथा-कथा पढ़कर लोकतंत्र के प्रति भावी पीढ़ी की आस्था मजबूत नहीं होगी? क्या चंद्रयान, मंगलयान की सफलता की गाथा नहीं पढ़ाई जानी चाहिए? क्या उपग्रह, प्रक्षेपास्त्र, तकनीक, प्रौद्योगिकी, संचार, सैन्य एवं आर्थिक क्षेत्र की भारत की नित-नवीन उपलब्धियां वर्तमान के लिए प्रेरणादायी नहीं सिद्ध होंगी? दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रयोग, अनुसंधान व व्यवहार की कसौटी पर कसे जाने वाले गणित और विज्ञान जैसे विषयों में भी बीते कई दशकों से परिवर्तन नहीं किए गए।
हर दस-पंद्रह वर्ष में पीढ़ियां बदल जाती हैं, उसकी रुचि, सोच, स्वप्न, सरोकार व प्रेरणाएं बदल जाती हैं तो क्या पाठ्यक्रम नहीं बदला जाना चाहिए? क्या पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकों का निर्माण करते समय युवा वर्ग की अभिरुचियों, अपेक्षाओं, आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए?
इसलिए केवल दिल्ली सल्तनत या मुगल केंद्रित न होकर नई पीढ़ी को वास्तविक, संतुलित और पूरे भारतवर्ष का इतिहास पढ़ाना समय व समाज की मांग है। एक ऐसा इतिहास, जिसे पढ़कर नई पीढ़ी को स्व, स्वत्व व स्वाभिमान की प्रेरणा मिले। इस दिशा में एनसीईआरटी द्वारा किए जा रहे प्रयासों का मुक्त हृदय से स्वागत किया जाना चाहिए।
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