भारत की विविधता पश्चिमी जगत के लिए सदैव आकर्षण, आश्चर्य और शोध का विषय रही है, अनेक भारतीय विद्वान भी इसे लेकर भ्रम और संदेह के शिकार रहे हैं। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि सम्पूर्ण भारत में व्याप्त राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सतही, भेदभावपूर्ण एवं राजनीतिक बुद्धि एवं दृष्टि से अनुभव एवं मूल्यांकित नहीं किया जा सकता। उसके लिए तो बड़ी गहरी, सूक्ष्म, समग्रतावादी, समन्वयकारी एवं सांस्कृतिक दृष्टि चाहिए। जो लोग पश्चिमी राष्ट्र-राज्य की कसौटी पर भारत को कसते हैं, उन्हें अंततः निराशा ही हाथ लगती है। वस्तुतः भारत की सत्ता-संप्रभुता व्यवस्था में नहीं, जनता में है, राज्य में नहीं, धर्म, समाज और संस्कृति में है।
ध्यान रहे कि भारत के लिए धर्म कर्त्तव्य-बोध या जीवन-शैली से जुड़ा विषय है, न कि पूजा-पद्धत्ति या निश्चित मत-पंथ के अनुसरण का। हमने एक जन, एक तंत्र(स्टेट), एक भाषा, एक मत-पंथ-संप्रदाय, निश्चित भूभाग की सीमाओं में बाँधकर राष्ट्र को नहीं देखा। राष्ट्र हमारे लिए कोई मृत, जड़ या निर्जीव ईकाई न होकर एक जीवित-जाग्रत भावात्मक सत्ता है, सांस्कृतिक अवधारणा है, शाश्वत एवं सनातन विचारों, आदर्शों तथा जीवनमूल्यों का सतत-सामूहिक बोध है। एकता एवं अखंडता के सूत्र व तत्त्व हमने राज्य एवं राजनीति में नहीं, अपितु धर्म, अध्यात्म एवं संस्कृति में खोजे और पाए। धर्म एवं संस्कृति ही हमारी चेतना को झंकृत करती है, जोड़ती है। वही हमारी प्रेरणा के मूल स्रोत हैं। सीलिए यहां आम धारणा यह है कि धर्म और संस्कृति एकजुट करती है, जबकि राजनीति विभाजित करती है।
इसे आदि शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में संपूर्ण भारतवर्ष का तीन बार पैदल भ्रमण कर बख़ूबी समझा और निरंतर साधना के बल पर प्रत्यक्ष अनुभव किया था। संभवतः यही कारण रहा कि वे राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के स्थाई, मान्य एवं व्यावहारिक सूत्र और सिद्धांत देने में सफल रहे। उन्होंने राष्ट्र को पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक एकता और अखंडता के मजबूत सूत्र में बांधने में अभूतपूर्व सफलता हासिल की।
सुदूर दक्षिण में जन्म लेने के बावजूद वे सम्पूर्ण भारत के रीति-रिवाजों, सिद्धांतों, प्रकृति और प्रवृत्तियों को भली-भाँति समझने में सक्षम थे। वेदों, उपनिषदों, पुराणों और महाकाव्यों में उल्लेख है कि ईश्वर ब्रह्मांड के कण-कण में विद्यमान है। भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा, परमात्मा और संपूर्ण ब्रह्मांड एक दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं।
भारत में सदैव सभी सजीव और निर्जीव प्राणियों में एक ही परम तत्व को देखने और खोजने की दृष्टि रही है। आदि शंकराचार्य ने इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया था।इस ज्ञान, अनुभव और साधना के बल पर ही वे समय के प्रवाह में स्वाभाविक रूप से आने वाले भ्रम, विकर्षण, मतभेद और संघर्ष को पहचानने और दूर करने में सक्षम हुए। उन्होंने उस समय प्रचलित विभिन्न मतों, संप्रदायों, जातियों आदि के बीच समन्वय स्थापित किया तथा अद्वैत दर्शन दिया। उनका अद्वैत दर्शन सभी प्रकार के मतभेदों, संघर्षों, अलगाव और दूरियों को मिटाने तथा आत्मा को परमात्मा से, जीव को ब्रह्म से तथा प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ने का साधन है। उन्होंने मनुष्य को छोटे-छोटे स्वार्थों, एवं संकीर्णताओं से ऊपर उठाया तथा उसकी संवेदना को विस्तार दिया। उन्होंने बताया और समझाया कि मनुष्य यदि स्वार्थ एवं संकीर्णताओं से ऊपर उठ जाय तो वह संपूर्ण सृष्टि के साथ गहरा आत्मिक संबंध स्थापित कर सकता है।
उनके विचारों ने मनुष्य की चेतना को ऊपर उठाकर उसे उदार एवं श्रेष्ठ बनाने का कार्य किया। उनके अनुसार बाहरी संसार में जो भेद या अलगाव दिखाई देता है, वह अज्ञानता के कारण है। सत्य का बोध होने पर अथवा सच्चा ज्ञान प्राप्त होने पर यह भेदभाव स्वतः ही समाप्त हो जाता है और सारा संसार उसी परम ब्रह्म की अभिव्यक्ति प्रतीत होता है, जिसे आध्यात्मिक भाषा में नाम और रूप जगत कहा जाता है। सही मायने में उनका अद्वैत दर्शन देश, काल, परिस्थिति आदि सब प्रकार की मानव निर्मित सीमाओं से परे एक विश्व-दर्शन है, जिसमें संपूर्ण धरती एवं मानवता के कल्याण का भाव निहित है।
उन्होंने ऐसी समन्वयकारी, सुनियोजित और सुसंगत धार्मिक और सांस्कृतिक व्यवस्था दी कि पहनावे, खान-पान, जाति, पंथ, भाषा और बोली की बाह्य विविधताएं कभी भी हम भारतीयों को आंतरिक रूप से विभाजित करने वाली स्थायी रेखाएं नहीं बन सकीं।किसी ने ऐसा प्रयास भी किया तो उसे व्यापक सफलता नहीं मिली। आद्य शंकर के समन्वयकारी दर्शन ने उस समय प्रचलित भिन्न-भिन्न वैचारिक एवं धार्मिक धाराओं को भी सनातन धारा में सम्मिलित कर लिया। बौद्ध एवं जैन मतावलंबियों को भी वे सनातन के साथ लाने में लगभग सफल रहे। यह उनकी दी हुई दृष्टि ही थी कि बुद्ध भी विष्णु के दसवें अवतार के रूप में घर-घर पूजे गए। उन्होंने ऐसा राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक बोध दिया कि दक्षिण के काँची-कालड़ी-कन्याकुमारी-शृंगेरी आदि में पैदा हुआ व्यक्ति कम-से-कम एक बार अपने जीवन में उत्तर के काशी-केदार-प्रयाग-बद्रीनाथ की यात्रा करने की इच्छा रखता है तो वहीं पूरब के जगन्नाथपुरी का रहने वाला पश्चिम के द्वारकाधीश-सोमनाथ की यात्रा कर स्वयं को धन्य समझता है।
देश के चार कोनों पर चार मठ-मंदिरों की स्थापना कर उन्होंने एक ओर जहां देश को एकता और अखंडता के मजबूत सूत्र में पिरोया, वहीं दूसरी ओर विघटनकारी शक्तियों और प्रवृत्तियों पर नियंत्रण भी किया। तमाम प्रकार के कथित भेदभावों के बीच आज भी गंगोत्री से लाया गया गंगाजल रामेश्वरम में चढ़ाना पवित्र कर्त्तव्य समझा जाता है तो जगन्नाथपुरी में खरीदी गई छड़ी द्वारकाधीश को अर्पित करना परम सौभाग्य माना जाता है। ये चारों मठ एवं धाम न केवल हमारी आस्था एवं श्रद्धा के सर्वोच्च केंद्रबिंदु हैं, अपितु ये आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना के सबसे बड़े संरक्षक एवं संवाहक भी हैं। यहीं से हमारी चेतना और संस्कृति पुनः नवजीवन पाती है, जागृत होती है और पुनः स्थापित होती है।
उन्होंने द्वादश ज्योतिर्लिंगों का जीर्णोद्धार कराया। उन बारह ज्योतिर्लिंगों और 52 शक्तिपीठों की तीर्थ यात्रा की आशा और आकांक्षा सभी सनातनियों के मन में सदैव बनी रहती है। अखंड भारत में फैले ये द्वादश ज्योतिर्लिंग एवं शक्तिपीठ हमारी सांस्कृतिक एकता के लोक-स्वीकृत एवं सर्वमान्य प्रतीक हैं। इनके प्रति पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण के लोगों की समान आस्था एवं श्रद्धा है। यह आस्था एवं श्रद्धा हमें आत्मिक तल पर सदैव जोड़े रखती है। यह विविधताओं के मध्य ऐक्य की अनुभूति कराती है। यह देश के भूगोल को जोड़ती है।
उन्होंने प्रत्येक बारह वर्ष पर आयोजित होने वाले महाकुंभ और प्रत्येक छह वर्ष पर आयोजित होने वाले अर्धकुंभ मेले के अवसर पर विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के संतों और संन्यासियों के बीच चर्चा, वाद-विवाद, संवाद और आम सहमति की व्यवस्था की। उस मंथन एवं संवाद से निकले अमृत रूपी ज्ञान को जन-जन तक ले जाने की मति, दृष्टि और संस्कृति विकसित की।
धर्म-दर्शन पर होने वाले खुले विमर्श एवं शास्त्रार्थ का ही सुखद परिणाम है कि सनातन संस्कृति एवं हिंदू-चिंतन में परंपरा के लिए तो सम्मान है, पर किसी काल-विशेष में प्रचलित रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं है। यह उन जैसे अवतारी, अलौकिक एवं असाधारण साधकों के प्रयासों का ही सुखद परिणाम है कि हर कुंभ मेले पर लघु भारत का विराट स्वरूप उमड़ पड़ता है। करोड़ों श्रद्धालुओं का वहाँ एकत्रित होना, पवित्र नदी में डुबकी लगाना, व्रत, उपवास, मर्यादा एवं अनुशासन का नियमपूर्वक पालन करना, तंबु-डेरा डालकर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन एवं नासिक में कई-कई दिनों तक व्रतियों एवं श्रद्धालुओं का निवास करना – संपूर्ण विश्व को मोहित एवं विस्मित कर जाता है। वहाँ भाषा, जाति, प्रांत एवं पंथ-संप्रदाय आदि की सभी बाहरी एवं राजनीति-प्रेरित कृत्रिम दीवारें अपने-आप ढह जाती हैं, और पारस्परिक एकता, सद्भाव, सहयोग एवं प्रेम का साक्षात भाव-दृश्य सजीव एवं साकार हो उठता है। हर पीढ़ी के लिए आद्य शंकराचार्य के विचार, दर्शन एवं साहित्य समान रूप से उपयोगी हैं। उन्हें जीने और आत्मसात करने की आज कहीं अधिक आवश्यकता है। एक ऐसे दौर में जबकि विभाजनकारी शक्तियाँ पूरी शक्ति से सक्रिय हों, निश्चय ही आद्य शंकर का जीवन एवं संदेश राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की भावना के संचार में सहायक है।
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