जल ही जीवन है, लेकिन युद्ध की छाया में वही घातक शस्त्र भी बन सकता है। आतंकी हमले की प्रतिक्रिया स्वरूप भारत ने सिंधु जल समझाैते को निलंबित करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है। यानी अब जल स्वयं एक रणनीतिक प्रतिरोधक है।

वरिष्ठ पत्रकार
यह पहला मौका नहीं है, जब पानी को हथियार बनाया गया है। इतिहास गवाह है कि राष्ट्रों ने नदियों को शस्त्र की तरह मोड़ा है। 1938 में चीन ने हुआंग हे (येलो रिवर) के तटबंध को तोड़कर जापानी सेना को रोका था। शत्रु सेना तो रुकी, पर चीन को अपने 8 लाख नागरिकों की बलि देनी पड़ी थी। 1672 में डचों ने फ्रांसीसी आक्रमण रोकने हेतु खेत-खलिहान जलमग्न कर दिए थे। सद्दाम हुसैन ने इराक के दलदलों को सुखा कर शियाओं को विस्थापित किया और 2023 में यूक्रेन के नोवा काखोव्का बांध के विध्वंस ने हजारों को बेघर किया। इस पृष्ठभूमि में भारत का निर्णय केवल पानी रोकने तक सीमित नहीं है, बल्कि एक शत्रु की धमनियों पर उंगली रखने वाला “सामरिक संदेश” है।
विश्व बैंक की मध्यस्थता से 1960 में हुई सिंधु जल संधि ने छह नदियां बांटीं। रावी-ब्यास-सतलुज (41 बीसीएम) भारत को मिलीं, जबकि सिंधु-झेलम-चिनाब (99 बीसीएम) का प्रभुत्व पाकिस्तान को। लिहाजा, 70 प्रतिशत जल पाकिस्तान के और मात्र 30 प्रतिशत जल भारत के हिस्से में आया। फिर भी संधि ने 65 वर्ष और दो युद्ध झेले। इतिहासकार डैनियल हेन्स ने लिखा है, “यह संधि जल को समान रूप से साझा करने के बारे में कम और संघर्ष से बचने के लिए इसे विभाजित करने के बारे में अधिक थी।” यानी न्याय नहीं, टकराव टालना प्राथमिकता थी।
भारत को वर्षों तक खटकता रहा कि बढ़ती आबादी, जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद की परछाई में यह बंटवारा उचित नहीं है। 2016 में उरी और 2019 में पुलवामा आतंकी हमलों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कथन गूंजा, “रक्त और पानी एक साथ नहीं बह सकते।” उसी भावना ने 2024 में शाहपुर कांडी बैराज से रावी का अंतिम रिसाव भी रोका—संघ समझौते की मर्यादा में रहते हुए, पर असरदार प्रतीक बनकर।
पाकिस्तान को खेती के लिए 90 प्रतिशत पानी यही नदियां देती हैं। मगर नालियों में लीकेज, व्यर्थ बहाव के चलते आधा पानी समंदर में चला जाता है। साथ ही, भू-जल स्तर भी गिर रहा है। ऐसे में भारत के पास कुछ विकल्प हैं, जैसे-
- पूर्वी नदियों का पूर्ण उपयोग- पंजाब-राजस्थान लिंक नहरें शेष धारा को वापस मोड़ सकती हैं। इससे कृषि क्षेत्र को भी लाभ होगा।
- पश्चिमी नदियों पर सीजनल फ्लो-मैनिपुलेशन- ‘रन-ऑफ-द-रिवर’ परियोजनाएं 7 दिन तक प्रवाह रोक और छोड़ सकती हैं। बुआई के लिए यह दबाव काफी है।
- नए जल भंडारण बांध- बर्सर, रतले जैसी परियोजनाएं शुरू कर देना ही भविष्य की मारकता बढ़ा देता है, भले ही इनके निर्माण में दशक लगे।
इन्हें ‘सकल दंड’ में बदलने की जगह ‘सर्जिकल’ यानी नियंत्रित प्रतिरोधक बनाना जरूरी है, जिससे अंतरराष्ट्रीय कानून और नैतिकता दोनों का मान रहे। भारत ने पहले भी निर्णायक प्रतिक्रियाएं की हैं- उरी के बाद सर्जिकल स्ट्राइक, पुलवामा के बाद बालाकोट एयर-स्ट्राइक। विश्व मंच ने इन्हें संयमित, किन्तु संकल्पित करार दिया, क्योंकि इनमें जनहानि न्यूनतम रही। इसी संयम से भारत ने संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करवाया। आज जनता फिर कह रही है, ‘आतंकवाद और पानी साथ साथ नहीं बह सकते’ तो सरकार ने भरोसा दिया है-“हम आतंकियों का पृथ्वी के अंतिम छोर तक पीछा करेंगे।”
चुप रहेगा चीन
कुछ आलोचकों का कहना है कि भारत का यह कदम चीन को उकसा सकता है। चीन, जो ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम तिब्बत में नियंत्रित करता है, इसके प्रवाह को रोक सकता है या बांध बनाकर भारत के पूर्वोत्तर राज्यों असम, अरुणाचल प्रदेश में बाढ़ या जल संकट पैदा कर सकता है। ये आशंकाएं सतही तौर पर तार्किक लगती हैं, लेकिन वैश्विक व्यापार और कूटनीति के गणित को समझने पर यह स्पष्ट होता है कि चीन के लिए ऐसी कार्रवाई उतनी आसान नहीं है। आज की दुनिया में युद्ध केवल हथियारों से नहीं, बल्कि व्यापार और अर्थव्यवस्था से लड़ा जाता है।
भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2024 में 136 अरब डॉलर से अधिक था, जिसमें भारत चीन से इलेक्ट्रॉनिक्स, मशीनरी और रसायनों का आयात करता है, जबकि चीन भारतीय कच्चे माल और वस्तुओं पर निर्भर है। यह व्यापारिक रिश्ता दोनों देशों के लिए लाभकारी है। चीन के लिए आर्थिक प्रगति सर्वोपरि है, इसलिए वह इसे जोखिम में डालने से बचेगा। गलवान घाटी में 2020 के संघर्ष के बाद भी जब दोनों देशों के बीच तनाव चरम पर था, भारत ने दृढ़ता दिखाई, लेकिन व्यापार पूरी तरह बंद नहीं हुआ। कारण स्पष्ट है- चीन जानता है कि भारत जैसे विशाल बाजार को खोना उसकी अर्थव्यवस्था के लिए आत्मघाती होगा।
चीन की ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाने की योजनाएं पुरानी हैं। 2020 में उसने यरलुंग जंगबो (ब्रह्मपुत्र का तिब्बती नाम) पर मेगा-हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की घोषणा की थी। लेकिन ये परियोजनाएं मुख्य रूप से ऊर्जा उत्पादन के लिए हैं, न कि भारत के खिलाफ जल हथियारीकरण के लिए। यदि चीन ब्रह्मपुत्र के प्रवाह को रोकता है, तो यह न केवल भारत, बल्कि बांग्लादेश को भी प्रभावित करेगा, जिससे क्षेत्रीय अस्थिरता बढ़ेगी।
इससे चीन की वैश्विक छवि को नुकसान होगा और दक्षिण एशियाई देशों में उसका प्रभाव कम होगा। इसके अलावा, भारत ने जल प्रबंधन में अपनी क्षमता बढ़ाई है। असम और अरुणाचल में बांध व जलाशयों का निर्माण और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल तकनीकों का उपयोग, भारत को किसी भी संभावित जल संकट से निपटने में सक्षम बनाता है।
आज के युग में संबंध हितों पर टिके हैं। चीन ‘बेल्ट एंड रोड’ पहल और वैश्विक व्यापार में प्रभुत्व चाहता है, इसलिए भारत के साथ टकराव से बचेगा। 1962 के युद्ध के बाद भी दोनों देशों ने 1988 में राजीव गांधी की बीजिंग यात्रा और 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी के दौरे जैसे कदमों से तनाव कम किया। हाल के वर्षों में भारत ने क्वाड (अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया) और ब्रिक्स जैसे मंचों पर अपनी स्थिति मजबूत की है।
चीन को अहसास है कि भारत के साथ खुले टकराव से उसे नुकसान ही होगा। पाकिस्तान का मामला अलग है। उसकी अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है और वह आतंकवाद को राज्य नीति के रूप में इस्तेमाल करता है। सिंधु जल संधि निलंबन ऐसा कदम है, जो पाकिस्तान को आर्थिक व कूटनीतिक रूप से कमजोर करेगा। पाकिस्तान का सदाबहार मित्र होने का दावा करने वाले चीन द्वारा उसकी मदद के लिए जल युद्ध शुरू करने की संभावना कम है।
रणनीति और संतुलन
इस्राएल की गोल्डा मेयर ने म्यूनिख नरसंहार के बाद “Operation Wrath of God” चला कर आतंकियों का सफाया किया तो देश ने राहत की सांस ली। 1971 के युद्ध में इंदिरा गांधी ने अत्याचार झेलते पूर्वी पाकिस्तानियों को मुक्त कराया और जनता ने अभूतपूर्व समर्थन दिया।
ये घटनाएं बताती हैं कि जब नेतृत्व जनभावनाओं के साथ खड़ा होता है, तो रणनीति को नैतिक बल मिलता है। आने वाले दिनों में भारत बहुआयामी जवाब दे सकता है-लक्षित सैन्य अभियान, आर्थिक-कूटनीतिक घेरा-बंदी और वैश्विक मंच पर पाकिस्तान को अलग-थलग करना। इसके साथ कश्मीर में विकास व विश्वास-निर्माण भी तेज करना होगा, जिससे आतंकियों की जमीन खिसके। संक्षेप में, ‘पानी की नल-बंदी’ अकेला समाधान नहीं, यह उस व्यापक रणनीतिक शतरंज की एक चाल है, जहां हर मोहरा (कूटनीति, सैन्य, आर्थिक, तकनीकी) संतुलित चले।
जब दो राष्ट्र एक ही नदी का पानी पीते हैं, तो वे सदा के लिए बंध जाते हैं या तो सहयोग की धार से या पानी के नीचे के उलटे प्रवाह से। निर्णय पानी का नहीं, उन हाथों का है जो उसका प्रवाह साधते हैं। जल तलवार भी है, पर कुशल हाथों में वही शल्य-चिकित्सक का चाकू बन सकता है-जो आतंक के फोड़े को चीरे, पर क्षेत्रीय शांति की धमनियां सलामत रखे। पहलगाम ने चेताया है, अब इतिहास की अगली पंक्ति भारत की प्रज्ञा लिखेगी।
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