22 अप्रैल 2025 की तारीख पहलगाम की घाटी में गूंजती चीखों और बारूद की गंध के साथ दर्ज हुई। पहलगाम का बैसरन, जहां कई परिवार अपने बच्चों संग छुट्टियां मना रहे थे, कुछ ही पलों में लाशों का मैदान बन गया। हिन्दू हो या नहीं, यह पूछकर हत्याएं की गईं। एक मासूम अपने पिता की लाश से चिपका रोता रहा, एक नवविवाहिता पति को बचाने की गुहार लगाती रही, आतंकियों ने कहा, ”जाओ, मोदी को बताना।” ऐसे अनेक हृदयविदारक दृश्यों के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हैं।

यह हमला एक बार फिर हमारी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है। आतंकवादियों ने पर्यटकों से उनका धर्म पूछकर, खतना की पहचान कर निर्दोष हिंदुओं की निर्मम हत्या की। यह दृश्य किसी औरंगजेबकालीन दमन का नहीं, बल्कि 2025 के भारत का है। वह भारत जिसका नेतृत्व स्वभाव और संस्कार से हिंदू नीति-निर्माताओं के हाथों में है।
कट्टर मजहबी जुनून की आग
यह हमला घृणित मजहबी मानसिकता के चलते किया गया। वह मानसिकता जो काफिरों को जीने लायक नहीं समझती। पहलगाम से जुड़ी सीना भेदती चीखें बताती हैं कि भारत के समक्ष चुनौतियों के जटिल समीकरण हैं और शांति की स्थापना के लिए हर मोर्चे पर ताल ठोककर जवाब देना ही होगा।
पहलगाम का सत्य यह है कि यह आतंकी हमला होने पर भी एक वैचारिक युद्ध का चेहरा ही है। ऐसे दुस्साहसपूर्ण हमले यह स्पष्ट करते हैं कि आतंकी केवल बंदूक से नहीं लड़ रहे, वे विचारधारा के अस्त्र से एक संगठित वैश्विक संघर्ष चला रहे हैं, जिसे हम केवल सीमित घटना समझने की भूल कर रहे हैं।
भारत के समक्ष खड़ी यह चुनौती केवल आतंकवाद से नहीं, एक संगठित वैचारिक गठजोड़ से है, जिसमें एक ओर हिंदुत्व को मिटाने का षड्यंत्र है, तो दूसरी ओर राजनीतिक इच्छाशक्ति की परीक्षा। विकसित और तथाकथित ‘सभ्य’ कहे जाने वाले देशों की अपने हितों तक सीमित रहने की प्रवृत्ति का राजनीतिक हिचक के रूप में प्रकट होना और भारत में न्यायपालिका व बौद्धिक तबके द्वारा प्रदर्शित असहज चुप्पी या मतभिन्नता इस वैचारिक चुनौती को और गंभीर बनाती है।
आज हमारे पास यह न मानने का कोई कारण नहीं कि जिहाद केवल आतंक नहीं, बल्कि पूरी मानवता के विरुद्ध एक सभ्यतागत संघर्ष है।
आकस्मिक नहीं हमला
पहलगाम का हमला न तो आकस्मिक है, न ही अलग-थलग। यह इस्लामी जिहाद के उस सुनियोजित एजेंडे का हिस्सा है जो हिंदुत्व और भारत की सांस्कृतिक आत्मा को मिटाने के उद्देश्य से वैश्विक समर्थन और स्थानीय सहानुभूति के सहारे कार्य कर रहा है। इस्लाम के कुछ मध्ययुगीन ग्रंथों और व्याख्याओं में ‘काफिर’ के प्रति जो दृष्टिकोण मिलता है, वह मित्रता नहीं, घृणा, बहिष्कार और अंततः हत्या तक की स्वीकृति प्रदान करता है। यह केवल मजहबी आग्रह नहीं, राजनीतिक इस्लाम का वह संस्करण है जिसने मजहब को एक सैन्य अभियान में बदल दिया है।
ऐसे अभियानों का समय बेहद सोच समझकर चुना जाता है। फिर उसके अनुसार ही उन्हें क्रियान्वित किया जाता है। फिर गढ़ा जाता है अलगाववाद का, मुसलमानों पर अत्याचार किए जाने का झूठा विमर्श। अलग-अलग समय पर, अलग-अलग तरीके से इन अभियानों को चलाया जाता है। इसके बाद देश और विदेश में इन कट्टरपंथियों का हमदर्द बनकर बैठी वामपंथी बिग्रेड सक्रिय हो जाती है। वह अपनी पूरी ताकत झोंक देती है एक झूठा विमर्श खड़ा करने में। उदाहरण के तौर पर, साल 2000 में जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन 21 से 25 मार्च तक भारत दौरे पर थे, तब अनंतनाग जिले के चिट्टीसिंहपोरा गांव में 36 सिख ग्रामीणों का नरसंहार किया गया था।
जब 2020 में दिल्ली में दंगे हुए तब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत के दौरे पर आए हुए थे। उनके भारत आने से पहले सीएए और एनआरसी के विरोध में महीनों तक धरने दिए गए। उन्हीं धरनों में यह साजिश रची गई। तारीख निश्चित की गई और दंगे भड़काए गए ताकि वैश्विक बिरादरी में यह संदेश दिया जा सके कि ‘भारत में मुसलमानों के साथ अत्याचार हो रहे हैं, और उनकी वहां कोई सुनवाई नहीं।’
इसी तर्ज पर पहलगाम में इस घृणित कृत्य को तब अंजाम दिया गया, जब अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस परिवार सहित भारत आए हुए थे। ऐसा इसलिए किया गया ताकि पाकिस्तान कश्मीर विवाद को वैश्विक मंच पर फिर से हवा दे सके। आतंकियों को पोषित करने वाले इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान का कश्मीर पर बार-बार बोला जाने वाला झूठ सबके सामने आ चुका है। सब जान चुके हैं पाकिस्तान आतंवादियों को पनाह देने वाला मुल्क है। इसी के चलते वह दिवालिया होने के कगार पर भी है। सब उससे किनारा कर चुके हैं। कोई उसे नहीं पूछ रहा है। अमेरिका की ट्रम्प सरकार ने 26/11 हमले के साजिशकर्ता तहव्वुर हुसैन राणा को भारत प्रत्यर्पित कर आतंकवाद के प्रति अपनी ‘जीरो टॉलरेंसश’ की नीति स्पष्ट कर दी है। उसने यह बता दिया है कि इस मुद्दे पर वह भारत के साथ खड़ा है।
दरअसल, भारत ने पिछले दशक में आधारभूत ढांचे, गरीबी उन्मूलन और आर्थिक प्रगति के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। परंतु, यह विकास पथ बार-बार आतंकवाद, कट्टरवाद और तुष्टीकरण की नीतियों से बाधित होता रहा है। इन सबके मूल में है, एक ऐसा गठजोड़, जिसमें स्थानीय वोट बैंक की राजनीति, न्यायिक नरमी और बौद्धिक पाखंड शामिल हैं। पहलगाम की घटना बताती है कि अब युद्ध केवल सीमाओं पर नहीं लड़ा जाता, यह विचारों और संस्कृति की आंतरिक रक्षा की लड़ाई बन चुका है।
असल चुनौती कलमधारी हमदर्द
भारत के लिए असली चुनौती बंदूकधारी आतंकियों से नहीं, बल्कि कलमधारी हमदर्दों से है, जो हर आतंकी कृत्य को ”घटना” का जामा पहनाते हैं, कट्टरपंथ के खिलाफ कार्रवाई को ”फासीवाद” बताते हैं और न्यायपालिका के मंच से आतंक के खिलाफ कार्रवाई को उलझाते हैं। यह गठजोड़ केवल सरकार से नहीं, बल्कि भारत की सभ्यतागत सोच से युद्ध में लिप्त है।
पहलगाम में रक्त बहा है, लेकिन वह खून किसी आतंकवादी गुट की बौखलाहट नहीं, बल्कि एक गहरे, वैश्विक इस्लामी एजेंडे की प्रकट अभिव्यक्ति है। यह वही एजेंडा है, जिसकी जड़ें मजहबी किताबों में हैं। जिसकी शाखाएं पाकिस्तान की आईएसआई और तालिबानी नेटवर्क से जुड़ी हैं, और जिसे खाद भारत के भीतर बैठे ‘सेक्युलर’ झंडाबरदारों द्वारा मुहैया कराई जाती है।
यह समझना होगा कि जिहाद अब केवल स्थानीय चरमपंथ नहीं, बल्कि वैश्विक संसाधनों, नेटवर्क और प्रोपेगेंडा से सुसज्जित आंदोलन है। पाकिस्तान जैसे देशों की सैन्य एजेंसियां, विदेशी फंडिंग और इंटरनेट के माध्यम से जिहादी प्रोत्साहन, इन सबने इसे एक वैश्विक रणनीति में बदल दिया है। पहलगाम में पाकिस्तान सेना के स्पेशल कमांडो की भागीदारी इस जिहादी तंत्र की गहराई को उजागर करती है।
अब समय आ गया है कि भारत अपनी नीति, दृष्टिकोण और रणनीति को एक स्पष्ट वैचारिक अधिष्ठान पर आधारित करे।
तुष्टीकरण का कानूनी और नैतिक प्रतिरोध अब स्पष्ट रूप से तय करना होगा। समान नागरिक संहिता जैसे नीतिगत निर्णयों में देरी अब देश के लिए घातक है।
यह आवश्यक है कि चरमपंथ को मजहबी नहीं, बल्कि राजनीतिक रूप में पहचाना जाए। जिहाद को मजहबी कट्टरता नहीं, राजनीतिक सैन्यवाद और कट्टरता के समर्थकों की राजनीति के कच्चे माल के रूप में समझा जाए।
न्यायपालिका व नौकरशाही में राष्ट्रहित के मुद्दों पर टकराव और अड़चनों की प्रवृत्ति का आकलन इस देश की सबसे बड़ी पंचायत को मिल, बैठकर करना होगा। संवैधानिक पद और संस्थाओं से कट्टरवाद और जिहाद की स्पष्ट समझ की अपेक्षा आज भारत की साझी आवश्यकता है। वैचारिक शुद्धता, स्पष्टता और भारतभाव से शून्य, राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों का निर्मूलन किये बिना चैन से नहीं बैठा जा सकता।
यह वास्तविकता है कि हिंदू समाज की संगठित सांस्कृतिक एकता इस देश में सामंजस्य और सौहार्द का आधार है। हिंदुत्व को हर उपद्रव का शमन करने में सक्षम सांस्कृतिक जीवन-दृष्टि के रूप में स्थापित करना, यही भारत की सबसे बड़ी उत्तर-शक्ति है।
X@hiteshshankar
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