बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार के जाने के बाद चुनावों को लेकर कोई जल्दी नहीं दिखी, लेकिन नीतिगत निर्णय तेजी से लिए जा रहे हैं। इस पर जहां बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) परेशान है तो वहीं कट्टरपंथी और उसकी पूर्व सहयोगी जमात-ए-इस्लामी का कहना है कि चुनाव उचित समय पर आवश्यक सुधारों के बाद ही होने चाहिए।
उत्तर पश्चिमी लालमोनिरहट जिले में, एक सार्वजनिक रैली में जमात के मुखिया शफ़ीकुर रहमान ने कहा कि कोई भी चुनाव तब तक जनता को स्वीकार नहीं होंगे, जब तक शेख हसीना के शासनकाल में जुल्म करने वाले लोगों को सजा नहीं मिलती और संरचनात्मक राजनीतिक सुधार नहीं हो जाते।
जमात का यह रुख बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के रुख से अलग है। बीएनपी लगातार ही चुनावों को लेकर मुखर रही है। वह यह मांग उठा रही है कि मुल्क में जल्दी से जल्दी चुनाव कराए जाएं। मगर ऐसा लगता है कि न ही यूनुस सरकार को चुनाव कराने की कोई जल्दी है और न ही जमात को जल्दी चुनावों में दिलचस्पी।
शेख हसीना के जाने के बाद जो राजनीतिक स्थान खाली हुआ है, उसे अपने हिसाब से भरने के लिए जमात और बीएनपी दोनों ही प्रयास कर रही हैं। शायद यही कारण है कि जहां एक ओर जमात चुनाव टालना चाहती है तो वही बीएनपी चुनाव की जल्दी में है।
शेख हसीना का स्वाभाविक प्रतिद्वंदी या कहें राजनीतिक विकल्प बीएनपी ही लोगों को लगती है और यही कारण है कि बीएनपी यूनुस सरकार से अनुरोध कर रही है कि वह जल्दी चुनाव कराएं। वहीं जमात अपनी कट्टरपंथी सोच के साथ पैर जमा रहा है, और वह पर्याप्त समय चाहता होगी, जिससे कि वह अपने संगठन को मजबूत कर सके और यही कारण है कि वह चुनावों में देरी चाहता है।
जमात के नेता रहमान ने कहा कि बांग्लादेश में किसी भी चुनावों से पहले, कातिलों का हिसाब होना चाहिए और सुधार होने चाहिए। जमात से जुड़े अखबार नया दिगंता के आँसुआर रहमान ने कहा कि जब तक इन दो कामों को पूरा नहीं किया जाएगा, तब तक लोग बांग्लादेश में चुनाव स्वीकार नहीं करेंगे।
प्रश्न यह खड़ा होता है कि ये सुधार कौन से हैं? क्या व्यवस्था से जिस प्रकार हिंदुओं को बाहर निकाला जा रहा है, या कहा जाए कि शेख हसीना के स्वाभाविक समर्थक होने के नाते उन्हें बहुत ही सुनियोजित तरीके से व्यवस्था से बाहर किया जा रहा है, वे सुधार हैं, जिनकी बात जमात-ए-इस्लामी कर रही है?
व्यवस्था में सुधार से तो यही तात्पर्य हुआ कि जिन लोगों पर शेख हसीना के साथ कार्य करने का संदेह हो, उन्हें व्यवस्था से दूर करना, और शेख हसीना को भी संसदीय व्यवस्था से दूर रखना। चुनावों को लेकर जमात की ये टिप्पणियाँ उस समय आई हैं, जब तीन-चार दिन पहले ही बीएनपी के नेता ने देश में चुनावों में हो रही देरी को लेकर अपनी झुंझलाहट व्यक्त की है।
ऐसा नहीं है कि चुनावों को लेकर जमात की यह निश्चिंतता हाल की बात है। नवंबर में भी ऐसा हो चुका है। नवंबर में भी बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी पार्टी के सेक्रेटरी जनरल और पूर्व सांसद प्रोफेसर मियां गुलाम परवर ने कहा था कि देश में चुनाव न्यूनतम सुधारों के बाद उचित समय पर कराए जाएं। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि यह कहना बहुत कठिन है कि यह उचित समय कब आएगा।
बीएनपी भी यही प्रश्न कर रही है कि उचित समय कब आएगा? बीएनपी को छोड़कर किसी भी राजनीतिक दल को चुनावों को लेकर कोई हड़बड़ी नहीं है। हाल ही में बनी नेशनल सिटिज़न पार्टी की रैली में इसके संयोजक नाहिद इस्लाम ने कहा था कि कोई भी चुनाव ऐसे प्रशासन में नहीं कराए जा सकते हैं। एनसीपी वही पार्टी है, जो उन छात्रों ने बनाई है, जिन्होंने शेख हसीना की सरकार गिराई थी। यह भी माना जा रहा है कि इस पार्टी को बांग्लादेश के अंतरिम सरकार प्रमुख मोहम्मद यूनुस का समर्थन प्राप्त है।
न ही जमात चुनावों को लेकर जल्दी में है, न ही एनसीपी और न ही मोहम्मद यूनुस। तीनों के वक्तव्य लगातार एक से आ रहे हैं। मगर चुनावों को लेकर मोहम्मद यूनुस पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है। किसी भी देश में इस प्रकार से थोपी हुई सरकार अधिक दिन तक नहीं चल सकती है। बढ़ती हुई आलोचनाओं के मद्देनजर मोहम्मद यूनुस की सरकार को चुनावी सुधारों को लेकर एक बयान जारी करना पड़ा था। हाल ही में एशियन नेटवर्क फॉर फ्री इलेक्शन से आए हुए प्रतिनिधिमंडल के साथ बात करते हुए मुख्य सलाहकार ने कहा था कि हम चाहते हैं कि ये चुनाव बांग्लादेश के इतिहास में एक मील का पत्थर बनें। मगर यह नहीं समझ आ रहा है कि प्रमुख दल को पूरी प्रक्रिया या कहें परिदृश्य से बाहर रखकर और दूसरे मुख्य दल की चुनावों को लेकर मांग न मानकर मोहम्मद यूनुस कैसे चुनावों को मील का पत्थर बना सकते हैं?
या फिर यह भी प्रश्न उठ रहा है कि क्या चुनावी कार्यक्रम घोषित करने में जो देरी हो रही है, वह कट्टरपंथियों को राजनीतिक व्यवस्था में पूरी तरह से स्थापित करने के लिए तो नहीं हो रही है? अगस्त 2024 से अंतरिम सरकार की गिरफ्त में आया बांग्लादेश काफी नीतिगत परिवर्तन कर चुका है, जिनमें शेख मुजीबुर्रहमान को बांग्लादेश के इतिहास से लगभग गायब करना भी सम्मिलित है।
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