वैश्विक धरोहरों के संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाने और आने वाली पीढ़ियों के लिए इन्हें संरक्षित रखने का आह्वान करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 18 अप्रैल को ‘विश्व धरोहर दिवस’ मनाया जाता है। विश्व धरोहर दिवस, जिसे आधिकारिक रूप से ‘अंतर्राष्ट्रीय स्मारक और स्थल दिवस’ कहा जाता है, अंतर्राष्ट्रीय पुरातत्व एवं स्थल परिषद की पहल पर यूनेस्को द्वारा 1983 में स्थापित किया गया था।
इस दिवस का मूल उद्देश्य मानव सभ्यता की सांस्कृतिक विरासतों की रक्षा करना, उनकी ऐतिहासिक एवं सामाजिक महत्ता को रेखांकित करना तथा उनकी सुरक्षा के लिए वैश्विक सहयोग को सुदृढ़ करना है। भारत, जो कि प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है, विश्व धरोहरों के संदर्भ में बेहद समृद्ध राष्ट्र है। यहां की धरती पर हजारों वर्षों से चली आ रही सांस्कृतिक, धार्मिक, स्थापत्य कला, कलात्मक और ऐतिहासिक विरासतें आज भी जीवंत रूप में विद्यमान हैं।
भारत में यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त कुल 42 विश्व धरोहर स्थल हैं, जिनमें 34 सांस्कृतिक, 7 प्राकृतिक और 1 मिश्रित धरोहर स्थल सम्मिलित हैं। यह संख्या भारत को विश्व के उन शीर्ष देशों में शुमार करती है, जहां सबसे अधिक विश्व धरोहर स्थल मौजूद हैं। इन धरोहरों में अजंता-एलोरा की गुफाएं, कोणार्क का सूर्य मंदिर, खजुराहो के मंदिर, ताजमहल, कुतुब मीनार, हम्पी का स्मारक समूह, महाबलीपुरम के शिल्प, चोल कालीन मंदिर, दिल्ली का लाल किला, आगरा किला, फतेहपुर सीकरी, रणकी वाव, सांची स्तूप, नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, भीमबेटका की गुफाएं, एलिफेंटा की गुफाएं, बौद्ध गुफाएं, चंपानेर-पावागढ़ पुरातात्विक उद्यान जैसे अद्वितीय स्थल हैं, जो भारतीय संस्कृति की गहराई और विविधता को दर्शाते हैं। इनके अलावा भारत की कुछ प्राकृतिक धरोहरें भी विश्व स्तर पर अद्वितीय हैं, जैसे काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, मानस वन्यजीव अभयारण्य, सुंदरबन, घाटी क्षेत्र के पश्चिमी घाट, नंदा देवी, फूलों की घाटी, और केवोलादेव राष्ट्रीय उद्यान। ये स्थल जैव विविधता, प्राकृतिक सौंदर्य और पर्यावरणीय संतुलन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। भारत का मिश्रित धरोहर स्थल ‘कंचनजंघा राष्ट्रीय उद्यान’ है, जो सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक दोनों ही पहलुओं को समाहित करता है। कंचनजंघा क्षेत्र में रहने वाले लोगों की आस्था, उनकी पौराणिक मान्यताएं, पर्यावरणीय ज्ञान और हिमालयी संस्कृति इस स्थल को विशिष्ट बनाते हैं।
विश्व धरोहर स्थलों की सूची में किसी स्थल को शामिल करना एक जटिल प्रक्रिया है। इसके लिए पहले उस स्थल को संभावित धरोहर सूची में रखा जाता है, जिसे ‘टेन्टेटिव लिस्ट’ कहा जाता है। इसके उपरांत यूनेस्को और अंतर्राष्ट्रीय पुरातत्व एवं स्थल परिषद की टीमें उस स्थल की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, वास्तुकला, संरक्षण एवं प्रबंधन प्रणाली का गहन अध्ययन करती हैं। इसके पश्चात यदि स्थल इन सभी मानकों पर खरा उतरता है तो उसे विश्व धरोहर के रूप में घोषित किया जाता है।
भारत की संभावित सूची में अभी भी कई महत्वपूर्ण स्थल हैं, जैसे भीमराव अम्बेडकर स्मारक, चिदंबरम नटराज मंदिर, चाणक्यपुरी क्षेत्र, बिश्नोई वन्यजीव क्षेत्र, मारवाड़ क्षेत्र के किलों का समूह, बांधवगढ़ किला और अंडमान-निकोबार के आदिवासी क्षेत्रों की विरासतें। भारत की विश्व धरोहरें केवल स्थापत्य या प्राकृतिक सौंदर्य का प्रतीक नहीं हैं बल्कि उस ऐतिहासिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिसने भारत को सहिष्णु, समावेशी और वैविध्यपूर्ण समाज के रूप में स्थापित किया है। मसलन, अजंता की गुफाएं बुद्ध के जीवन से जुड़ी कहानियों को अद्भुत चित्रों और भित्ति कला के माध्यम से प्रस्तुत करती हैं तो खजुराहो के मंदिर भारतीय कामशास्त्र और अध्यात्म की समांतर अभिव्यक्ति हैं। कुतुब मीनार दिल्ली सल्तनत की स्थापत्य प्रतिभा और धार्मिक सहिष्णुता की बानगी है जबकि हम्पी और महाबलीपुरम जैसे स्थल भारत के स्थापत्य विज्ञान, खगोलविद्या और जल प्रबंधन की दक्षता को दर्शाते हैं।
भारत की धरोहरें केवल शासकों और संतों की गाथा नहीं सुनाती बल्कि आम जनमानस की सृजनात्मकता, उनकी धार्मिक आस्थाएं, सामाजिक संरचनाएं और आर्थिक व्यवस्थाओं की झलक भी प्रस्तुत करती हैं। उदाहरणस्वरूप, नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली की महत्ता को दर्शाते हैं, जहां हजारों की संख्या में छात्र विश्व के कोने-कोने से ज्ञान अर्जन हेतु आया करते थे। आज भारत में धरोहर स्थलों की सुरक्षा एक बड़ी चुनौती बन चुकी है। बढ़ती जनसंख्या, नगरीकरण, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, और असंवेदनशील पर्यटन जैसे कारकों के कारण कई विश्व धरोहर स्थलों की स्थिति चिंताजनक होती जा रही है। यूनेस्को ने समय-समय पर कुछ धरोहरों को खतरे की सूची में डाला भी है। उदाहरणस्वरूप, काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में हो रहे मानवीय अतिक्रमण और ताजमहल के आसपास वायु प्रदूषण ने चिंता बढ़ाई है। इन स्थलों की संरचना को अक्षुण्ण बनाए रखने के उद्देश्य से ही सरकार द्वारा ‘भारतीय विरासत संरक्षण योजना’, ‘प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम’ और ‘एडॉप्ट ए हेरिटेज’ जैसी कई योजनाएं लागू की गई हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और राज्य पुरातत्व विभागों की भूमिका भी सराहनीय रही है, जो लगातार इन स्थलों के संरक्षण और पुनरुद्धार के लिए कार्यरत हैं। भारत सरकार ने डिजिटल प्रौद्योगिकी की मदद से ‘वर्चुअल हेरिटेज वॉक’ जैसी पहल भी शुरू की हैं ताकि लोगों को घर बैठे इन धरोहर स्थलों की सुंदरता और ऐतिहासिक महत्ता का अनुभव कराया जा सके।
भारत की कुछ धरोहरें ऐसी भी हैं, जो हालांकि अभी तक विश्व धरोहर की सूची में शामिल नहीं हो सकी हैं लेकिन उनकी महत्ता किसी भी मानक पर कम नहीं है। जैसे मथुरा-वृंदावन की कृष्ण नगरी, वाराणसी की प्राचीन संस्कृति, उज्जैन के ज्योतिर्लिंग, अमरावती बौद्ध स्थल और मणिपुर का लोकटक झील क्षेत्र, ये सभी भारत की विविधता और समृद्धि के जीवंत प्रमाण हैं। भारत की सांस्कृतिक धरोहरें केवल देश की नहीं बल्कि पूरे विश्व की साझा धरोहर हैं और मानव सभ्यता की अनमोल थाती हैं। आज जब दुनिया तेजी से आधुनिकता और उपभोक्तावाद की ओर बढ़ रही है, तब यह आवश्यक है कि हम अपनी जड़ों को न भूलें। धरोहरें सिर्फ पत्थरों में तराशी गई कलाकृतियां नहीं हैं बल्कि हमारे अतीत से जुड़े जीवंत संवाद हैं, जिनका संरक्षण न केवल हमारी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा है बल्कि हमारी सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना का संवर्धन भी है। भारतीय समाज में धरोहरों के संरक्षण की परंपरा नई नहीं है। यहां हर कालखंड में स्मारकों, मंदिरों, बावड़ियों, घाटों, गुफाओं, किलों और मस्जिदों को सहेजने और पुनर्निर्मित करने की परंपरा रही है। राजाओं द्वारा शिलालेखों और ताम्रपत्रों के माध्यम से मरम्मत और संरक्षण का कार्य कराया जाता था। आज भी बिश्नोई जैसे कुछ समुदाय पर्यावरण और धरोहर संरक्षण के लिए प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
भारत में धरोहरों से जुड़ी कहानियां भी अत्यंत रोचक हैं। जैसे कोणार्क के सूर्य मंदिर की शिल्प संरचना, जिसमें सूर्य की गति और खगोलशास्त्र का अद्भुत समावेश है, भीमबेटका की गुफाएं, जो 30 हजार वर्ष पुरानी हैं और जिनमें उस युग की आदिमानव की जीवन शैली को भित्तिचित्रों द्वारा दर्शाया गया है, हम्पी का पत्थर पर बजता ‘संगीत मंडप’, रणकी वाव की अद्भुत जल संरचना, ये सब दर्शाते हैं कि भारतीय धरोहरें तकनीकी, कलात्मक और सांस्कृतिक दृष्टि से कितनी समृद्ध रही हैं। भारत में जहां हर पग पर इतिहास बिखरा पड़ा है, वहां इस संवाद को जीवंत रखना और उसे आने वाली पीढ़ियों तक सही रूप में पहुंचाना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। इस दिशा में शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में स्थानीय और राष्ट्रीय धरोहर स्थलों को सम्मिलित करना, स्कूल-कॉलेज स्तर पर संरक्षण संबंधी परियोजनाएं चलाना, युवाओं को डिजिटल माध्यम से धरोहरों से जोड़ना और क्षेत्रीय भाषाओं में जानकारी प्रसारित करना अत्यंत आवश्यक हो गया है। धरोहरें केवल भूतकाल नहीं होती बल्कि भविष्य की नींव होती हैं। उन्हें सहेजना अपने आत्मत्व को सहेजना है। यह आवश्यक है कि स्थानीय समुदायों को धरोहर संरक्षण का अभिन्न अंग बनाया जाए, ताकि वे अपनी सांस्कृतिक पहचान को लेकर गर्व महसूस करें और स्वयं इन स्थलों की रक्षा में भागीदार बनें।
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