डॉल्फिन को विश्व के सबसे बुद्धिमान, बेहद सामाजिक और मिलनसार स्तनधारियों में से एक माना जाता है, जो सिटासियन स्तनधारी हैं और व्हेल तथा पोरपॉइज के समान परिवार से संबंधित हैं। डॉल्फिन न केवल हमारे जल संसाधनों की समृद्धि की प्रतीक हैं बल्कि हमारे पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता के लिए भी आवश्यक हैं। इसी अद्भुत जलीय जीव के संरक्षण के प्रति जन-जागरूकता के लिए प्रतिवर्ष 14 अप्रैल को ‘डॉल्फिन दिवस’ मनाया जाता है।
डॉल्फिन न केवल समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की समृद्धि की प्रतीक हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन और मानव गतिविधियों के प्रभावों के प्रति संवेदनशील संकेतक भी हैं। वर्ल्ड वाइड फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) और यूनाइटेड नेशंस एनवायरनमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) जैसी वैश्विक संस्थाएं मीठे पानी में पाई जाने वाली डॉल्फिन को एक ‘फ्लैगशिप स्पीशीज’ के रूप में मानती हैं, जिनका अस्तित्व किसी भी नदी तंत्र के जैविक स्वास्थ्य का संकेतक होता है। एक स्वस्थ डॉल्फिन आबादी यह दर्शाती है कि उस नदी में जैव विविधता, जल की गुणवत्ता और खाद्य श्रृंखला संतुलित है। इसके विपरीत, यदि डॉल्फिन लुप्त हो रही हैं तो वह पूरे एक्वेटिक इकोसिस्टम के संकट का संकेत देती है। संयुक्त राष्ट्र की ‘फ्रैश वाटर स्पीशीज ऑफ द वर्ल्ड 2023’ रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 50 वर्षों में विश्वभर में मीठे पानी की डॉल्फिन प्रजातियों में 73 प्रतिशत तक की गिरावट दर्ज की गई है, जो किसी भी वर्ग में सबसे तीव्र गिरावट मानी जाती है।
डॉल्फिन वैश्विक स्तर पर कई खतरों का सामना कर रही हैं, जैसे कि आवास की हानि, प्रदूषण, मछली पकड़ने के उपकरणों में उलझना और मनोरंजन के लिए उनकी पकड़। इन खतरों के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए ही ‘डॉल्फिन दिवस’ मनाया जाता है। नदियों में औद्योगिक और घरेलू अपशिष्टों का निस्तारण, बांधों तथा बैराजों के कारण होने वाले प्रवासी मार्ग का अवरोध, मछली पकड़ने के दौरान उपयोग में लाए जाने वाले फाइन नाइलॉन जाल डॉल्फिन के लिए जानलेवा साबित होते हैं। ‘प्लास्टिक सोप फाउंडेशन’ की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, जल में उपस्थित माइक्रोप्लास्टिक्स भी डॉल्फिन्स के अंगों में विषाक्तता उत्पन्न कर रहे हैं। 2007 में चीन की यांग्त्जे नदी डॉल्फिन वैज्ञानिक रूप से विलुप्त घोषित की गई थी। यह घटना पर्यावरण संरक्षण में हमारी विफलताओं का प्रतीक बनी, जिसने विश्व समुदाय को चेताया कि यदि अब भी प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो अन्य मीठे पानी की डॉल्फिन का भी यही हश्र हो सकता है। ब्राजील की अमेजन डॉल्फिन (बोटो) और दक्षिण अमेरिका की टुकुक्सी डॉल्फिन भी ‘संकटग्रस्त’ श्रेणी में आती हैं और इनका अस्तित्व गंभीर संकट में है।
हालांकि भारत ने बीत कुछ वर्षों में डॉल्फिन संरक्षण के वैश्विक मानकों के साथ सामंजस्य बिठाते हुए कई ठोस पहल की हैं, जिनके सकारात्मक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। 2024 में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भारत की ‘नदी जैव विविधता नीति’ को एक सराहनीय पहल के रूप में प्रस्तुत किया गया था। इस नीति में डॉल्फिन के साथ-साथ कछुए, ऊदबिलाव, जलपक्षियों और मछलियों को समग्र रूप से संरक्षित करने की रणनीति शामिल है। इस नीति के अंतर्गत मल्टी-स्टेकहोल्डर मॉडल को अपनाया गया, जिसमें सरकार, स्थानीय निकाय, एनजीओ, वैज्ञानिक संस्थाएं और समुदाय मिलकर कार्य कर रहे हैं।
डॉल्फिन के संरक्षण के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2020 में ‘प्रोजेक्ट डॉल्फिन’ की शुरुआत की थी, जिसकी घोषणा 15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से की थी। इस परियोजना का उद्देश्य गंगा डॉल्फिन की आबादी में सुधार, संरक्षण क्षेत्रों का विस्तार, जागरूकता कार्यक्रमों का संचालन और वैज्ञानिक अध्ययन के माध्यम से इनकी जीवन शैली को समझना है। ‘प्रोजेक्ट डॉल्फिन’ को ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ और ‘प्रोजेक्ट एलिफैंट’ की तर्ज पर तैयार किया गया है, जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर निगरानी, प्रशिक्षण और संरक्षण योजनाएं शामिल हैं। यह परियोजना जल शक्ति मंत्रालय के अधीन ‘राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन’ (एनएमसीजी) के साथ समन्वय कर संचालित की जा रही है।
डॉल्फिन संरक्षण की दिशा में भारत में कुछ उल्लेखनीय पहल की गई हैं। उत्तर प्रदेश के चंबल नदी क्षेत्र में डॉल्फिन अभयारण्य घोषित किया गया है, वहीं बिहार में विक्रमशिला गंगा डॉल्फिन सेंचुरी देश का एकमात्र संरक्षित डॉल्फिन क्षेत्र है, 50 किलोमीटर का यह विस्तृत क्षेत्र डॉल्फिन की प्राकृतिक प्रजनन और आवासीय प्रवृत्तियों का अध्ययन करने के लिए एक उत्कृष्ट स्थल है। भारत में गंगा डॉल्फिन की वर्तमान अनुमानित संख्या लगभग 3700 है, जो कि 1990 के दशक की तुलना में गिरावट के बावजूद पिछले कुछ वर्षों की संरक्षण पहल के कारण स्थिर हुई है।
गंगा डॉल्फिन को भारत में 2009 में राष्ट्रीय जलीय पशु घोषित किया गया था। गंगा डॉल्फिन, जिसे ‘सूस’ भी कहा जाता है, मुख्य रूप से भारत, नेपाल और बांग्लादेश के गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदी तंत्र में पाई जाती है। भारत में यह गंगा, यमुना, चंबल, घाघरा, गंडक, कोसी और सोन जैसी नदियों में सीमित रूप से मिलती है। यह मीठे पानी में पाई जाने वाली कुछ दुर्लभ डॉल्फिन प्रजातियों में से एक है। गंगा डॉल्फिन अंधी होती हैं और केवल इकोलोकेशन की सहायता से शिकार ढूंढती व रास्ता पहचानती हैं। यह विशेष क्षमता उन्हें अति विशिष्ट बनाती है परंतु यह भी इंगित करती है कि वे ध्वनि प्रदूषण और जल प्रदूषण के प्रति अत्यंत संवेदनशील हैं। इनकी उपस्थिति स्वस्थ नदी पारिस्थितिकी तंत्र का संकेत देती है। एक तरह से ये नदियों के स्वास्थ्य की सूचक मानी जाती हैं, जहां ये जीवित रहती हैं, वहां की जल गुणवत्ता और जैविक विविधता उच्च स्तर की होती है। भारत सरकार ने हाल ही में पहली बार नदी डॉल्फिन की जनसंख्या का आकलन किया। सर्वेक्षण में 8 राज्यों की 28 नदियों को शामिल किया गया था, जिसमें 8500 किलोमीटर की दूरी तय की गई और 3150 कार्य-दिनों का समय लगा। परिणामस्वरूप, देश में कुल 6327 नदी डॉल्फिन की उपस्थिति दर्ज की गई। उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक 2397 डॉल्फिन पाई गई, उसके बाद बिहार में 2220, पश्चिम बंगाल में 815, असम में 635, झारखंड में 162, राजस्थान और मध्य प्रदेश में 95 डॉल्फिन की उपस्थिति दर्ज हुई।
दुनियाभर में डॉल्फिनों के सामने कई प्रकार की चुनौतियां हैं, जिनमें प्रदूषण, नावों की आवाजाही और जल यातायात की गतिविधियां, अवैध शिकार, बांध और बैराज इत्यादि प्रमुख हैं। औद्योगिक अपशिष्ट और घरेलू सीवेज के कारण नदियों की गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है। सोनार और इंजन की आवाजें डॉल्फिन की इकोलोकेशन प्रणाली को बाधित करती हैं। कई इलाकों में अब भी डॉल्फिन की चर्बी और मांस का उपयोग मछली पकड़ने में किया जाता है। इसके अलावा बांध और बैराज से डॉल्फिनों के प्राकृतिक आवास खंडित हो जाते हैं, जिससे उनके प्रवास और प्रजनन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। डॉल्फिनों की गतिविधियों को ट्रैक करने के लिए अब ड्रोन, हाइड्रोफोन और सैटेलाइट ट्रैकिंग जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जाने लगा है। आईआईटी कानपुर, रुड़की और पटना जैसे संस्थान डॉल्फिन संरक्षण के लिए जल गुणवत्ता मापन, ध्वनि प्रदूषण का आकलन और प्रवाह माप की तकनीकों पर कार्य कर रहे हैं। इसके अलावा इसरो द्वारा उपग्रह आधारित निगरानी से भी डॉल्फिन संरक्षण प्रयासों को बल मिल रहा है। बिहार में सोनार आधारित साउंड मैपिंग से डॉल्फिन की गतिविधियों को रियल-टाइम में ट्रैक किया जा रहा है।
बहरहाल, डॉल्फिन भारत में केवल एक जीव नहीं बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण मानी जाती हैं, जिनका उल्लेख कई लोककथाओं में भी मिलता है। गंगा जैसी पवित्र नदियों में निवास करने के कारण इनका आध्यात्मिक महत्व भी है। इन जीवों का संरक्षण एक प्रकार से हमारी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करना भी है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि तापमान में वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस से ऊपर गई तो गंगा जैसी नदियों में जल प्रवाह कम होने की संभावना है, जिससे डॉल्फिनों के आवास और भोजन दोनों संकट में आ सकते हैं। यही कारण है कि डॉल्फिन संरक्षण अब केवल एक पारिस्थितिक मुद्दा ही नहीं बल्कि जलवायु नीति का अभिन्न अंग भी बन चुका है। डॉल्फिनों की मुस्कान ही नदियों के स्वास्थ्य की पहचान है क्योंकि जब वे स्वस्थ रहती हैं तो नदियां भी जीवंत रहती हैं। यदि डॉल्फिन बचेंगी तो नदियां बचेंगी और यदि नदियां बचेंगी तो ही जीवन बचेगा।
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