आरएसएस के 100 साल: समाज में बढ़ती संघ की स्वीकार्यता
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समाज में बढ़ती संघ की स्वीकार्यता

संघ अपनी यात्रा के 100वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है। राष्ट्र निर्माण के लिए व्यक्ति निर्माण के कार्य को संघ ने ग्राम एवं खंड स्तर पर ले जाने का निर्णय किया है। इस दिशा में पिछले एक वर्ष में व्यवस्थित योजना और क्रियान्वयन के साथ 10,000 शाखाओं की वृद्धि स्वयंसेवकों के संकल्प और समाज की स्वीकार्यता की प्रतीक है

by दत्तात्रेय होसबाले, सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
Apr 10, 2025, 02:18 pm IST
in संघ
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संघ अपने कार्य के 100 वर्ष पूर्ण कर रहा है। ऐसे समय में आमजन में यह जानने की स्वाभाविक उत्सुकता है कि संघ इस अवसर को किस रूप में देखता है। स्थापना के समय से ही संघ के लिए यह बात स्पष्ट रही है कि ऐसे अवसर उत्सव के लिए नहीं होते, बल्कि ये हमें आत्मचिंतन करने तथा अपने उद्देश्य के प्रति पुनः समर्पित होने का अवसर प्रदान करते हैं। साथ ही यह अवसर इस पूरे आंदोलन को दिशा देने वाले मनीषियों और इस यात्रा में निःस्वार्थ भाव से जुड़ने वाले स्वयंसेवकों व उनके परिवारों के स्मरण का भी है।

दत्तात्रेय होसबाले
सरकार्यवाह, रा.स्व.संघ

100 वर्ष की इस यात्रा के अवलोकन और विश्व शांति व समृद्धि के साथ सामंजस्यपूर्ण और एकजुट भारत के भविष्य का संकल्प लेने के लिए संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की जयंती से बेहतर कोई अवसर नहीं हो सकता, जो वर्ष प्रतिपदा यानी हिंदू कैलेंडर का पहला दिन है। डॉ. हेडगेवार जन्म से ही देशभक्त थे। भारतभूमि के प्रति उनका अगाध प्रेम और शुद्ध समर्पण बचपन से ही उनके क्रियाकलापों में दिखाई देता था। कोलकाता में अपनी मेडिकल की शिक्षा पूरी करने तक वे भारत को ब्रिटिश दासता से मुक्त कराने के लिए हो रहे सभी प्रयासों यथा-सशस्त्र क्रांति से लेकर सत्याग्रह तक से परिचित हो चुके थे। संघ में डॉक्टर जी के नाम से पहचाने जाने वाले डॉ. हेडगेवार ने मातृभूमि को दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने वाले सभी प्रयासों का सम्मान किया और इनमें से किसी भी प्रयास को कमतर नहीं समझा।

उस दौर में सामाजिक सुधार या राजनीतिक स्वतंत्रता चर्चा के प्रमुख विषयों में से थे। ऐसे समय में भारतीय समाज के एक डॉक्टर के रूप में उन्होंने उन समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया, जिनकी वजह से हम विदेशी दासता की बेड़ियों में जकड़े गए। साथ ही उन्होंने इस समस्या का स्थायी समाधान देने का भी निर्णय किया। उन्होंने अनुभव किया कि दैनिक जीवन में देशभक्ति की भावना का अभाव, सामूहिक राष्ट्रीय चरित्र का ह्रास, जिसके परिणामस्वरूप संकीर्ण पहचान पैदा होती है तथा सामाजिक जीवन में अनुशासन की कमी, विदेशी आक्रमणकारियों के भारत में पैर जमाने के मूल कारण हैं। साथ ही उन्होंने इसका भी अनुभव किया कि विदेशी दासता में लोग अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भूल चुके हैं। इस कारण उनके मन में अपनी संस्कृति और ज्ञान परंपरा के संबंध में हीन भावना घर कर गई है।

उनका मानना था कि कुछ लोगों के नेतृत्व में केवल राजनीतिक आंदोलनों से हमारे प्राचीन राष्ट्र की मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं होगा। इसलिए उन्होंने लोगों को राष्ट्रहित में जीने के लिए प्रशिक्षित करने हेतु निरंतर प्रयास की एक पद्धति तैयार करने का निर्णय किया। राजनीतिक संघर्ष से आगे की इस दूरदर्शी सोच का परिणाम हमें शाखा आधारित संघ की अभिनव और अनूठी कार्यपद्धति के रूप में देखने को मिलता है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए, डॉ. हेडगेवार ने समाज के भीतर एक संगठन बनाने के बजाय पूरे समाज को संगठित करने के लिए इस कार्यपद्धति को विकसित किया। आज 100 वर्ष बाद भी हजारों युवा डॉक्टर हेडगेवार के बताए मार्ग पर चल रहे हैं और राष्ट्रहित में अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हैं।

समाज में संघ की स्वीकार्यता और अपेक्षाएं भी बढ़ रही हैं। यह सब डॉक्टर जी की दृष्टि व कार्यपद्धति की स्वीकार्यता का संकेत है। इस आंदोलन और दर्शन का नित्य नूतन विकास किसी चमत्कार से कम नहीं है। हिंदुत्व और राष्ट्र के विचार को समझाना आसान कार्य नहीं था, क्योंकि उस काल के अधिकांश अंग्रेजी शिक्षित बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा से प्रभावित थे। राष्ट्रवाद की यह यूरोपीय अवधारणा संकीर्णता और बहिष्करण पर आधारित थी। डॉ. हेडगेवार ने किसी वैचारिक सिद्धांत का प्रतिपादन करने के बजाय बीज रूप में एक कार्ययोजना दी, जो इस यात्रा में मार्गदर्शक शक्ति रही है। उनके जीवनकाल में ही संघ का कार्य भारत के सभी भागों में पहुंच गया था।

जब हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई, दुर्भाग्यवश उसी समय भारत माता का मजहब के आधार पर विभाजन हो गया। ऐसी कठिन परिस्थिति में संघ के स्वयंसेवकों ने नए बने पाकिस्तान में बंटवारे का दंश झेल रहे हिंदुओं को बचाने और उन्हें सम्मान और गरिमा के साथ पुनर्स्थापित करने के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया। (‘संगठन के लिए संगठन’ का यह मंत्र राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संगठनात्मक ऊर्जा संचारित करने का कारण बना।)

स्वयंसेवक की अवधारणा मूल रूप से समाज के प्रति जिम्मेदारी और कर्तव्य की भावना है, जो शिक्षा से लेकर श्रम और राजनीति जैसे क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दिखा रही है। सब कुछ राष्ट्रीय चिंतन के आधार पर पुनर्स्थापित किया जाना चाहिए। द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी (माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) इस चरण के दौरान मार्गदर्शक शक्ति थे। भारत एक प्राचीन सभ्यता है, जिसे अपनी आध्यात्मिक परम्पराओं के आधार पर मानवता के हित में अहम भूमिका निभानी है। यदि भारत को एकात्म एवं सार्वभौमिक सद्भावना पर आधारित यह महती भूमिका निभानी है तो भारतीयों को इस लक्ष्य के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। इस निमित्त श्रीगुरुजी ने एक मजबूत वैचारिक आधार प्रदान किया।

हिंदू समाज के सुधारवादी कदमों को तब नई गति मिली, जब भारत के सभी संप्रदायों ने घोषणा की कि किसी भी प्रकार के भेदभाव को धार्मिक मान्यता नहीं है। आपातकाल के दौरान जब संविधान पर क्रूर हमला किया गया था, तब शांतिपूर्ण तरीके से लोकतंत्र की बहाली के लिए संघर्ष में संघ के स्वयंसेवकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संघ ने शाखा की अवधारणा से आगे बढ़कर समाज की सज्जन-शक्ति का आह्वान करते हुए सेवा कार्य की दिशा में कदम बढ़ाया और गत 99 वर्ष के दौरान महत्वपूर्ण प्रगति की है।

श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति जैसे आंदोलनों ने भारत के सभी वर्गों और क्षेत्रों को सांस्कृतिक रूप से संगठित किया। राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर सीमा सुरक्षा, शासन में सहभागिता से लेकर ग्रामीण विकास तक, राष्ट्रीय जीवन का कोई भी पहलू संघ के स्वयंसेवकों से अछूता नहीं है। संतोष का विषय यह है कि समाज इस व्यवस्था परिवर्तन का हिस्सा बनने के लिए स्वयं आगे आ रहा है।

संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार

आजकल हर चीज को राजनीतिक चश्मे से देखने की प्रवृत्ति है, ऐसी स्थिति में भी संघ समाज के सांस्कृतिक जागरण और सम्यक् सोच वाले लोगों और संगठनों की एक मजबूत संरचना विकसित करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। सामाजिक परिवर्तन में महिलाओं की अग्रणी भूमिका और परिवार व्यवस्था को सुदृढ़ करना, पिछले कुछ वर्षों से संघ कार्य का केंद्र बिंदु रहा है। संघ द्वारा लोकमाता अहिल्यादेवी होल्कर की त्रिशताब्दी जयंती मनाने के आह्वान के बाद पूरे भारत में लगभग 10,000 कार्यक्रम आयोजित किए गए। इनमें 27,00,000 से अधिक लोगों ने भाग लिया। यह इस बात का प्रमाण है कि हम किस प्रकार सामूहिक रूप से अपने राष्ट्रीय प्रतीकों का उत्सव मना रहे हैं।

ऐसे समय में जब संघ अपनी यात्रा के 100वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है, संघ ने राष्ट्र निर्माण के लिए व्यक्ति निर्माण के कार्य को ग्राम एवं खंड स्तर पर ले जाने का निर्णय किया है। इस दिशा में पिछले एक वर्ष में व्यवस्थित योजना और क्रियान्वयन के साथ 10,000 शाखाओं की वृद्धि स्वयंसेवकों के संकल्प और समाज की स्वीकार्यता का प्रतीक है। प्रत्येक गांव और बस्ती तक पहुंचने का लक्ष्य अभी भी अधूरा है और यह आत्मनिरीक्षण का विषय है।

आगामी वर्षों में पंच परिवर्तन यानी पांच स्तरीय कार्यक्रम का आह्वान संघ कार्य का केंद्र बना रहेगा। शाखाओं का विस्तार करते हुए संघ ने नागरिक कर्तव्यों, पर्यावरण के अनुकूल जीवनशैली, सामाजिक समरसता, पारिवारिक मूल्यों और ‘स्व’ बोध पर ध्यान केंद्रित किया है, जिससे हर व्यक्ति मातृभूमि को परम वैभव के शिखऱ पर ले जाने में योगदान दे सके।

पिछले 100 वर्ष में संघ ने राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के आंदोलन के रूप में उपेक्षा और उपहास से जिज्ञासा और स्वीकार्यता की यात्रा पूर्ण की है। संघ किसी का विरोध करने में विश्वास नहीं रखता। हमें विश्वास है कि संघ कार्य का विरोध करने वाला व्यक्ति भी एक दिन राष्ट्र निर्माण के इस पुनीत कार्य में संघ के साथ सहभागी होगा।

ऐसे समय में जब विश्व जलवायु परिवर्तन से लेकर हिंसक संघर्ष जैसी चुनौतियों से जूझ रहा है, तब भारत का प्राचीन और अनुभवजन्य ज्ञान समाधान के रूप में नई दिशा प्रदान करने में सक्षम है। यह विशाल किंतु अपरिहार्य कार्य तभी संभव होगा, जब मां भारती की प्रत्येक संतान अपनी भूमिका को समझे तथा एक ऐसा राष्ट्रीय आदर्श निर्मित करने में योगदान दे, जो दूसरों को अनुकरण करने के लिए प्रेरित करे। आइए, हम सब मिलकर सज्जन शक्ति के नेतृत्व में संपूर्ण समाज को साथ लेकर विश्व के समक्ष एक सामंजस्यपूर्ण और संगठित भारत का आदर्श प्रस्तुत करने का संकल्प लें।

Topics: देशभक्ति की भावनासंघ शाखा की अवधारणासमाज की सज्जन-शक्ति का आह्वानरा.स्व.संघहिंदुत्व राष्ट्र के विचारराष्ट्र निर्माण‘व्यक्ति निर्माण’संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवारपाञ्चजन्य विशेषसंघ यात्रा के 100वें वर्षविश्व शांति व समृद्धिभारत माता का मजहब के आधार पर विभाजन
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