महावीर स्वामी की शिक्षाओं के तीन प्रमुख बिन्दु सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र हैं जो कर्म-बन्धन को विनष्ट कर पूर्णत्व प्रदान करते हैं। सम्यक् दर्शन के बिना सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक ज्ञान के बिना सम्यक् चरित्र प्राप्त नहीं होता। सम्यक् चरित्र के बिना कर्मों से मुक्ति प्राप्त नहीं होती और कर्म-मुक्ति के बिना निर्वाण-सिद्धपद की प्राप्ति संभव नहीं होती।
महावीर जी का मानना है कि धर्म सबसे श्रेष्ठ है। (कौन सा धर्म ?) अहिंसा, संयम और तप। जिस मनुष्य का मन इस धर्म में सदा लगा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। महावीर ने अपने अनुयायियों को केवल तप और संयम के पालन का ही उपदेश नहीं दिया बल्कि सावधानीपूर्वक इनके आध्यात्मिक विकास को भी उन्होंने दृष्टिगत रखा था।
अहिंसा – किसी भी जीवित प्राणी को नुकसान न पहुँचाना; सत्य – केवल हानिरहित सत्य बोलना; अस्तेय – जो कुछ भी ठीक से नहीं दिया गया है उसे न लें; ब्रह्मचर्य – (शुद्धता): कामुक आनंद न लेना; और अपरिग्रह : लोगों, स्थान और भौतिक चीजों से पूरी तरह से अलग होना।
आज के परिवेश में हम जिस प्रकार की समस्याओं और जटिल परिस्थितियों में घिरे हैं, उन सभी का समाधान महावीर के सिद्धांतों और दर्शन में समाहित है। महावीर स्वामी कहा करते थे कि जिस जन्म में कोई भी जीव जैसा कर्म करेगा, भविष्य में उसे वैसा ही फल मिलेगा। वह कर्मानुसार ही देव, मनुष्य व पशु-पक्षी की योनि में भ्रमण करेगा। कर्म स्वयं प्रेरित होकर आत्मा को नहीं लगते बल्कि आत्मा कर्मों को आकृष्ट करती है।
वह कहते हैं कि रुग्णजनों की सेवा-सुश्रुषा करने का कार्य प्रभु की परिचर्या से भी बढ़कर है। अपने जीवनकाल में उन्होंने ऐसे अनेक उपदेश दिए, जिन्हें अपने जीवन तथा आचरण में अपनाकर कर हम अपने मानव जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
महावीर स्वामी का मानना है कि जो मनुष्य स्वयं प्राणियों की हिंसा करता है या दूसरों से हिंसा करवाता है अथवा हिंसा करने वालों का समर्थन करता है, वह जगत में अपने लिए बैर बढ़ाता है। उन्होंने अहिंसा की तुलना संसार के सबसे महान व्रत से की है और कहा है कि संसार के सभी प्राणी बराबर हैं, अतः हिंसा को त्यागिए और ‘जीओ व जीने दो’ का सिद्धांत अपनाइए। वह कहते हैं कि संसार में प्रत्येक जीव अवध्य है, अतः आवश्यक बताकर की जाने वाली हिंसा भी हिंसा ही है और वह जीवन की कमजोरी है।
महावीर स्वामी के अनुसार किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही ज्ञानी होने का एकमात्र सार है और यही अहिंसा का विज्ञान है। जिस प्रकार अणु से छोटी कोई वस्तु नहीं और आकाश से बड़ा कोई पदार्थ नहीं, उसी प्रकार अहिंसा के समान संसार में कोई महान व्रत नहीं। महावीर स्वामी के शब्दों में कहें तो ज्ञानी होने का यही एक सार है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे और यही अहिंसा परम धर्म है।
भगवान् महावीर का मानना है कि प्रत्येक जीवित व्यक्ति के प्रति दया भाव रखो क्योंकि घृणा करने से स्वयं का विनाश होता है।
धर्म को लेकर महावीर स्वामी का मत है कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है और अहिंसा, तप व संयम उसके प्रमुख लक्षण हैं। जिन व्यक्तियों का मन सदैव धर्म में रहता है, उन्हें देव भी नमस्कार करते हैं। अपने उपदेशों में वह कहते हैं कि ब्राह्मण कुल में पैदा होने के बाद यदि कर्म श्रेष्ठ हैं तो वही व्यक्ति ब्राह्मण है किन्तु ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बाद भी यदि वह हिंसाजन्य कार्य करता है तो वह ब्राह्मण नहीं है जबकि नीच कुल में पैदा होने वाला व्यक्ति अगर सुआचरण, सुविचार एवं सुकृत्य करता है तो वह बाह्मण है।
महावीर स्वामी का मत है कि मानव और पशुओं के समान पेड़-पौधों, अग्नि, वायु में भी आत्मा वास करती है और पेड़-पौधों में भी मनुष्य के समान सुख-दुख अनुभव करने की शक्ति होती है।
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