नमन है भारत माता के उन सपूतों को, उन योद्धाओं को, देश के लिए मर मिटने वाले उन रणबांकुरों को, जिनके कारण हम स्वयं को हिन्दू कहने का अधिकार रखते हैं। यह उक्ति इतिहास के किसी भी चरण में सत्य स्थापित होती है। जब भी कोई हमारे वीर बलिदानियों के प्रति अनादर प्रकट करता है या उनके बारे में अनर्गल प्रलाप करता है तो हमारे रक्त में उबाल आना स्वाभाविक है। हालांकि हमारी मर्यादाएं हैं, हम संविधान से बंधे हैं, लेकिन संसद में खड़े होकर ऐसे सम्भाषण से समाज मर्माहत होता है। महाराणा सांगा जैसे वीर, पराक्रम और शौर्य तेज से परिपूर्ण महानायक को गद्दार कहने पर कोई भी भारतीय तीखी प्रतिक्रिया देगा।

निदेशक, प्रताप गौरव शोध केन्द्र, उदयपुर
राज्यसभा सांसद रामजीलाल सुमन का महाराणा सांगा को लेकर दिया गया बयान सिर्फ और सिर्फ राजनीति प्रेरित है। यदि ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो यह कोरा झूठ है। सस्ती लोकप्रियता पाने का एक प्रयास है।
महाराणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) राजनैतिक मोर्चे पर भी कुशल रणनीतिकार और राजपूत राजाओं और अफगानों को एकजुट कर मुगलों के खिलाफ लड़ने वाले भारत के सम्राट थे। बाबर को बुलाने के लिए उनके द्वारा कोई न्योता कभी नहीं भेजा गया। सिर्फ वामपंथी इतिहासकार ही ऐसा कहते आए हैं। इसके चलते ही इस तरह का झूठा विमर्श खड़ा हुआ, या यूं कहें कि झूठा विमर्श खड़ा किया गया, ताकि हिन्दू समाज को नीचा दिखाया जा सके। ऐतिहासिक तथ्यों की बात करें तो सिर्फ बाबर ही सांगा के दूत का उसके दरबार में आने का दावा करता है। ऐसा विषय सिर्फ तुजुक-ए-बाबरी में मिलता है। मुंशी देवी प्रसाद ने इस पुस्तक का फारसी से हिन्दी अनुवाद किया है। वहीं, राणा सांगा के पुरोहित अक्षयनाथ की पांडुलिपि में बताया गया है कि बाबर ने ही राणा सांगा से इब्राहिम लोदी के खिलाफ सहायता मांगी थी।
बहादुर योद्धा, बेहतरीन शासक
रघुकुलभूषण, यावद् आर्यकुल कमल दिवाकर महाराणा संग्राम सिंह प्रथम अर्थात् राणा सांगा सही मायनों में एक बहादुर योद्धा व शासक थे, जो अपनी वीरता और उदारता के लिए प्रसिद्ध हुए। उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध भारत का परचम बुलंद किया और उन्हें भारतीय सीमा में अपने जीते जी टिकने नहीं दिया। राणा सांगा ने दिल्ली, गुजरात, व मालवा क्षेत्र में मुगल आक्रान्ताओं को पराजित कर हिन्दू सुरत्राण की उपाधि धारण की। वे अपने समय में उत्तर भारत के सबसे शक्तिशाली राजा थे। उन्होंने आक्रांताओं के खिलाफ 100 से भी ज्यादा युद्ध लड़े। इसके चलते उनके शरीर पर 80 से अधिक युद्ध के घाव थे, उनका हाथ कट गया, एक आंख खराब हो गई, लेकिन वे आंक्राताओं के खिलाफ युद्ध करने से पीछे नहीं हटे। उन्होंने हर युद्ध में नेतृत्व का उदाहरण प्रस्तुत किया।
खिलजी को किया था कैद
महाराणा सांगा को अपनी विरासत में ही पराक्रम मिला, उन्हें महाराणा हम्मीर सिंह प्रथम की विरासत मिली जिसे ‘विषम घाटी पंचानन’ कहा गया। उन्होंने दिल्ली के सुल्तान महमूद खिलजी को 6 माह चित्तौड़गढ़ में कैद रखा था। इसके बारे में जानकारी सर जदुनाथ सरकार की पुस्तक भारत का सैन्य इतिहास में मिलती है। वह इस घटना का वर्णन करते हैं। उन्हें अपने पितामह कुम्भा का प्रबल पराक्रम मिला जिन्होंने अपने जीवन में कोई युद्ध नहीं हारा था। उन्होंने अपने पिता रायमल से स्थायित्व व कूटनीति सीखी जिसने उन्हें प्रबल राजनीतिज्ञ और दुर्जय योद्धा बना दिया। उन्होंने राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर गुजरात, और अमरकोट, सिंध, देरावर तक अपना साम्राज्य स्थापित किया था। दिल्ली के निकट बुराड़ी में मेवाड़ की सीमा का अंतिम गांव स्थापित किया था। उत्तर पूर्व में काला कांकर तक मेवाड़ का अधिकार था। उन्होंने बाड़ी के युद्ध में इब्राहिम लोदी का हराकर कैद कर लिया था, लेकिन चित्तौड़ छोड़ का दिल्ली को राजधानी नहीं बनाया। बाबरनामा में बाबर ने राणा सांगा के बारे में लिखा है, “हिंदुस्थान में राणा सांगा और दक्कन में कृष्णदेव राय से महान शासक कोई नहीं है।”
पराक्रमी राणा
राणा सांगा (महाराणा संग्राम सिंह प्रथम) का जन्म 12 अप्रैल, 1484 को चित्तौड़ में हुआ और निधन 30 जनवरी, 1528 को हुआ। वे मेवाड़ के गुहिलोत सिसोदिया राजवंश के सबसे प्रतापी शासकों में से एक थे और मेवाड़ के यशकीर्ति महाराणा प्रताप के पितामह थे। वे महाराणा कुम्भा के पौत्र और महाराणा रायमल के सबसे छोटे पुत्र थे। महाराणा संग्राम सिंह, महाराणा कुंभा के बाद मेवाड़ के इतिहास के दूसरे महापराक्रमी सम्राट हैं। उन्होंने अपनी शक्ति के बल पर मेवाड़ साम्राज्य का विस्तार किया और अपने शासन काल में उत्तर भारत की सबसे प्रभूत शक्ति बने। रायमल की मृत्यु के बाद 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के महाराणा बने। राणा सांगा ने मेवाड़ पर 1509 से 1528 तक शासन किया, जो उत्तर भारत का सबसे प्रतापी शासन था।
फरवरी 1527 ई. में खानवा केे युद्ध से पूर्व बयाना केे युद्ध में राणा सांगा ने मुगल आक्रान्ता बाबर की सेना को परास्त कर बयाना का किला जीता। उन्होंने खानवा की लड़ाई में हसन खां मेवाती को सेनापति नियुक्त किया था। बयाना युद्ध के पश्चात् 17 मार्च, 1527 ईस्वी को खानवा के युद्ध मैदान में राणा सांगा सिर में तीर लगने से घायल हो गए। ऐसी घायलावस्था में राणा सांगा को युद्ध के मैदान से बाहर निकाल कर सुरक्षित बसवा ( दौसा-राजस्थान ) लाया गया। इसके बाद स्वास्थ्य लाभकर सांगा ने पुनः सैन्य अभियान आरम्भ किया और बेतवा नदी के तट को जीतते हुए कालपी तक पहुंच गए, जहां सांगा को जहर खिला दिया गया और 30 जनवरी, 1528 को उनकी मृत्यु हो गई। राणा सांगा का विधि-विधान से अन्तिम संस्कार माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) में हुआ।
महाराणा का अर्थ
महाराणा एक राज संन्यासी होता है। वह अपने राज्यभिषेक से पूर्व स्वयं का पिण्डदान करता है और फिर मेवाड़ में नाथ सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ से दीक्षा ग्रहण करता है। इसके बाद राज्याभिषेक में उसे विष्णु स्वरूप दीक्षित किया जाता है। अतः उसका किसी से कोई निजी संबंध नहीं होता। वह प्रजा का पालक होकर वर्णहीन होता है। वह किसी समाज का प्रतिनिधि नहीं होकर सम्पूर्ण भारती का रक्षक होता है। इसी दर्शन से प्रेरित राणा सांगा ने अपने जीवन काल में मां भारती की रक्षा के लिए अपने चारों ओर फैले विधर्मी शासन से लोहा लिया। इसलिए उन्हें हिन्दू सुरत्राण, हिन्दूपत की उपाधियों से भी सम्मानित किया गया।
इतिहास से छेड़खानी
बाबर से एक युद्ध में हुई पराजय को मेवाड़ की पराजय और मुगलों की विजय बताना इतिहास के साथ छेड़खानी नहीं तो और क्या है? खानवा के युद्ध में विजयी होने के बाद बाबर ने आगे कोई क्षेत्र नहीं हथियाया, लेकिन राणा सांगा ने शक्ति संचय कर पुनः अपने क्षेत्रों को अपने अधिकार ले लिया था। उन्होंने अपने शौर्य से दूसरों को प्रेरित किया। उनके शासनकाल में मेवाड़ समृद्धि की सर्वोच्च ऊंचाई पर था। राणा सांगा ने एक आदर्श राजा की तरह अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की अदम्य साहसी राणा सांगा ने युद्ध में एक भुजा, एक आंख, एक पांव गंवाने के साथ अस्सी घाव प्राप्त किए थे, इसलिए उन्हें सैनिकों का भग्नावशेष भी कहा गया है। उन्होंने अपना महान पराक्रम कभी नहीं खोया, बल्कि सुलतान मोहम्मद शाह माण्डू को युद्ध में हराने व बन्दी बनाने के बाद उसके याचना करने पर उसका राज्य उदारता के साथ पुनः सौंप दिया।
बाबर भी अपनी आत्मकथा में लिखता है, “राणा सांगा अपनी वीरता और तलवार के बल पर अत्यधिक शक्तिशाली हो गए हैं। वास्तव में उनका राज्य चित्तौड़ में था। मांडू के सुल्तानों के राज्य के पतन के कारण उन्होंने बहुत-से स्थानों पर अधिकार जमा लिया। उनका मुल्क दस करोड़ रु. की आमदनी का था, उनकी केन्द्रीय सेना में एक लाख प्रशिक्षित सवार थे। उसकी शासन व्यवस्था और प्रबंधन को 9 मण्डलिक राजा और 104 उच्च प्रशासनिक अधिकारी सम्भालते थे।”
सांगा की विजय और प्रमुख युद्ध
गागरोण का युद्ध- गागरोण मेवाड़ के महाराणा के लिए महत्वपूर्ण स्थान था, क्योंकि सांगा के प्रपितामह महाराणा मोकल ने गागरोण के शासक अचलदास खींची से अपनी पुत्री लाला मेवाड़ी का विवाह किया था। अर्थात् गागरोण महाराणा सांगा की दादी बुआ की ससुराल थी। मालवा के खिलजी सुल्तानों ने अपनी विस्तारवादी नीति के तहत मेवाड़ के प्रमुख गढ़ गागरोण पर 1519 में आक्रमण किया।
दरअसल मालवा के सुल्तान नासिरुद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद उसके बेटों में उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष छिड़ गया। महमूद खिलजी द्वितीय अपने प्रमुख सेनापति मेदिनी राय चौहान की सहायता से विजयी हुआ। मेदिनी राय माण्डू दरबार में मेदिनी राय के प्रभाव को बढ़ता देख मुसलमान सरदारों ने नए सुल्तान को गुजरात के शासक मुजफ्फर शाह द्वितीय से अपील करवाई कि वह मेदनी राय की दखलअंदाजी शासन से समाप्त करे। मेदिनी राय के बेटे के कब्जे वाले मांडू में एक गुजराती सेना भेजी गई और उसे घेर लिया गया।
बदले में राजपूत प्रमुख ने मेवाड़ के राणा सांगा से सहायता की अपील की, उन्होंने अपनी सेना को मालवा में आगे बढ़ाया और सारंगपुर पहुंचे। उस क्षेत्र में प्रवेश करने के प्रतिशोध में महमूद ने मेवाड़ के खिलाफ अभियान छेड़ दिया और गागरोण पर आक्रमण कर दिया। सांगा चित्तौड़ से एक बड़ी सेना लेकर गागरोण की ओर बढ़े। मेवाड़ी घुड़सवार सेना ने गुजरात की सेना पर भयंकर आक्रमण किया और पूरी सेना को तितर-बितर कर दिया। मेवाड़ का मैदानी युद्ध में उस समय कोई सामना नहीं कर सकता था। इसके बाद में उन्होंने मालवा की सेना के साथ भी ऐसा ही किया, जिसके परिणामस्वरूप निर्णायक जीत हुई। महमूद घायल हो गया और राणा सांगा ने उसे बंदी बना लिया। वहीं गुजरात से आए आसफ खान का बेटा मारा गया, पर वह स्वयं भागने में सफल रहा।
इसके बाद राणा सांगा ने युद्ध को यहीं नहीं रोका और भीलसा, रायसेन, सारंगपुर, चंदेरी और रणथंभौर पर कब्जा कर लिया। महमूद को चित्तौड़ में 6 महीने तक बंदी बनाकर रखा गया, हालांकि कहा जाता है कि राणा ने राजधर्म निभाते हुए खुद उसके घावों की देखभाल की थी। उसके क्षमा मांगने पर उसे उसकी जमीन पर लौटने की अनुमति दी गई, हालांकि उसका एक बेटा मेवाड़ में बंधक के रूप में रहा। बाद में महमूद ने सांगा को तोहफे के तौर पर एक रत्न जड़ित बेल्ट और मुकुट भेजा। सांगा ने अपनी जीत के बाद चित्तौड़ का किला हरिदास केसरिया को भेंट किया, जिन्होंने इसे विनम्रता से अस्वीकार कर एक सामंत अधिकार बनना स्वीकार किया।
कणवा (खानवा) का युद्ध (1527)
16 मार्च, 1527 को कणवा (खानवा) नामक गांव में महाराणा सांगा और बाबर के मध्य युद्ध हुआ था। पानीपत की पहली लड़ाई के बाद बाबर का मानना था कि उसका प्राथमिक खतरा मेवाड़ के महाराणा सांगा हैं। वहीं पूर्व की ओर गंगा घाटी के अफगान भी उसे खतरा लगते थे, इसलिए उसने अपने बड़े बेटे हुमायूं को गंगा घाटी जीतने के लिए रवाना किया और स्वयं 20 हजार की सेना के साथ सांगा से लड़ने के लिए आगरा से चलकर विजयपुर सीकरी (बाद में फतहपुर सीकरी) आ पहुंचा। इसके साथ ही बाबर ने धौलपुर, ग्वालियर और बयाना को जीतने के लिए सैन्य टुकड़ी भेजी थी। धौलपुर और ग्वालियर के सूबेदारों ने अपना किला बाबर को सौंप दिया जबकि बयाना के अफगान किलेदार निजाम खान ने सांगा को बाबर के आक्रमण की सूचना दी। इस पर सांगा की सेना ने 21 फरवरी, 1527 को मुगल सेना को पराजित कर पुनः सीकरी की ओर जाने को मजबूर कर दिया।
इतिहासकार बिपिन चन्द्रा के अनुसार राणा सांगा बाबर को उखाड़ फेंकना चाहते थे, क्योंकि वह उसे भारत में एक विदेशी शासक मानते थे और दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर अपने क्षेत्र का विस्तार करना चाहते थे। राणा को कुछ अफगान सरदारों का भी समर्थन प्राप्त था, जिन्हें लगता था कि बाबर उनसे द्वेष रखता है और राणा सांगा की सरपस्ती से ही वह बचे रह सकते हैं।
युद्ध के बाद
प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि महाराणा संग्राम सिंह 16वीं सदी में भारत के महापराक्रमी सम्राट थे, जिन्हें तब हराने वाला कोई नहीं था। उन्होंने दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी को दो बार युद्ध में हराकर यह स्थापित कर दिया था कि उन्हें उत्तर भारत में चुनौती देने वाला कोई नहीं है। इसलिए किसी बाबर को वह भारत बुलाएं, यह तो उसके सम्मान के विरुद्ध था। बाबर की स्वयं की स्थिति यह थी कि उसे उसके चाचा मिर्जा अहमद और फूफा शैबानी खां ने फरगना और समरकंद छोड़ने पर मजबूर किया। वह सही मायने में निर्वासित फौज के साथ अफगानिस्तान में घूम रहा था, ऐसे में वह सांगा से मुकाबला करने की स्थिति में था ही नहीं। मेवाड़ की सेना न मुगलों की तोपों से पस्त हुई और न ही उनकी आग उगलती बंदूकों से। जो भी वामपंथी इतिहासकार इब्राहिम लोदी को भारत का सुल्तान बताते हैं, राणा सांगा पर सवाल उठाते हैं, वह अपनी विकृत मानसिकता के चलते ऐसा करते हैं। ये भारतीय इतिहास को विकृत करने के प्रयास हैं और लंबे समय से किए जा रहे हैं। राजस्थानी कवि शंकरदान सामोड़ ने लिखा है कि
पाणी रो कई पियावणो, आ रगत पिवणी रज,
शंके मन में शर्म घण, नहीं बरसे गज।।
अर्थात् राजस्थान की भूमि पर वर्षा इसलिए कम होती है, क्योंकि यहां की मिट्टी ने रक्त पिया है। बादल यह सोच कर शरमा जाते हैं कि जिस भूमि ने रक्त पीया हो, वहां पानी का क्या मूल्य है। मेवाड़ के वीरों ने राष्ट्र रक्षण के लिए रक्त का मूल्य पानी से भी कम कर दिया। ऐसे वीरों पर सवाल उठाने वालों पर लानत है।
खताैली का युद्ध
खताैली की लड़ाई 1517 में इब्राहिम लोदी और मेवाड़ राज्य के महाराणा राणा सांगा के बीच लड़ी गई थी। उसमें महाराणा सांगा विजयी हुए, परन्तु इब्राहीम लोदी किसी तरह भागने में सफल रहा। यह एक निर्णायक युद्ध था, जिसमें दिल्ली सल्तनत को भारी क्षति पहुंची।
1518 में सिकंदर लोदी की मृत्यु पर उसका पुत्र इब्राहिम लोदी दिल्ली सल्तनत में लोदी वंश का नया सुल्तान बना। उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती मेवाड़ के महाराणा सांगा थे, जिन्होंने उसके पिता के काल में ही दिल्ली को मालवा और ब्रज के क्षेत्रों से बाहर कर दिया था। ऐसे में इब्राहिम ने मेवाड़ पर चढ़ाई की। राणा सांगा भी अपनी सेना लेकर चित्तौड़ से निकले और दोनों सेनाएं वर्तमान बूंदी के लाखेरी कस्बे के निकट खताैली में आमने-सामने हो गईं।
इब्राहिम लोदी की सेना राजपूतों के हमले को झेल नहीं पाई और पांच घंटे तक चली लड़ाई के बाद सुल्तान और उसकी सेना के पांव उखड़ गए। एक लोदी राजकुमार को राणा सांगा ने गिरफ्तार कर लिया, जिसे एक समझौते के तहत रिहा किया गया। इस समझौते में राणा के हाथ आगरा से आगे दिल्ली के निकट के कुछ गांव लगे। इस युद्ध में राणा सांगा ने अपना बायां हाथ गंवा दिया और दायें पैर में तीर लगने से वे जीवन भर लंगड़ाकर चले। इस युद्ध ने दिल्ली सल्तनत के अधिकतम संसाधन समाप्त कर दिए और इब्राहिम धनहीन होकर नाममात्र का शासक रह गया। फिर भी उसे खताैली की विनाशकारी हार से उबरना था, तो उसने मेवाड़ पर हमला करने के लिए एक और बड़ी सेना तैयार की और धौलपुर के निकट बाड़ जा पहुंचा, लेकिन एक बार फिर राणा सांगा की सेना ने उसे बिना प्रतिरोध के हरा दिया। इस प्रकार 1517 ईस्वी तक राणा सांगा उत्तर भारत के सम्राट बन चुके थे।
लोदी के भाइयों ने बुलाया था बाबर को
अफगानी इतिहासकार अहमद यादगार की पुस्तक तारीख-ए-सल्तनत-ए-अफगान के अनुसार दिल्ली में सुल्तान इब्राहिम लोदी सत्तासीन था। उसका चाचा दौलत खां लोदी पंजाब का सूबेदार था। सुल्तान ने अपने चाचा को देहली बुलाया। इस पर चाचा दौलत खां लोदी खुद नहीं गया और अपने बेटे दिलावर खान को भेजा। दौलत खां की इस नाफरमानी से सुल्तान इब्राहिम लोदी चिढ़ गया और अपने चचेरे भाई दिलावर खां को उसे गिरफ्तार करने का आदेश दिया। दिलावर वहां से जान बचा कर भागा और लाहौर आकर अपने पिता को इसकी सूचना दी। दौलत खां जानता था कि सुल्तान उसे नहीं बख्शेगा। ऐसे में इब्राहिम लोदी को दिल्ली की गद्दी से उतार कर उस पर कब्जा करना ही एक रास्ता बचा था जो दौलत खां और उसके बेटे को बचा सकता था। दौलत खां लोदी ने तत्काल अपने बेटे दिलावर खान और आलम खान को बाबर से मुलाकात करने के लिए काबुल रवाना किया। उस समय बाबर काबुल में अपने बेटे कामरान के निकाह की तैयारी में व्यस्त था। दिलावर खां ने काबुल में पहुंच कर चारबाग में बाबर से मुलाकात की। बाबर ने उस से पूछा- तुमने सुल्तान इब्राहिम का नमक खाया है तो ये गद्दारी क्यों?
इस पर दिलावर खां ने जवाब दिया कि लोदियों के कुनबे ने चालीस साल तक दिल्ली की सत्ता संभाली है, लेकिन सुल्तान इब्राहिम लोदी सभी अमीरों के साथ बदसलूकी करता है। उसने पच्चीस अमीरों को मौत के घाट उतार दिया है। किसी को फांसी पर लटका कर तो किसी को जला कर मार डाला है। अब सभी मीर उसके दुश्मन बन गए हैं और उसकी खुद की जान खतरे में है। उसे अनेक अमीरों ने बाबर से मदद मांगने भेजा है। निकाह में व्यस्य बाबर ने एक रात की मोहलत मांगी और चारबाग में इबादत की-‘ए मौला, मुझे राह दे कि हिन्द पर हमला कर सकूं।’ अगर हिन्द में होने वाले आम और पान उसे तोहफे में मिलते हैं तो वह मान लेगा कि रब चाहता है कि वह हिन्द पर आक्रमण करे।
अगले दिन दौलत खां के दूतों ने शहद में डूबे अधपके आम उसे भेंट किए। ये देख बाबर उठ खड़ा हुआ और आम की टोकरी देख सजदे में झुक गया और अपने सिपहसालारों को हिन्द पर कूच करने का हुक्म दिया। इसके अलावा यह संदर्भ भी मिलता है कि दिलावर और आलम खां से मुलाकात के बाद बाबर ने महाराणा सांगा से इब्राहिम लोदी के खिलाफ मदद मांगी थी। इसके लिए उसने अपना दूत भी मेवाड़ राज दरबार में भेजा था, लेकिन सांगा ने उसकी मदद करने से बिल्कुल मना कर दिया।
इससे पूर्व बाबर ने 1504 और 1518 में पंजाब में छापा मारा था। 1519 में उसने पंजाब पर आक्रमण करने की कोशिश की, लेकिन वहां की जटिलताओं के कारण उसे वापस काबुल लौटना पड़ा। 1520-21 में बाबर ने फिर प्रयास किया, लेकिन विफल रहा और गंगा के मैदान के प्रवेश द्वारा सियालकोट (पूर्व नाम सांकल) से उसे लौटना पड़ा।
टिप्पणियाँ