ध्रांगध्रा, सुरेंद्रनगर (गुजरात) । राष्ट्रीय पत्रिका पाञ्चजन्य द्वारा श्री स्वामीनारायण संस्कारधाम गुरुकुल, ध्रांगध्रा, सुरेंद्रनगर में आज 6 अप्रैल 2025 को “भारतीय ज्ञान परंपरा का विस्तार एवं आधार: गुरुकुल” विषय पर एक दिवसीय गुरुकुल केंद्रित कार्यक्रम “गुरुकुलम” का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में महामंडलेश्वर पूज्य स्वामी परमात्मानंद सरस्वती जी, संस्थापक, आर्ष विद्या मंदिर, राजकोट एवं महासचिव, हिंदू धर्म आचार्य सभा ने वीडियो संदेश के माध्यम से आशीर्वचन दिया।
स्वामी परमात्मानंद सरस्वती जी ने अपने संबोधन में कहा, “सबसे पुराना ज्ञान का ग्रंथ भारत भूमि पर है। ज्ञान की भूमि विश्व भर में यूनाइटेड नेशंस ने भी स्वीकार किया है कि पृथ्वी पर सबसे पुराना ज्ञान का ग्रंथ हमारे वेद हैं। ‘वेद’ शब्द का अर्थ है ज्ञान। यह पूरी परंपरा है। भारत वह है जहां विद्वान रहते हैं। भारत में राजा से ज्यादा महत्व विद्वानों को दिया जाता है। उनका सर्वत्र पूजन होता है। ऋषियों का पूरा जीवन ज्ञान को समर्पित था। उन्होंने जो दर्शन किए, वह ज्ञान न केवल वेदों में, बल्कि अन्य वेदांगों और शास्त्रों में भी है। हमारी गुरुकुल परंपरा में पिता-पुत्र परंपरा और गुरु-शिष्य परंपरा से आज तक वह ज्ञान सुरक्षित हुआ है और उसका संवर्धन भी हुआ है। यहां तक कि हमारा जो कर्तव्य है – हिंदू गृहस्थी का और ब्रह्मचारी का – उसका जो वेद है, वह हमारे पिता से हमारे गुरुजी ने जो ज्ञान दिया है, वह हमें अपने शिष्य या पुत्र को देकर जाना है। यदि नहीं देंगे, तो यह अपराध है। व्यक्ति ब्रह्मराक्षस बनता है, ऐसा शास्त्र कहता है।”
उन्होंने आगे कहा, “हमें अपने जीवन के पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण और गुरु ऋण चुकाना ही होगा। अर्थात, हमें जो हेरिटेज मिला है, उसे स्वयं ग्रहण करना भी है और उसे आगे देना भी है। हजारों साल पहले लिखी हुई महाभारत, रामायण, भागवत, कितने आयुर्वेद के ग्रंथ, गंधर्ववेद के ग्रंथ इत्यादि सब वैसे ही सुरक्षित हैं। क्योंकि हर पीढ़ी में गुरु-शिष्य परंपरा की पीढ़ी और उससे पहले पिता-पुत्र परंपरा ने ज्ञान ग्रहण किया और आगे ज्ञान प्रदान किया। यह हमारी गुरुकुल परंपरा की विशेषता है। इतना ज्ञान का भंडार है कि कोई भी एक क्षेत्र में चाहे श्रीमद्भागवत हो, रामायण हो, व्याकरण हो, ज्योतिष शास्त्र हो, गंधर्व विद्या हो – इतने ग्रंथ हैं, इतनी व्याख्याएं हैं कि आप दो-तीन जिंदगियां पढ़ते रहें, फिर भी खत्म नहीं होता। इसलिए हमारा उत्तरदायित्व है कि हमारी जो भारतीय ज्ञान परंपरा है, उसे ग्रहण करके आगे पहुंचाएं।”
ज्ञान के विकास पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा, “कालांतर में ज्ञान के प्रति समर्पित लोगों द्वारा इतना शोध और चिंतन किया गया कि नई-नई चीजों का आविष्कार हुआ, नई-नई चीजों की घोषणाएं हुईं और उन्होंने समाज को ज्ञान दिया। लेकिन गुरुकुल परंपरा की एक विशेषता है कि आज भी नए ज्ञान का आविष्कार होता है और उसे आज की ज्ञान परंपरा में पढ़ाया जाता है। आज से 50 साल पहले सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग नहीं था, डेटा कम्युनिकेशन नहीं था, कंप्यूटर इंजीनियरिंग नहीं था। जैसे-जैसे आविष्कार हुआ, वैसे-वैसे विद्या विकास के क्रम में वह आई और बढ़ाई जा रही है। आज नए आविष्कार हुए – डेटा एनालिटिक्स है, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस है – यह सब पढ़ाया जा रहा है। हमारे ये सभी विद्याएं एक शब्द में कहें तो अर्थोपार्जन की विद्या हैं, अपनी आजीविका चलाने की विद्या हैं। हमारे गुरुकुल में वर्ण और आश्रम के मुताबिक उस समय जो शिष्य की पात्रता हो, उसे अनुकूल आजीविका के लिए अलग-अलग विद्याएं पढ़ाई जाती थीं।
जैसे हम देखते हैं कि द्रोणाचार्य के गुरुकुल में क्षत्रिय बालक थे, जिन्हें राज्य शासन करना था। उन्हें धनुर्विद्या का अभ्यासक्रम द्रोणाचार्य जी द्वारा पढ़ाया जाता था और उसमें पारंगत बनाया जाता था। यह सब उनके व्यवसाय के लिए था। जब बच्चा या विद्यार्थी पढ़कर गृहस्थ में प्रवेश करता है, तो आजीविका के लिए उसे जो करना पड़ेगा, उसके लिए उसे संपन्न बनाते थे। यह विद्या थी, जो आज भी हमारे यूनिवर्सिटी और कॉलेज में है, जिसे हम कहेंगे ‘विजडम ऑफ अर्निंग’ – अर्थोपार्जन की विद्या।”
उन्होंने गुरुकुल की दूसरी विशेषता पर जोर देते हुए कहा, “लेकिन हमारी परंपरा में गुरुकुल में दूसरी विद्या भी पढ़ाई जाती थी। वो क्या है? उसे कहते हैं ‘विजडम ऑफ लिविंग’। विद्यार्थी अवस्था पूर्ण होने पर जब वह बच्चा – ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी – गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है, तो वह समाज का अंग बनता है। समाज का कैसे अंग बनना चाहिए? अंग्रेजी में कहेंगे ‘कंट्रीब्यूटरी मेंबर ऑफ द सोसाइटी’। समाज में, राष्ट्र में, कुटुंब में सबको अपना योगदान – संसाधन, ज्ञान वगैरह – प्रदान करें, उसे शेयर करें। इसलिए जीवन की विद्या – जीवन कैसे जीना चाहिए, समाज में बांटना भी है और अपने पत्नी से, पति से, बच्चों से, कुटुंब से, सबसे जुड़ना है। दुनियादारी से जुड़ना है। तो उसके प्रति हमारी क्या दृष्टि होनी चाहिए? हमारा अभिगम कैसा होना चाहिए? संबंध कैसे होने चाहिए? इसे ‘विजडम ऑफ लिविंग’ कहते हैं। वह भी सिखाई जाती थी।”
चरित्र निर्माण पर बल देते हुए उन्होंने कहा, “जिसे हम अपने प्रचलित शब्दों में कहें, चरित्र निर्माण की प्रक्रिया गुरुओं द्वारा की जाती थी। अपने आचरण, अपनी जीवनी, अर्थात उपदेशों से शुद्ध चरित्र वाले गृहस्थी तैयार किए जाते थे। यह जब किया जाए, तब गुरुकुल, गुरुकुल बनता है। दूसरी क्षमता के साथ-साथ नए आविष्कार करना, नए अर्थोपार्जन करना, व्यवस्थापन करना – यह सब क्षमता के साथ-साथ जब तक चरित्र शुद्ध नहीं होगा, तब तक आविष्कार सब संहार के लिए होंगे। भारत में जो कुछ भी आविष्कार हुए, वे लोक कल्याण के लिए हुए, लोक सृजन के लिए हुए, लोगों की उत्क्रांति के लिए हुए, संहार के लिए नहीं हुए। तो लोक कल्याण का अभिगम खड़ा करने के लिए चरित्र शुद्धि आवश्यक है, चरित्र निर्माण आवश्यक है। यही भारतीय गुरुकुल है। या तो हम इसे इंडियन नॉलेज सिस्टम कहें। हम तो यहां तक कहेंगे कि भारत विश्व गुरु था, आज भी है। क्योंकि जितने चरित्र शुद्ध व्यक्ति, आदर्शवादी व्यक्ति, जीवन मूल्यनिष्ठ व्यक्ति, कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति आपको यहां मिलेंगे, उतने दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे। तो आज भी है और भविष्य में भी अगर हमें इस भारत के स्थान को आगे बढ़ाना है, तो सच्चरित्र युवक-युवतियां गुरुकुल द्वारा तैयार करनी पड़ेंगी। यही भारत को विश्व गुरु बनाएंगे। भारत विश्व गुरु बने, यही भगवान सोमेश्वर और जगत जननी जगदंबा के चरणों में प्रार्थना है। ऐसे भारत माता का सिर ऊंचा करने के लिए भारत माता ही हमें आशीर्वाद दें। यही प्रार्थना है। आप सबको आशीर्वाद एवं शुभकामनाएं।”
टिप्पणियाँ