सनातन के मूल में निहित है, जनजातीय नवरात्र परंपरा
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सनातन के मूल में निहित है जनजातीय नवरात्र परंपरा

जानें जबलपुर में जनजातीय और हिंदू संस्कृति के एकीकरण की कहानी। खेरमाई माता की शाश्वत पूजा से समझें सनातन धर्म और प्रकृति पूजन का अद्वैत भाव।

by डॉ. आनंद सिंह राणा
Apr 1, 2025, 09:15 am IST
in धर्म-संस्कृति
Sanatan Dharma Navratra

क्रमशः बड़ी खेरमाई, बूढी खेरमाई और मां माला देवी (जबलपुर)

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कौन जनजातियों को भड़काता है कि जनजातीय समाज में देवी की आराधना नहीं होती? क्या वामपंथी? क्या जय भीम- जय मीम? क्या ईसाई मिशनरीज? क्या तथाकथित सेक्यूलर? तो आओ मैदान में और इसका उत्तर दो! क्योंकि सनातन और हिंदुत्व के मूल में है जनजातीय नवरात्र परंपरा का अमरत्व।

भारत का हृदय स्थल संस्कारधानी है, जहाँ जनजाति संस्कृति की आत्मा बसती है। यही वह नगर है जहां आज भी जनजातीय समाज हिंदू संस्कृति के ऐक्य भाव को समाहित कर मां भगवती की उपासना करते हैं। पूजन पद्धति भले ही अलग हो लेकिन ऐसे कई मंदिर शहर और आसपास मौजूद हैं जहां सैकड़ों वर्षो से जनजाति अनवरत पूजन करने पहुंचते हैं। देखा जाए तो जनजातीय संस्कृति जबलपुर के लिए एक उपहार है। यहां सैकड़ों वर्षो से खेरमाई माता का पूजन हिंदू और जनजातीय मिलकर कर रहे हैं। जिसमें आज भी सनातन परंपरा का निर्वाह किया जाता है।

गोंड संस्कृति में खेरमाई माता का पूजन वर्षों से किया जा रहा है। इन्हीं मंदिरों में हिंदू नवरात्र पर्व पर विशेष आराधना करने पहुंचते हैं। खेरमाई माता मंदिर को पहले खेरो माता के नाम से जाना जाता था। जो ग्राम देवी के रूप में पूजी जाती हैं। बसाहट के अनुसार मंदिरों की स्थापना भी बढ़ती गई। जबलपुर में मां बड़ी खेरमाई मंदिर भानतलैया और मां बूढ़ी खेरमाई (खेरदाई) मंदिर चार खंबा में सैकड़ों वर्षो से जनजाति और हिंदू मिलकर पूजन कर रहे हैं। धीरे-धीरे उपनगरीय क्षेत्रों में भी खेरमाई माता की स्थापना की गई जिसे अब छोटी खेरमाई मंदिर के नाम से जाना जाता है।

जनजाति संस्कृति का केंद्र है जबलपुर

भारत के मानचित्र पर जबलपुर केंद्र बिंदु तो है ही इसे जनजाति संस्कृति का केंद्र भी माना जाता है। यही वह शहर है जहां आज भी जनजाति समाज हिंदू संस्कृति के मूल में होकर माँ दुर्गा की उपासना करते हैं। देखा जाए तो जनजातीय संस्कृति जबलपुर के लिए एक उपहार है। हिन्दू संस्कृति में जनजातीय समाज में बड़ा देव को मूल माना गया है, वही हिंदू संस्कृति में शिव के रूप में शिरोधार्य हैं। लेकिन दोनों सनातन धर्म का ही पालन कर रहे हैं।

यह स्पष्ट है कि जनजातीय और हिंदू संस्कृति किसी भी दृष्टिकोण से पृथक नहीं हैं। भारतीय संस्कृति में देवी पूजा को मुख्य माना गया है और वही जनजातीय संस्कृति में प्रकृति पूजन के रुप शिरोधार्य है। यही कारण है कि जनजातीय प्रकृति की उपासना करते हुए वन प्रदेशों में रहे और शेष नगरीय क्षेत्रों में निवास करते हैं। संस्कारधानी को देखा जाए तो वह अपने आप में एक संस्कृति है। जहां सभी धर्म के लोग रहते हैं और यहां हर धर्म के उत्सव देखने मिलते हैं। इसलिए आचार्य विनोबा भावे ने इसे संस्कारधानी का नाम दिया। यह एक शाश्वत नगरी है।

प्रकृति से जुड़ी है मूर्ति पूजा 

जनजातीय प्रकृति पूजन को प्रधानता देते हैं लेकिन प्रकृति के तत्वों से ही मिलकर मूर्ति की स्थापना कर पूजन शुरू हुआ। नगर के बड़े प्राचीन मंदिरों की बात करें तो यह कहीं न कहीं गोंड संस्कृति से जुड़ा रहा। यही कारण है कि जहां गोंड शासकों ने जहां शहर में कुआं, तालाब और बावड़ियों का निर्माण कर प्रकृति की उपासना की वहीं मंदिरों का भी जीर्णोद्धार कराकर संरक्षित किया।

गोंड राजा मदन शाह ने बनवाया था बड़ी खेरमाई मंदिर 

बड़ी खेरमाई मंदिर भानतलैया के बारे में प्रामाणिक तथ्य है सन् 1290 में कड़ा और मानिकपुर के तुर्क सूबेदार अलाउद्दीन खिलजी से एक बार गोंड राजा मदन शाह परास्त होकर यहां खेरमाई मां की शिला के पास बैठ गए। जहाँ उन्हें आध्यात्मिक अनुभूति हुई तदुपरांत पूजा के बाद उनमें अद्भुत शक्ति का संचार हुआ और राजा मदन शाह ने तुर्क सेना पर आक्रमण कर अलाउद्दीन खिलजी को परास्त कर खदेड़ दिया। 500 वर्ष पूर्व गोंड राजा संग्रामशाह ने मढ़िया की स्थापना कराई थी। शहर अब महानगर हो गया है लेकिन आज भी मां खेरमाई (खेरदाई) का ग्राम देवी के रूप में पूजन किया जाता है। सन् 1652 में पहला जवारा चल समारोह गोंड शासक हृदयशाह ने निकाला था और बाना धारण किया था। यह परंपरा 373 वर्षों अनवरत जारी है।

1500 साल से मां धूमावती की आराधना 

चार खंबा स्थित मां धूमावती मंदिर को बूढ़ी खेरमाई मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यहां लगभग 1500 साल से लोग आराधना कर रहे हैं। खास बात यह है कि यहां बाना चढ़ाने की विशेष परंपरा है। प्रार्थना पूरी होने पर भक्त विशेष रूप से बानों को मां के चरणों में बानों को अर्पण करते हैं। सबसे बड़े बाने को एक साथ 11 लोग पहनकर जवारा विसर्जन चल समारोह में निकलते हैं। माँ के लिए मनोकामना पूर्ण होने पर आस्था प्रदर्शित करने के लिए नुकीले बाना छेदने की प्रथा सन् 1480 से गोंडवाना के महा प्रतापी राजा संग्राम शाह ने प्रारंभ की थी और चल समारोह में स्वयं बाना धारण किया था, तब से 545 वर्ष हो गए यह परंपरा हर वर्ष विस्तृत रुप लेते जा रही है।

महालक्ष्मी के रुप में हैं मालादेवी 

गढ़ा ब्राह्मण मोहल्ला में मालादेवी की प्रतिमा 14 सौ साल से है। मालादेवी का पूजन 6वीं शताब्दी से हो रहा है। ये कल्चुरी हैहय चंदेल क्षत्रिय वंश की कुलदेवी हैं। माला देवी भगवती महालक्ष्मी के स्वरूप में हैं। गोंडवंश की महारानी वीरांगना दुर्गावती नियमित रूप से आराधना कर अपने वैभव का आशीर्वाद मांगती थीं। वर्तमान स्थल के सामने राजा शंकर शाह का महल था, राजा शंकर शाह सुबह सबसे पहले भगवती के दर्शन करते थे। पहले मढ़िया में केवल एक पत्थर और वहां बानों को ही लोग पूजते थे, परन्तु 10वी शताब्दी में पत्थर की मूर्ति मढ़ा दी गई थी। अभी भी वही मूर्ति पूजी जा रही हैं। माला देवी गढ़ा कटंगी के गोंड राजवंश की आराध्या थी अब जनसाधारण की पूज्य देवी हैं।

सनातन धर्म और संस्कृति शाश्वत है। दुनिया में विविध धर्म हैं, परन्तु शायद ही इनके अधिष्ठाताओं ने नारी को शक्ति के रुप अभिव्यक्त किया हो, वहीं दूसरी ओर जनजातीय अवधारणा- जय सेवा. जय बड़ा देव.जोहार.सेवा जोहार -का मूल-कोयापुनेम (मानव धर्म और प्रकृति की शाश्वतता)में निहित है,जो” वसुधैव कुटुम्बकम् “के रुप में भारतीय संस्कृति में शिरोधार्य है।

विश्व में भारत से ही जनजातीय समाज और संस्कृति का आरंभ हुआ। और उनके हमारे आदि देव फड़ापेन और भगवान् शिव एक ही हैं, अर्थात अद्वैत है। “शम्भू महादेव दूसरे शब्दों में शम्भू शेक(महादेव की 88 पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है – प्रथम..शंभू-मूला, द्वितीय-शंभू-गौरा और अंतिम शंभू-पार्वती) ही हैं” शंभू मादाव (अपभ्रंश – महादेव) ही हैं। संपूर्ण भारत वर्ष में नवरात्र का उत्सव विविध रुपों में शक्ति की उपासना का सर्वोच्च पर्व है।

नवरात्र पर्व में जनजातीय समाज की उपासना पद्धति हिन्दू संस्कृति के चित्रफलक में प्रकृति के विविध रंग भरती है। हमारा मूल एक ही है, इसलिए अपकारी शक्तियों द्वारा बाँटने का कुत्सित प्रयास कभी सफलीभूत नहीं होगी। पाश्चात्य विद्वानों और तथाकथित सेक्यूलरों द्वारा जनजातीय समाज में मूर्ति पूजा का निषेध बताना मूर्खता है क्योंकि मूर्तियां निर्गुण की उपासना का प्रतीक हैं।

गोंड समाज में खेरो माता, भील समाज में नवणी पूजा, कोरकू समाज में देव दशहरा, झारखंड में दसांय नृत्य से उपासना,म.प्र.के कट्ठीवाड़ा क्षेत्र में डूंगरी माता, गुजरात के जौनसार-बावर में अष्टमी पूजन, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में जइया पूजा, गुमला जिले में श्रीबड़ा दुर्गा मंदिर का पूजन प्रमाण हैं।

आदिशक्ति का सर्वव्यापीकरण विशेष कर महाकौशल, बुंदेलखंड और विंध्य में खेरमाई के रूप में हुआ है जो गोंडवाना में खेरदाई के रुप में शिरोधार्य है और जबलपुर के मंदिरों और अन्यत्र अधिष्ठानों में स्थापित खेरदाई की प्रतिमाएं नवरात्र पर्व में मां भगवती के विविध स्वरूपों में पूजनीय हैं। खेरमाई (खेरदाई) अपकारी शक्तियों से हमारी धरती के साथ सभी प्राणियों और वनस्पतियोंकी रक्षा करती हैं।भारत में नवरात्र पर्व का यह अद्वैत भाव अद्भुत एवं अद्वितीय होने के साथ मार्गदर्शी भी है।

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