डॉ. हेडगेवार स्मारक: एक ऐतिहासिक धरोहर
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“डॉ. हेडगेवार स्मारक समिति परिसर: एक ऐतिहासिक और पावन स्थल की गाथा”

डॉक्टर हेडगेवार स्मारक समिति का यह जो परिसर है, यह अभी अपनी 7 एकड़ की जमीन है, जिसमें से 2.2 एकड़ की जमीन परमपूजनीय डॉक्टर जी (पूरम पूजनीय आद्य सरसंघचालक) ने 1933 में खरीदी थी।

by WEB DESK
Mar 31, 2025, 02:26 pm IST
in भारत
आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार जी

आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार जी

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डॉक्टर हेडगेवार स्मारक समिति का यह जो परिसर है, यह अभी अपनी 7 एकड़ की जमीन है, जिसमें से 2.2 एकड़ की जमीन परमपूजनीय डॉक्टर जी (पूरम पूजनीय आद्य सरसंघचालक) ने 1933 में खरीदी थी। 1925 में संघ की स्थापना के पश्चात 1928 से यहां कैंप लगना प्रारंभ हुआ था। जिनकी जमीन थी, उन्हीं के पास से उन्होंने 2.2 एकड़ की जमीन खरीदी थी। इसके बाद 1957 में यह ट्रस्ट रजिस्टर होने के पश्चात इस ट्रस्ट के द्वारा कुछ जमीन खरीदी गई और कुछ जमीन लीज की जमीन है। कुल मिलाकर यह 7 एकड़ की भूमि है।

यहां की जो निवास रचना है, वह निवास रचना सभी बड़े डॉर्मेटरी हॉल्स हैं। एक हॉल में 25 स्वयंसेवक रहेंगे, ऐसी यह एक हॉल की रचना है। हमारा जब कैंप लगता है, उस कैंप के लिए जब उस कैंप में सबसे छोटी इकाई होती है गण, एक गण में 22 स्वयंसेवक और 2 शिक्षक ऐसे होते थे, ऐसे 24 लोगों के लिए 25 दिन के लिए एक कमरे में व्यवस्था की जाती है। जैसे मिलिट्री में बैरक होते हैं और एक बैरक में एक प्लाटून रहती है, वैसे ही एक कमरे में एक गण रहेगा 25 दिन तक। कुल मिलाकर 1300 लोग यहां रह सकेंगे, ऐसी व्यवस्था अपने पास है। जब 1300 लोग रहते हैं, तब उनके लिए एक बड़े हॉल की, लेक्चर हॉल की भी आवश्यकता है। 15,000 स्क्वायर फीट का एक लेक्चर हॉल है, जहांपर 2000 लोग बैठ सकते हैं और अगर हम कुर्सियां लगाएंगे, तो 1400 कुर्सियां यहां लगती हैं। उसके नीचे उतना ही बड़ा भोजन कक्ष है, जहां एक साथ बैठकर 1200 लोग भोजन करते हैं।

ऐसा परिसर होने के कारण संघ के अलावा भी अनेक सामाजिक संगठन इस परिसर का उपयोग अपने कार्यक्रम के लिए करते हैं। हमारे यहां चेस प्रतियोगिता, योगशिबिर, प्रवचन और अन्यान्य संगठनों के संगठात्मक बैठकें चलती रहती हैं। साल भर के 52 सप्ताह में से लगभग 40-42 सप्ताह में अंत में यहां कार्यक्रम चलते रहते हैं।

इसी जगह पर परमपूजनीय डॉक्टर जी और उसके पश्चात परमपूजनीय गुरु जी का अंतिम संस्कार किया गया। वह जो स्थान है, वह स्थान अभी हम देखेंगे। यहां की जो भवन रचना है, वह भवन रचना सबसे पहले स्मृति मंदिर का निर्माण हुआ 1962 में। तदपश्चात स्मृति भवन के स्थान पर एक मंजिला इमारत 1965 में खड़ी हुई। बाद में 1978 में पांडुरंग भवन का निर्माण पूर्ण हुआ, माधव भवन का निर्माण 1983 में, यादव भवन का निर्माण 1996 में, यादव भवन का एक्सटेंशन 2002 में। 2009 से 2011 तक मधुकर भवन, स्मृति मंदिर का पूर्ण निर्माण, महर्षि व्यास सभागृह और पांडुरंग भवन का पूर्ण निर्माण किया गया। 2018-19 में स्मृति भवन का भी पूर्ण निर्माण किया गया है।

यह स्मृति मंदिर का परिसर है, इसी स्थान पर परमपूजनीय डॉक्टर जी का अंतिम संस्कार किया गया। 1940 में उनका देहांत होने के पश्चात इसी जगह पर अंतिम संस्कार हुआ है। 1940 के पश्चात इसी स्थान पर एक छोटा सा चबूतरा और उसके ऊपर एक तुलसी वृंदावन था। 1948 के पश्चात यह खुला जो था, उसमें एक लकड़ी का कंपाउंड किया गया, एक लकड़ी का मंडप खड़ा किया गया और उसके ऊपर बेलें छोड़ दी थीं। ऐसा यह स्थान 1960 तक था। 1957 में संघ ने एक निर्णय लिया कि यहां पर कुछ निर्माण करना है और इसलिए 1957 में डॉक्टर हेडगेवार स्मारक समिति यह रजिस्टर हुई। यह वह जो 2.2 एकड़ की जमीन थी, वह इस ट्रस्ट को दी गई। तत पश्चात ट्रस्ट ने कुछ जमीन खरीदी। नवंबर 1960 में इस स्मृति मंदिर का कार्य प्रारंभ हुआ। जनवरी 1962 में इसका काम पूर्ण हुआ। अप्रैल 1962 में इसका लोकार्पण हुआ। यह स्थान इस परिसर का पहला स्थान है। 1962 में इस स्मृति मंदिर के अलावा और कुछ भी नहीं था।

जैसा पहले बताया है, 1965 में स्मृति भवन की जगह, जहां अभी का स्मृति भवन है, वहां एक एक-मंजिला इमारत 1965 में तैयार हुई। यह जो पूजनीय डॉक्टर जी की मूर्ति है, यह ब्रॉन्ज मेटल से बनी हुई है। मुंबई के एक शिल्पकार नाना साहेब गोरेगांवकर ने यह मूर्ति बनाई है। 1962 से ही इसको यह ब्लैक मेटालिक पेंट दिया गया है। यह ब्लैक मेटालिक पेंट इसलिए दिया गया है कि यह ब्रॉन्ज मेटल ऑक्सिडाइज़ होने के कारण काला हो जाता है। यह सफाई करने के लिए कोई व्यक्ति रखना पड़ता है और हर रोज सफाई नहीं हुई, तो यह धीरे-धीरे मूर्ति काली हो जाती है। और इसलिए उन्होंने 1962 में जब मूर्ति बनाई, तब से ही इसको यह ब्लैक मेटालिक पेंट दिया है।

यह जब मंदिर बन रहा था, तो उसके आर्किटेक्ट थे बाला साहेब दीक्षित, जो अपने पुणे के कार्यकर्ता थे। उन्होंने पूजनीय गुरुजी को कहा कि मैं तो आर्किटेक्ट हूं, लेकिन घर का डिज़ाइन बनाता हूं। और इसलिए पूजनीय गुरुजी ने तीन बातें उनको कही थीं।

पहली बात, यह मंदिर हो, लेकिन वह रथ जैसा दिखना चाहिए। और इसलिए इसके आगे का प्रक्षेत्र यह खुला है, क्योंकि रथ में जो सारथी रहता है, वह खुले में रहता है। रथ में जो बैठता है, उसके ऊपर वह छत्र-चामर रहता है। यहां रेलिंग नहीं है, उसका कारण भी यही है कि रथ में रेलिंग नहीं रहती है।

और इसके नीचे ही छह एलिवेटेड स्ट्रक्चर से, जो छह घोड़ों का प्रतीक है।

दूसरी बात, उन्होंने कही कि यहां जितनी कमानें होंगी, आर्चेस होंगी, यह तीन धनुष के संच हैं। और धनुष कैसा है, कि धनुष की प्रत्यंचा जब हम खींचते हैं, तो बाण का बाणाग्र वह धनुष को लगता है। और ऐसा खींचा हुआ, यह धनुष याने हर कार्य के लिए छूटने पर वह बाण अपने गंतव्य की ओर चले जाएगा।

तीसरी बात, जब ये तीनों नीचे आते हैं, तो उसके नीचे शेषनाग की प्रतिकृति बनाई है।

ऐसा यह स्थान 1962 में पूर्ण हुआ। ऐसा यह स्थान 1962 में पूर्ण हुआ। यह बनाते समय, उस समय सत्रह प्रांत थे। ऐसे सत्रह प्रांतों में सबकी इच्छा थी कि हमारे यहाँ का पत्थर यहाँ लगाया जाए, किन्तु यह संभव नहीं था। इसलिए सत्रह प्रांतों से सत्रह छोटी टाइल्स लेकर यह स्वस्तिक बनाया गया।

ऐसा यह स्थान 1962 में पूर्ण हुआ। इस जगह पर परमपूजनीय गुरुजी का अंतिम संस्कार हुआ। 5 जून 1973 को पूजनीय गुरुजी का देहावसान हुआ। 6 जून 1973 को इस जगह पर उनका अंतिम संस्कार हुआ।

परमपूजनीय गुरुजी सबसे ज़्यादा समय तक, यानी 33 साल तक संघ के सरसंघचालक रहे हैं। संघ में जो पद्धति है कि सरसंघचालक अगले सरसंघचालक जी की नियुक्ति करते हैं, उसी में पूजनीय गुरुजी ने अपने अंतिम समय में तीन पत्र लिखे थे। अंतिम यात्रा प्रारंभ होने के पहले उन पत्रों का वाचन किया गया।

सबसे पहला पत्र उस समय महाराष्ट्र प्रांत के माननीय प्रांत संघचालक श्री बाबाराव जी भिड़े ने पढ़ा था। उसमें अगले सरसंघचालक जी के नाम का विवरण था। उसमें पूजनीय गुरुजी ने लिखा था कि मधुकर दत्तात्रेय उपाख्य बाला साहब देवरस अगले सरसंघचालक होंगे। उसमें पूजनीय गुरुजी ने बाला साहब जी के बारे में अपने कुछ विचार व्यक्त किए थे। दूसरा पत्र समाज के प्रबुद्ध लोग और साधु-संतों के लिए था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि “मैं 33 साल तक सरसंघचालक रहा हूँ, अनेक लोगों से मिला हूँ, मेरी वाणी या व्यवहार से अगर किसी को दुःख पहुँचा हो, तो कृपया मुझे क्षमा कर दीजिए, किन्तु संघ के प्रति प्रेम कायम रखिए।”

तत्पश्चात, हर एक प्रांत में ऐसे लोगों की एक सूची तैयार की गई और उन तक इस पत्र की प्रति पहुँचाई गई थी।

तीसरा पत्र स्वयंसेवकों के लिए था, जिसमें उन्होंने तीन प्रमुख बातें लिखी थीं-

पहली बातः “मैंने मेरा श्राद्ध कर लिया है। हम जीते-जी अपना पिंडदान कर सकते हैं।”

दूसराः “मेरी मृत्यु के पश्चात मेरा कोई स्मारक खड़ा नहीं किया जाए।” इसलिए यह स्थान खुले में है।

तीसरी बातः उन्होंने स्वयंसेवकों से विनती की थी कि “जैसा आपने मुझे सहयोग दिया है, वैसा ही बाला साहब जी को दीजिए।”

पत्र के अंत में, संत तुकाराम महाराज जी ने अपने अंतिम समय में संतों से विनती करते हुए जो अभंग लिखा था, वही अभंग उन्होंने अपने पत्र के अंत में लिखा-
मराठी अभंगः

“सेवटची विनवणी, संत जनी परिसावी, विसरतो न पडावा, माझा देवा तुम्हांसी।

आता फार बोलो काय, अवगे पाय विदित, तुका म्हणे पडतो पाया, करा छाया कृपेची।”

हिंदी भावानुवादः

“अंतिम यह प्रार्थना, संत जन सुने सभी,

विस्मरण न हो मेरा, आपको प्रभु कभी। अधिक और क्या कहूँ, विदित सभी श्रीचरणों को,
तुका कहे पड़ें पाँवों में, करें कृपा की छाँव को।”

उस समय आने-जाने के उतने साधन उपलब्ध नहीं थे, और इसलिए बहुत से लोग यहाँ पहुँच नहीं पाए थे। इसलिए एक महीने के पश्चात, नागपुर में एक अखिल भारतीय बैठक हुई, जिसमें इन पत्रों की चर्चा हुई।

उस समय परमपूजनीय बाला साहब जी ने दो बातों का ज़िक्र किया और कहा-

“मेरे सहित किसी भी सरसंघचालक जी का अंतिम संस्कार इस स्थान पर नहीं होगा। इस स्थान को सरसंघचालक जी का दाहगृह या राजघाट जैसा स्वरूप नहीं देना है। उनका अंतिम संस्कार वहीं होगा, जहाँ सामान्य लोगों का होता है। “इसलिए उसके पश्चात पूजनीय बाला साहब जी, पूजनीय रज्जु भैया जी और पूजनीय सुदर्शन जी का अंतिम संस्कार श्मशान में हुआ।

पूजनीय रज्जु भैया जी ने तो अपने पत्र में यह लिखा था कि “जिस शहर या गाँव में मेरा देहावसान होगा, उसी गाँव में मेरा अंतिम संस्कार होगा। “उनका देह शांत हुआ पुणे में, इसलिए पुणे में ही पूजनीय रज्जु भैया जी का अंतिम संस्कार हुआ था।

दूसरी बातः पूजनीय बाला साहब जी ने कहा कि “संघ के किसी भी कार्यक्रम में केवल दो ही फोटो रहेंगे-

एक पूजनीय डॉक्टर जी का,

दूसरा पूजनीय गुरुजी का।”

इसलिए संघ कार्यालयों में यही दो फोटो दर्शनीय स्थान पर रहते हैं। तीसरा फोटो रहता है भारत माता का। संघ के किसी भी कार्यालय में इन्हीं तीन तस्वीरों को दर्शन के लिए रखा जाता है।

कार्यकर्ताओं के घरों में भी यही तीन तस्वीरें रहती हैं। अन्य सरसंघचालकों की तस्वीरें अन्य कमरों में लगाई जाती हैं. फिर भी यहाँ एक प्रश्न था कि इस स्थान पर क्या किया जाए?

पूजनीय गुरुजी का जीवन यज्ञरूपी ऋषितुल्य जीवन था। इसलिए जब भी उनके जीवन का चित्र प्रस्तुत किया जाता है, तो यज्ञ में आहुति देते समय का दृश्य ध्यान में रखा जाता है। इसलिए यह यज्ञवेदी की रचना हुई है।

शाम के समय में यह जो पीली यज्ञवेदी का एक स्वरूप है, यहाँ पर यह जो पीला है, वह नीचे रखा जाता है, और नीचे से ब्लोअर के माध्यम से एक कपड़ा ऊपर आता है, जिसे ज्योति का आकार दिया जाता है। लाइटिंग इफेक्ट से यहाँ पर यज्ञवेदी में ज्योति जलती हुई प्रतीत होती है। यह परिसर सभी स्वयंसेवकों के लिए एक पावन भूमि के रूप में है। इस नाते स्वयंसेवक यहाँ पर आते हैं और अपने श्रद्धा सुमन अर्पण करते हैं।

Topics: Dr Hedgewar Smarak Samitimemorial to founder of RSS in NagpurRSSनागपुरडॉ. हेडगेवार स्मारक समितिस्मृति मंदिरआरएसएस के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार
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