वसंत का वैभव नव किसलयों का प्रस्फुटन, नवचैतन्य, नवोत्थान और नवजीवन का प्रारंभ लेकर आता है। इस ऋतु में मधुमास के रूप में प्रकृति नवीन श्रृंगार करती है। चैत्र प्रतिपदा में ही वासंतिक नवरात्र का प्रारंभ होता है, जहां समाज के लोग शक्ति की भक्ति में लीन होते है। सतयुग में इसी दिन ब्रम्हा जी ने सृष्टि की रचना की थी। त्रेतायुग में भगवान श्री राम ने राक्षसी आतंक का विनाश करके, अधर्म पर धर्म की विजय प्राप्त कर राम राज्य की स्थापना की थी। द्वापरयुग में, महाभारत के धर्मयुद्ध में धर्म की विजय हुई और राजसूय यज्ञ के साथ युधिष्ठिर संवत् प्रारंभ हुआ।
कलयुग में विक्रमी संवत का प्रारंभ सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्न में वराहमिहिर (खगोल वैज्ञानिक) द्वारा शुरू की गई जो अंग्रेजी कैलेण्डर के 57 वर्ष पहले आरंभ होता है और सनातन धर्म की सभी शाखाओ के पर्व एवं त्यौहार भी इसी के आधार पर मनाये जाते हैं। उदाहरण के लिए यदि अंग्रेजी कैलेण्डर का वर्ष 2025 चल रहा है तो विक्रमी संवत का वर्ष 2082 होगा।
विश्व के अधिकांश देश लंबे समय से पश्चिमी ईसाई देशों के उपनिवेश रहे, जिसके कारण आज ईस्वी कैलेण्डर अधिकांश देशों में राष्ट्रीय रूप से मान्य है लेकिन स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय पंचांग के रूप में जिसे चुना गया वह विक्रमी संवत नहीं बल्कि शक संवत् चुना गया। यह विक्रमी संवत से 135 वर्ष बाद और अंग्रेजी कैलेण्डर से 78 वर्ष बाद आरंभ होता है। भारतीय संस्कृति से अधिक जुड़ाव के बाद भी विक्रमी संवत क्यों राष्ट्रीय पंचांग नहीं बना? इस लेख के माध्यम से हम जानेंगे।
प्रथमत: विक्रमी संवत- चंद्र और सौर गणनाओं पर आधारित है। इसका प्रारंभ उज्जैन के चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य के राजतिलक की तिथि से होता है। विक्रमी संवत की रचना उस काल के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री वराहमिहिर ने की थी। वे राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। विक्रमी संवत में वर्ष सूर्य पर आधारित और महीने चंद्रमा की गति पर निर्भर होते हैं। धरती द्वारा सूर्य का एक पूरा चक्कर लगाने पर 1 वर्ष होता है, जो कि 365 दिन से कुछ अधिक होता है। प्राचीन ग्रंथ सूर्यसिद्धांत (महावीर प्रसाद श्रीवास्तव, विज्ञान भाष्यकार) के अनुसार पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाने में 365 दिन 15 घटी 31 विपल तथा 24 प्रतिविपल लगाती है। आधुनिक विज्ञान यह बात कुछ वर्ष पहले ही गणना कर पाया है।
इससे पहले यूरोप में एक वर्ष 360 दिन का हुआ करता था। विक्रमी संवत में माह 30 या 31 दिन का नहीं बल्कि 28, 29 या 30 दिन का होता है। हर तीसरे वर्ष पर एक अतिरिक्त मास होता है जिसे अधिमास या मलमास कहते हैं ताकि इसे सूर्य वर्ष से मिलाया जा सके। इसके कारण माह और ऋतुओं का तालमेल सबसे सटीक रूप से बैठता है। यही कारण है कि सभी भारतीय मत और संप्रदाय अपने त्योहार और शुभ मुहूर्त विक्रमी संवत से ही निकालते हैं। इसमें चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पहली तिथि अर्थात् प्रतिपदा को नए वर्ष का आरंभ माना जाता है। हालांकि इसे लेकर देश के अलग-अलग क्षेत्र में विविधताएं देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए गुजरात में इसे कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ माना जाता है।
दूसरी ओर सरकारी रूप से शक संवत स्वीकार किया गया है, इसमें भी माह के नाम और क्रम वही हैं जो विक्रमी संवत में हैं- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, पौष, मार्गशीर्ष, माघ और फाल्गुन। दोनों ही संवत में चंद्रमा की स्थिति के आधार पर कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष होते हैं किंतु शक संवत में स्थितियां अंग्रेजी कैलेण्डर की तरह मध्य रात्रि से शुरू होकर अगले दिन मध्य रात्रि तक होती है। प्रत्येक माह निश्चित 30 दिन का होता है, इसका नव वर्ष 22 मार्च से आरंभ होता है।
स्वतंत्र भारत की सरकार ने राष्ट्रीय पंचांग सुनिश्चित करने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. मेघनाथ साहा की अध्यक्षता में “कैलेण्डर रिफार्म कमेटी” का गठन किया था। 1952 में “साइंस एंड कल्चर” पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया कि ईस्वी सन् का मौलिक संबंध ईसाई पंथ से नहीं है, बल्कि यह तो यूरोप के अर्ध-सभ्य कबीलों में ईसा मसीह के बहुत पहले से ही प्रचलित था। प्रारंभिक रूप में इसके एक वर्ष में केवल 10 माह और 304 दिन होते थे। पुरानी रोमन सभ्यता को भी तब तक यह ज्ञात नहीं था कि सौर वर्ष और चंद्रमास की अवधि क्या थी। यही दस महीने का वर्ष तब तक चलता रहा जब तक उनके नेता, सेनापति जूलियस सीजर ने इसमें संशोधन नहीं किया।
ईसा के 530 वर्ष बीत जाने के बाद, ईसाई बिशप ने कई कल्पनाओं के आधार पर 25 दिसंबर को ईसा का जन्म दिवस घोषित किया। इसके बाद, 1572 में तेरहवें पोप ग्रेगरी महाशय ने कैलेण्डर को दस दिन आगे बढ़ाकर 5 अक्टूबर शुक्रवार को 15 अक्टूबर शुक्रवार के रूप में माना। ब्रिटेन ने इसे लगभग दो सौ वर्षों बाद, 1775 में स्वीकार किया और इसमें 11 दिन की कमी कर 3 सितंबर को 14 सितंबर बना दिया। यूरोपीय कैलेण्डर में 28, 29, 30 और 31 दिनों के महीने होते हैं, जो न तो किसी खगोलीय गणना पर आधारित हैं और न ही किसी प्राकृतिक चक्र पर। कैलेण्डर रिफार्म कमेटी ने विक्रमी संवत को राष्ट्रीय संवत बनाने की सिफारिश की क्योंकि वास्तव में विक्रमी संवत ईसा संवत से 57 वर्ष पुराना था। अंग्रेजी मानसिकता के नेतृत्व को यह स्वीकार्य नहीं था और इसी कारण इसे अपनाया नहीं गया। वास्तव में अंग्रेजी कैलेण्डर जैसा दिखने और सेकुलर बनने के दबाव में शक संवत अपना लिया गया। मुसलमानों और ईसाइयों से पहले शकों ने भी भारत पर हमला किया था, हालांकि वह भारतीय संस्कृति एवं रीति में समाहित हो गये।
चिन्ड्रन्स ब्रिटानिका vo 1.3-1964 में कैलेण्डर का इतिहास बताया है – अंग्रेजी केलेण्डरों में अनेक बार गड़बड़ियाँ हुईं हैं व इनमें कई संशोधन करने पड़े हैं। इनमें माह की गणना चन्द्र की गति पर और वर्ष की गणना सूर्य की गति पर आधारित है। आज इसमें भी आपसी तालमेल नहीं है।
ईसाईमत में ईसामसीह का जन्म इतिहास की निर्णायक घटना है। अतः कालक्रम को B.C. (Before Christ) और A.D. (Anno Domini) में बांटा गया। किन्तु यह पद्धति ईसा के जन्म के कुछ सदियों तक प्रचलन में नहीं आई। रोमन कैलेण्डर- आज के ईस्वी सन् का मूल रोमन संवत् है। यह ईसा के जन्म के 753 वर्ष पूर्व रोम नगर की स्थापना से प्रारंभ हुआ। तब इसमें 10 माह थे (प्रथम माह मार्च से अंतिम माह दिसम्बर तक)। एक वर्ष होता था 304 दिन का। बाद में राजा नूमा पिम्पोलियस ने दो माह (जनवरी, फरवरी) जोड़ दिये। तब से वर्ष 12 माह अर्थात 344 दिन का हो गया। यह ग्रहों की गति से मेल नहीं खाता था, तो जूलियट सीजर ने इसे 365 1/2 दिन का करने का आदेश दे दिया। जिसमें कुछ माह 30 व कुछ 31 के बनाए और फरवरी 28 का रहा जो चार वर्षों में 29 का होता है। इस प्रकार यह गणनाएँ प्रारम्भ से ही अवैज्ञानिक, असंगत, असंतुलित, विवादित एवं काल्पनिक रहीं।
एक प्रकार की औपनिवेशिक मानसिकता ही कहेंगे कि एक अप्रचलित कैलेण्डर को स्वतंत्रता के बाद भारतीयों पर थोप दिया गया। संभवतः उन्हें यह बात नहीं पची कि कोई हिन्दू पंचांग अंग्रेजों से पुराना और वैज्ञानिक कैसे हो सकता है। आज शक संवत औपचारिक पंचांग बनकर रह गया है। पहले सरकारी कार्यक्रम और उद्घाटन की तिथियों में शक संवत की तिथि लिखी जाती थी, धीरे धीरे अब केवल अंग्रेजी कैलेण्डर की तिथि देखने को मिलती है। पूरे विश्व में 12 महीने का एक वर्ष और 7 दिन के एक सप्ताह की जो व्यवस्था है वह विक्रमी संवत की ही देन है। विक्रमी संवत अधिक वैज्ञानिक है लेकिन उसे अव्यावहारिक और जटिल बता कर लागू नहीं किया गया। जबकि नेपाल में विक्रमी संवत ही प्रचलित है। संस्कृत विद्वान और भारत रत्न से सम्मानित प्रोफेसर पांडुरंग वामन काणे ने अपनी पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ) में लिखते हैं “विक्रमी संवत सबसे वैज्ञानिक है पश्चिमी कैलेण्डर में सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण और अन्य खगोलीय परिस्थितियों का कोई संकेत नहीं मिलता जबकि विक्रमी संवत बता देता है कि अमुक दिन ही ग्रहण होगा। यह ऋतुओं के साथ-साथ ग्रह नक्षत्र की पूरी स्थिति को भी बताता है।”
विक्रमी संवत की जब 2000 वर्ष पूरे हुए थे तब देश भर में इसके उपलक्ष्य में कार्यक्रम आयोजित किए गए थे। इसी कैलेण्डर के अनुसार 1944 में, ग्वालियर के महाराज जीवाजी राव सिंधिया ने विक्रमी उत्सव मनाने की घोषणा की थी। उनके ही पहल पर विक्रमी स्मृति ग्रंथ (भालोजाद दरबार प्रेस, ग्वालियर) प्रकाशित किया गया। पंडित सूर्य नारायण व्यास ने इसका संपादन किया। राजा विक्रमादित्य, कालिदास और उज्जैन नगरी पर ये सबसे प्रमाणित पुस्तक मानी जाती है।
विक्रमी संवत के 2000 वर्ष पूरे होने के अवसर पर विक्रमादित्य नाम से एक फिल्म भी बनाई गई थी जो 1945 में रिलीज हुई। उसका निर्देशन विजय भट्ट ने किया था-
“जब तक पृथ्वी आबाद रहे
तब तक हर भारतवासी के
दिल में यह संवत याद रहे
यह विक्रमी संवत याद रहे
विक्रमादित्य की जय हो”
विक्रमी उत्सव में वीर सावरकर और के.एम. मुंशी जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने भी सहभागिता की थी। उनका प्रयास था कि इसे भारत की सांस्कृतिक पुनरुत्थान के अवसर की तरह प्रयोग किया जाए। लेकिन भारत के बंटवारे हिंदुओं के विस्थापन और नरसंहार से पैदा अवसाद ने इस पूरे प्रयास पर पानी फेर दिया। ऊपर से नेहरूवादी सेक्युलरिज्म ने रही सही कसर पूरी कर दी। सेकुलर सरकारों ने विक्रमी संवत को भले ही त्याग दिया लेकिन वह इसे भारतीय जनमानस से नहीं हटा सके। सामान्यत: लोग न केवल पर्व एवं त्योहारों के लिए इसका प्रयोग करते हैं बल्कि अपने गृह, जन्म, विवाह आदि से सम्बंधित अन्य पारंपरिक प्रतिष्ठानों पर विक्रमी तिथि के अनुसार ही आयोजन करते हैं।
भारत मे आज के समसामयिक परिप्रेक्ष्य में एवं वर्तमान सरकार द्वारा विक्रमी संवत को अपनाने एवं निमंत्रण-पत्र अथवा अन्य तिथियों के लिए विक्रमी संवत के अनुसार प्रयोग किया जा रहा है। राजस्थान में मांग हो रही है कि राजस्थान वर्ष, 30 मार्च के बदले नववर्ष प्रतिपदा को मनाया जाए। अयोध्या में श्री रामलला मंदिर की स्थापना विक्रमी संवत 2080 की पौष मास शुक्ल पक्ष द्वादशी तिथि को हुआ है। हम सभी को यह सुनिश्चित करना होगा कि यह वर्षगांठ हम सभी विक्रमी संवत के अनुसार मनाएं ना कि 22 जनवरी को। महाराणा प्रताप से लेकर छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती एवं पुण्यतिथि भी हमें विक्रमी संवत के अनुसार ही मनाना चाहिए।
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