‘‘हे पानी, तुम मानवता के सबसे अच्छे दोस्त हो। तुम जीवन के दाता हो, तुम से अन्न उत्पन्न होता है, और तुमसे ही हमारे बच्चों का कल्याण होता है। तुम हमारे रक्षक हो और हमें सभी बुराइयों से दूर रखते हो। आप सर्वश्रेष्ठ औषधि हैं, और आप इस ब्रह्मांड के पालनहार हैं।’’ यह प्रार्थना के शब्द विश्व की सबसे प्राचीन ज्ञान धरोहर और भारत की मनीषा के आधार वेदों में मिलते हैं। इसके लिए ऋग्वेद में मंत्र लिखा गया-
ओमान-मपोमानुषी: अमृतकमधात तोके तनयश्याम्यो:।
यौयमहिसतभिषजो मातृतमविश्वस्यस्थतु: जगतोजानित्री:।।
ऋग्वेद में जल की प्रार्थना एवं उसकी उपयोगिता के संबंध में इस तरह के अनेक मंत्र दिए गए हैं और बहुत ही तार्किक ढंग से स्पष्ट किया गया है कि वह ब्रह्मांड के निर्वाहक के रूप में अपना दायित्व निर्वहन कर रहा है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति और समाज में जल का विशेष महत्व हर जगह दृष्टिगोचर होता है।
वास्तव में हमें यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हमारा अस्तित्व जल पर निर्भर है। इसलिए विश्व की जितनी भी प्राचीन सभ्यताओं के अस्तित्व मिलते हैं, वहां किसी न किसी रूप में जल तत्व का गान अवश्य प्राप्त होता है। कहना होगा कि विश्व की सभी सभ्यताएं पानी के उपयोग के साथ पनपी हैं। इन सभी के बीच यदि भारतीय सभ्यता की बात करें तो भारत का जलविज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान है। प्राचीन भारतीय सभ्यता, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता के रूप में जाना जाता है, हजारों वर्ष पहले अपने शीर्ष पर थीं।
हड़प्पाकालीन संस्कृति से मिले अनेक प्रमाण हैं जो यह बताते हैं कि इस समय के लोगों के पास पानी की आपूर्ति और सीवरेज की परिष्कृत प्रणालियाँ थीं, जिसमें हाइड्रोलिक संरचनाएँ जैसे बांध, टैंक, पंक्तिबद्ध कुएँ, पानी के पाइप और फ्लश शौचालय आदि सम्मिलित थे। हड़प्पा और मोहन जोदड़ो के शहरों ने दुनिया की पहली शहरी स्वच्छता प्रणाली विकसित की थी। इसी तरह से सिंधु घाटी सभ्यता में सिंचाई के उद्देश्य से बड़े पैमाने पर कृषि का कार्य किया गया था और नहरों के एक व्यापक नेटवर्क का उपयोग किया गया था।
प्राचीन भारत में विभिन्न जलविज्ञानीय प्रक्रियाओं की जानकारियां बहुत विकसित थीं। साहित्यों से यह भी पता चलता है कि भूजल की उपस्थिति का पता लगाने के लिए जलविज्ञानीय संकेतकों का उपयोग किया जाता था। वर्तमान जलविज्ञान में जो स्थापनाएं की गई हैं, वे वेदों, पुराणों, मेघमाला, महाभारत, मयूरचित्रिका, वृहत संहिता और अन्य प्राचीन भारतीय पुस्तकों के विभिन्न छंदों में वर्णित हैं। जल संकट तथा बाढ़ की तीव्रता को कम करने में जल के कुशल उपयोग के महत्त्व को इंगित करने के लिए वेदों में विभिन्न संदर्भ उपलब्ध हैं।
विज्ञान अभी भी यह समझ रहा है कि भारत में जो सूर्य, पृथ्वी, नदियों, महासागरों, वायु, जल इत्यादि प्राकृतिक प्रतिमानों और शक्तियों को देवताओं के रूप में पूजने की परंपरा रही है, उसके पीछे का आखिर विज्ञान कितना गहरा है और क्या है। इसे आप बिल्कुल भी संयोग नहीं मानिए कि इन देवताओं के राजा इंद्र वर्षा के देवता हैं। वर्षा यानी कि जल और जल तत्व का अनेक रूपों में विस्तार का होना।
वैदिक काल में भारतीयों ने यह अवधारणा विकसित कर ली थी कि सूर्य की किरणों और हवा के प्रभाव के कारण पानी सूक्ष्म कणों में विभाजित हो जाता है। पुराणों में विभिन्न स्थानों पर यह उल्लेख किया गया है कि जल को उत्पन्न या नष्ट नहीं किया जा सकता है और जल चक्र के विभिन्न चरणों के माध्यम से केवल इसकी अवस्था बदल जाती है। प्राचीन भारत में यज्ञों, वनों, जलाशयों आदि के वर्षाकरणीय प्रभाव, मेघों का वर्गीकरण, उनका रंग, वर्षा क्षमता आदि, आकाश के रंग, बादलों, वायु की दिशा, बिजली और जानवरों की गतिविधियों जैसी प्राकृतिक घटनाओं के आधार पर वर्षा की भविष्यवाणी अच्छी तरह से विकसित की जा चुकी थी। साहित्य से यह भी पता चलता है कि भूजल की उपस्थिति का पता लगाने के लिए भौगोलिक विशेषताओं, दीमक के टीले, मिट्टी, वनस्पतियों, जीवों, चट्टानों और खनिजों जैसे भूगर्भीय संकेतकों का उपयोग किया गया था।
वेदों में ऐसे विभिन्न संदर्भ उपलब्ध हैं जो पानी की कमी और सूखे की तीव्रता को कम करने के लिए कुशल जल उपयोग के महत्व को इंगित करते हैं। वेदों, विशेष रूप से, ऋग्वेद, यजुर्वेद, और अथर्ववेद, में जल प्रबंधन के लिए जल चक्र और संबद्धित प्रक्रियाओं के कई संदर्भ मिलते हैं, जिनमें जल गुणवत्ता, जल यन्त्र, जल-संरचना और प्रकृति-आधारित समाधान सम्मिलित हैं।
ऋग्वेद में अपशब्द जल अर्थ में प्रयुक्त किया है तथा आपो देवता अर्थात् जल को देवता के रूप में संबोधन किया है। आपो देवता के ऋग्वेद में चार पूर्ण सूक्त हैं जोकि मण्डल 7.47, 7.46, 10.6, तथा 10.14 में आये हैं। मुख्यतः ये जल प्रवाहों, मेघों और नदियों के लिए प्रयुक्त हुए हैं। वहीं, ऋग्वेदसंहिता के प्रथम मंडल के पांचवें अध्याय में जल की महत्ता एवं उसकी उपासना से संबंधित मंत्र हैं।
पहले मण्डल में यज्ञ की इच्छा से जल की विभिन्न प्रकार से स्तुति की गई है जल को माता स्वरूप, सूर्य किरणों के सान्निध्य से पवित्र एवं जिस जल को गायें सेवन करती हैं, उस जल को अमृत और औषधीय गुण युक्त दीर्घायु और दोषमुक्ति के साथ-साथ पवित्रकारक माना गया है। मण्डल सात में जल देव से सोमरस की शुद्धि के लिए, विघ्न नाशक, नदियों के निरन्तर प्रवाह के लिए, कल्याणप्रद, जल के विभिन्न रूपों में यज्ञ की इच्छा से स्तुति की गई है। इसी तरह से मण्डल दस में सुखों के मूल स्रोत, माताओं के दुग्ध के समान सुखकारी पोषक रस, वंश वृद्धि, रोग रहित, सुख शान्ति, अग्नितत्व से परिपूर्ण जल की स्तुति की गई है।
ऋग्वेदसंहिता, मण्डल 1, सूक्त 23 में कहा गया-
अपोदेवीरुपह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः । सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः ॥18॥
(अपः देवीः उप-ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः, सिन्धुभ्यः कर्त्वं हविः ।)
शब्दानुसार मंत्र का अर्थ यह निकलता हैः जिस जल का पान हमारी गायें करती हैं उस जलदेवी का मैं आह्वान करता हूं। सिंधुओं अर्थात् नदियों को हवि समर्पित करना हमारा कर्तव्य है। आगे इसमें कहा गया है-
अप्स्वन्तरमृतमप्सुभेषजमपामुतप्रशस्तये, देवाभवतवाजिनः ॥19॥
(अप्सु अन्तः अमृतम् अप्सु भेषजम् अपाम् उत प्रशस्तये, देवाः भवत वाजिनः ।)
शब्दार्थः जल में अमृत है, जल में औषधि है। हे ऋत्विज्जनो, ऐसे श्रेष्ठ जल की प्रशंसा अर्थात् स्तुति करने में शीघ्रता बरतें।
आपःपृणीतभेषजंवरूथंतन्वेमम । ज्योक्चसूर्यंदृशे ॥21॥
(आपः पृणीत भेषजम् वरूथम् तन्वे मम, ज्योक् च सूर्यम् दृशे ।)
शब्दार्थः जल मेरे शरीर के लिए रोगनिवारक औषध की पूर्ति करे। हम चिरकाल तक सूर्य को देखें। विस्तार में यदि इसके अर्थ को समझें तो ऋग्वेदे में मंत्र दृष्टा ऋषि कहता है, जल को औषधीय गुणों से परिपूर्ण है। इसलिए यहां यह प्रार्थना की गयी है कि जल मेरे शरीर को रोगों से मुक्त रखने वाले औषधीय तत्व प्रदान करे। हम दीर्घकाल तक नीरोगी रहें। लंबे समय तक सूर्य देखने का तात्पर्य यही है कि हमारी आयु लंबी रहे और हम तब तक स्वस्थ बने रहें।
इदमापःप्रवहतयत्किञ्चदुरितंमयि । यद्वाहमभिदुद्रोहयद्वाशेपेउतानृतम् ॥22॥
(इदम् आपः प्र-वहत यत् किम् च दुः-इतम् मयि, यत् वा अहम् अभि-दुद्रोह यत् वा शेपे उत अनृतम् ।)
शब्दार्थः मैंने अज्ञानवश जो भी अनुचित कार्य किये हों, अथवा जानबूझकर दूसरों के प्रति द्वेष एवं वैर का भाव अपनाया हो, अथवा दूसरों की अनिष्ट की कामना मैंने की हो, उस सब को यह जल मुझसे दूर बहा ले जावे। इस मंत्र का एक सरल भावार्थ यह भी है कि – हे जल देवो ! हम याजकों ने अज्ञानवश जो दुष्कृत्य किये हों, जान-बूझकर किसी से द्रोह किया हो, सत्पुरुषों पर आक्रोश किया हो या असत्य आचरण किया हो तथा इस प्रकार के हमारे जो भी दोष हों, सबको बहा कर दूर करें।
ऋग्वेद के मंत्र 47.4 में कहा है कि –
याः सूर्योरश्मिभिराततान याभ्य इन्द्रो अरदद् गातुमूर्मिम् । ते सिन्धवो वरिवो धातना नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।।
अर्थात – जिस जल को सूर्यदेव अपनी रश्मियों के द्वारा बढ़ाते हैं एवं इन्द्रदेव के द्वारा जिन्हें प्रवाहित होने का मार्ग दिया गया है। हे सिन्धो ‘जलप्रवाहो ! आप उन जल धाराओं से हमें धन-धान्य से परिपूर्ण करें तथा कल्याणप्रद साधनों से हमारी रक्षा करें।
सूक्त 46 में मंत्र मिलता है-
समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः । इन्द्रो या वज्री वृषभो रराद ता आपो देवीरिह ममावन्तु ।।
यानी कि समुद्र जिनमें ज्येष्ठ हैं, वे जल प्रवाह सदा अंतरिक्ष से आने वाले हैं। इन्द्रदेव ने जिनका मार्ग प्रशस्त किया था, वे जल देव यहाँ हमारी रक्षा करें।
इसके आगे का मंत्र है –
या आपो दिव्या उत वा स्रवन्ति खनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः ।
समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ।।
भावार्थ है कि – जो दिव्य जल आकाश से ‘वृष्टि के द्वारा’ प्राप्त होते हैं, जो नदियों में सदा गमनशील हैं, खोदकर जो ‘कुएं आदि से’ निकाले जाते हैं और जो स्वयं स्रोतों के द्वारा प्रवाहित होकर पवित्रता बिखेरते हुए समुद्र की ओर जाते हैं, वे दिव्यतायुक्त पवित्र जल हमारी रक्षा करें।
फिर मंत्र 46.3 में यह प्रार्थना की गई है –
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम् । मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ।।
अर्थात् – सर्वत्र व्याप्त होकर सत्य और मिथ्या के साक्षी वरुण देव जिनके स्वामी हैं वही रस युक्ता, दीप्तिमती, शोधिका जल देवियां हमारी रक्षा करें।
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वे देवा यासूर्जं मदन्ति । वैश्वानरो यास्वग्निः प्रविष्टस्ता आपो देवीरिह मामवन्तु ।।
– राजा वरुण और सोम जिस जल में निवास करते हैं, जिसमें विद्यमान सभी देवगण अन्न से आनन्दित होते हैं; विश्व व्यवस्थापक अग्निदेव जिसमें निवास करते हैं, वे दिव्य जल देव हमारी रक्षा करें।
आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे॥
भावार्थ है कि – हे जल देव ! आप सुखों के मूल स्रोत हैं। आप हमें पराक्रम से युक्त उत्तम कार्य करने के लिए पोषक रस ‘अन्न’ प्रदान करें।
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव मातरः ।।
भावार्थ है कि – हे जल देव ! आप अत्यन्त सुखकर पोषक रस का हमें सेवन करने दें। जैसे बच्चे को माताएँ अपने दुग्ध से पोषण देती हैं, वैसे ही आप हमें पोषित करें।
तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः ।।
– हे जल देव ! आपका कल्याणकारी रस हमें शीघ्रता से उपलब्ध हो, जिनके द्वारा आप सम्पूर्ण विश्व को तृप्त करते हैं। आप हमारे वंश को पोषण प्रदान कर उसे आगे बढ़ाएं।
शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये । शं योरभि स्रवन्तु नः।।
– हमें, सुख शान्ति प्रदान करने वाला जल प्रवाह प्रकट हो। वह जल पीने योग्य, कल्याणकारी एवं सुखकर हो, मस्तक के ऊपर क्षरित होकर रोगों को हमसे दूर करे।
फिर यहां कहा गया है –
ओमानमापो मानुषीरमृत्कं धात तोकाय तनयाय शं योः । यूयं हि ष्ठा भिषजो मातृतमा विश्वस्य स्थातुर्जगतो जनित्रीः ।।
इसका तात्पर्य है कि – हे जल देवता ! आप समस्त स्थावर जंगम को उत्पन्न करने वाले हैं। पौत्रादि की रक्षा के निमित्त अन्न प्रदान करें, आप माताओं से भी श्रेष्ठ चिकित्सक हैं, अतएव आप हमारे समस्त विकारों को नष्ट करें।
कुल मिलाकर ऋग्वेद में इस प्रकार के अनेक मंत्र मिलते हैं, जो न सिर्फ जल की महत्ता बता रहे हैं, बल्कि उसे एक देव रूप में स्तुतिगान करते हुए आह्वाहित करते दिखते हैं । वस्तुत: यह कहना उचित होगा कि हमारे ऋषियों ने यह पहले ही जान लिया था कि पानी सतत विकास के लिए मूलाधार तत्व है और सामाजिक-आर्थिक विकास, ऊर्जा और खाद्य उत्पादन, स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र और स्वयं संपूर्ण मानव जाति के अस्तित्व के लिए अति महत्वपूर्ण है। पानी जलवायु परिवर्तन के संयोजन के केंद्र में भी है, जो समाज और पर्यावरण के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करता है।
अब आज के संदर्भ में यह बात ओर है कि भारत ही नहीं दुनिया का प्रत्येक देश अपने जल संसाधनों के विकास और प्रबंधन में अनेक चुनौतियों का सामना करता हुआ दिख रहा है। वर्तमान की सबसे बड़ी यदि कोई चुनौती है तो वह है अपनी बढ़ती जनसंख्या को खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा प्रदान करना, नदियों और पर्यावरण को फिर से जीवंत करते हुए और जल से उत्पन्न आपदाओं से सुरक्षा प्रदान करना है। वैदिक ग्रंथ, जो हजारों वर्ष पुराने हैं, उनमें जलविज्ञानीय चक्र से सम्बंधित महत्वपूर्ण संदर्भ उपलब्ध हैं। वास्तव में अब होना यह चाहिए कि वेदों के बताए रास्ते पर संपूर्ण मानव जाति चले।
मानव जाति के विविध पंथ, जाति समूह इस सोच से बाहर निकलें कि वेद हिन्दुओं और सनातन धर्म को माननेवालों के धार्मिक ग्रंथ हैं, वस्तुत: संपूर्ण वेदवाग्मय मानव कल्याण के ग्रंथ हैं। इसलिए वेद में बताए जल संरक्षण के मार्ग एवं उसकी शिक्षा सभी ग्रहण करें और उसके अनुपालन में सरकारें एवं समाज व्यवस्था के अनेक संगठन, समूह अपनी योजनाएं बनाएं और उन्हें व्यवहार में लागू करें। निश्चित ही ऐसा करने पर ही हम अपनी आनेवाली पीढ़ियों के लिए स्वच्छ जल दे सकेंगे, अन्यथा जल को लेकर संकट बहुत गहरा होनेवाला है।
(लेखिका पूर्व में जैव विविधता एवं सूक्ष्म जीवविज्ञान की प्राध्यापिका रही हैं। वर्तमान में मप्र बाल संरक्षण आयोग की संदस्य हैं)
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