प्लास्टिक पर्यावरण के लिए ही नहीं, अब इनसानों के लिए भी घातक बनता जा रहा है। माइक्रोप्लास्टिक (प्लास्टिक के महीन कण) खून के जरिये पूरे शरीर में फैल रहा है। खासतौर से मानव मस्तिष्क में इसकी तेजी से बढ़ी मात्रा खतरे की घंटी है। विभिन्न शोध रिपोर्ट के अनुसार, माइक्रोप्लास्टिक फेफड़ों, जिगर, किडनी, रक्त और प्रजनन अंगों में भी पाया गया है। 2016 से 2024 के बीच 8 वर्ष के दौरान किए गए अध्ययन के अनुसार मानव मस्तिष्क में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा 50 प्रतिशत तक बढ़ी है। ये मस्तिष्क की धमनियों और नसों की दीवारों के साथ-साथ मस्तिष्क की प्रतिरक्षा कोशिकाओं में भी घुस रहे हैं।

विज्ञान संचार विशेषज्ञ
वैज्ञानिकों का मानना है कि माइक्रोप्लास्टिक भोजन और पानी के जरिए हमारे शरीर में प्रवेश कर रहा है। खासतौर पर प्लास्टिक से दूषित पानी से सिंचित फसलों और मांसाहारी भोजन में इसकी मात्रा अधिक पाई गई है। इसमें बोतलों व प्लास्टिक कप में प्रयुक्त होने वाला पॉलीइथीलिन सबसे ज्यादा मस्तिष्क में जमा हो रहा है।
मस्तिष्क में 50 प्रतिशत बढ़ा माइक्रोप्लास्टिक
एनवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी जर्नल के एक अध्ययन के अनुसार, लोग हर साल 39,000 से 52,000 माइक्रोप्लास्टिक कण निगल जाते हैं। इसके कई खतरे हैं। इससे व्यवहार और रक्तचाप अंत:स्रावी व्यवधान व तंत्रिका प्रणाली पर दुष्प्रभाव तो पड़ता ही है, यह यकृत और गुर्दे को भी नुकसान पहुंचाता है। माइक्रो प्लास्टिक 5 मिलीमीटर से छोटे कण होते हैं। मलेशिया के शोधकर्ताओं का कहना है कि मानव शरीर में 5 मिलीमीटर से छोटे 12 से लेकर 1 लाख तक प्लास्टिक कण प्रतिदिन पहुंच रहे हैं। इस तरह एक वर्ष में 11,845 से 1,93,200 माइक्रोप्लास्टिक कण शरीर में पहुंचते हैं। एक कण का वजन 7.7 ग्राम से 287 ग्राम तक होता है।
हाल ही में नेचर मेडिसिन जर्नल ने ‘प्लास्टिक का मानव शरीर पर प्रभाव’ शीर्षक एक शोध रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसमें शोधकर्ताओं ने कहा है कि प्लास्टिक प्रदूषण का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव बढ़ रहा है और यह वैश्विक समस्या बन चुकी है। न्यू मैक्सिको स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय (यूएनएम यूनिविर्सिटी) के टॉक्सिकोलॉजिस्ट प्रो. मैथ्यू जे. कैम्पेन के नेतृत्व में 2016 और 2024 में मानव मस्तिष्क, यकृत (लिवर) और गुर्दे (किडनी) के नमूनों का विश्लेषण किया गया। मस्तिष्क के ऊतकों में माइक्रोप्लास्टिक की सांद्रता बहुत अधिक थी। शोधकर्ताओं ने पाया कि अन्य अंगों के मुकाबले मस्तिष्क में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा बहुत अधिक थी।
बीते 8 वर्ष में यह 50 प्रतिशत तक बढ़ी है। मस्तिष्क में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा किडनी और लिवर की तुलना में 7 से 30 गुना अधिक थी। यह मात्रा करीब एक चम्मच के बराबर है। कैम्पेन ने शोध में 1997 से 2024 के बीच किए गए दर्जनों पोस्टमॉर्टम में मस्तिष्क के ऊतकों में माइक्रोप्लास्टिक की बढ़ती प्रवृत्ति देखी। शरीर में बढ़ते माइक्रोप्लास्टिक से केवल मस्तिष्क संबंधी ही नहीं, बल्कि अन्य दूसरी बीमारियों का भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। वैज्ञानिकों को खून, माताओं के दूध, गर्भनाल से लेकर शरीर के अन्य अंगों में भी माइक्रोप्लास्टिक्स मिले हैं। नीदरलैंड के वैज्ञानिकों ने मांस के 8 में से 7 व मां के दूध के 25 में से 18 नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक पाया है। समुद्री नमक और मछलियों के जरिये भी यह इनसानों के शरीर में पहुंच रहा है। वैज्ञानिकों ने 1997 से 2013 के बीच अमेरिका के पूर्वी तट पर मरने वाले लोगों के मस्तिष्क ऊतक के नमूनों का विश्लेषण किया था। ताजा शोध उसी का विस्तार है।
कैम्पेन ने कहा कि डिमेंशिया में मस्तिष्क में रक्त अवरोध और निकासी तंत्र क्षतिग्रस्त हो जाता है। बहुत संभव है कि डिमेंशिया के साथ सूजन वाली कोशिकाएं और ब्रेन टिश्यू मिलकर प्लास्टिक के लिए एक प्रकार का सिंक बना सकता है। इससे आशंका बढ़ गई है कि माइक्रोप्लास्टिक और न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारियों जैसे अल्जाइमर और पार्किंसंस के बीच गहरा संबंध हो सकता है। कैम्पेन ने कहा कि ताजा शोध में सभी नमूने फ्रंटल कॉर्टेक्स से लिए गए थे, जो आंखों के ऊपर और पीछे मस्तिष्क का क्षेत्र होता है। जांच में 200 नैनोमीटर या उससे कम माप के तीखे प्लास्टिक के टुकड़ों के गुच्छे मिले जो वायरस से ज्यादा बड़े नहीं थे। ये प्लास्टिक कण इतने छोटे हैं कि रक्त-मस्तिष्क अवरोध को पार करने के लिए पर्याप्त हैं।
आधे से अधिक अंगों तक पहुंचा
दो वर्ष पहले मलेशिया, आस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया के शोध रिपोर्ट में कहा गया था कि मानव शरीर में प्लास्टिक के कण घातक तरीके से बढ़ रहे हैं। इसके अनुसार, हर हफ्ते औसतन लगभग 5 ग्राम प्लास्टिक मानव शरीर में पहुंच रहा है। कई मामले में यह मात्रा इससे भी अधिक है। चीन के बाद इंडोनेशिया सबसे अधिक प्लास्टिक प्रदूषण फैला रहा है। इंडोनेशिया के एयरलंग्गा विश्वविद्यालय के शोधकर्ता वेरिल हसन की मानें तो शरीर में माइक्रोप्लास्टिक पहुंचने का प्रमुख माध्यम समुद्री मछलियां हैं। 2050 तक समुद्र में पहुंचे प्लास्टिक का वजन मछलियों के कुल वजन से अधिक होगा। मलेशिया की साइंस यूनिवर्सिटी के अध्ययनकर्ता ली योंग का तो दावा है कि आधे से अधिक मानव अंगों में माइक्रोप्लास्टिक पहुंच चुका है। इससे कैंसर से लेकर शरीर के अंदरूनी अंग फेल होने का खतरा बढ़ रहा है।
आस्ट्रेलिया के यूनिवर्सिटी आॅफ वोलोंगोंग के वैज्ञानिकों ने बीते 20 वर्ष में माइक्रोप्लास्टिक पर प्रकाशित 7,000 अध्ययनों की समीक्षा की। इसमें भी चिंताजनक परिणाम सामने आए हैं। इसमें कहा गया है कि माइक्रोप्लास्टिक व्यापक रूप से न केवल फैल चुके हैं, बल्कि पृथ्वी और दूरस्थ हिस्सों में भी जमा हो रहे हैं। छोटे कीटों से लेकर जानवरों और मनुष्यों तक, हर स्तर पर इसके विषैले प्रभावों के सबूत मिले हैं। रॉयल मेलबोर्न इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी विश्वविद्यालय और हैनान विश्वविद्यालय के अध्ययन के अनुसार, माइक्रोप्लास्टिक के 12.5 प्रतिशत कण मछलियां भोजन समझ कर निगल जाती हैं।
उत्तरी फुलमार के समुद्री पक्षियों की विष्ठा में 47 प्रतिशत तक माइक्रोप्लास्टिक पाए गए हैं। इससे प्रभाव से कछुए और अन्य समुद्री जीव भी प्रभावित हैं। जनरल एनवायरनमेंट इंटरनेशनल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, अध्ययन में शामिल 80 प्रतिशत लोगों के रक्त में माइक्रोप्लास्टिक पाया गया है। यह मानव शरीर में फैल कर कई महत्वपूर्ण अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है, जिसका सीधा असर दिमाग पर पड़ता है। वैज्ञानिकों ने इस बात पर चिंता जाहिर की है कि अगर स्थिति यही रही तो यह मानव शरीर की कोशिकाओं को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। इस शोध में 22 अलग-अलग लोगों के रक्त के नमूने लिए गए थे। अधिकतर लोगों के खून में पीईटी प्लास्टिक पाया गया, जो आमतौर पर पीने की बोतलों में पाया जाता है। इसमें एक तिहाई मात्रा में पॉलीस्टाइनिन होता है, जिसका प्रयोग भोजन और अन्य उत्पादों की पैकेजिंग के लिए किया जाता है। इसके अलावा इसमें पॉलीइथीलिन भी पाया गया, जिसका प्रयोग प्लास्टिक बैग बनाने में किया जाता है।
महासागरों में बढ़ा प्लास्टिक
प्लास्टिक कचरे से कुछ भी अछूता नहीं है। हालांकि, हवा, मिट्टी और पानी में माइक्रोप्लास्टिक कितनी मात्रा में मौजूद है, इसका पता लगाना तो कठिन है। लेकिन शोधकर्ताओं ने इसे मापने की कोशिश की है। 2020 के अध्ययन के अनुसार, महासागरों में हर वर्ष अनुमानत: 0.8 से 3 मिलियन टन माइक्रोप्लास्टिक कण पहुंचते हैं। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार भूमि और पर्यावरण में माइक्रोप्लास्टिक का रिसाव 10 से 40 मिलियन टन हो सकता है, जो महासागरों की तुलना में तीन से दस गुना अधिक है। 2040 तक पर्यावरण में यह रिसाव दो गुना हो सकता है। यहां तक कि अगर माइक्रोप्लास्टिक का प्रवाह रोक दिया जाए, तो भी बड़े प्लास्टिक का टूटना जारी रहेगा।
प्रशांत, अटलांटिक और हिंद महासागर में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा बहुत अधिक है। अटलांटिक महासागर में 200 मीटर गहराई में लगभग 210 लाख टन माइक्रोप्लास्टिक के कण पाए गए हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, इस महासागर में 47 मिलियन टन तक प्लास्टिक अपशिष्ट हो सकता है। सूर्य की पराबैंगनी विकिरण के प्रभाव से समुद्र या किसी भी जल निकाय में प्लास्टिक के टुकड़े माइक्रोप्लास्टिक कण के रूप में बिखर जाते हैं। गर्म खाद्य पदार्थ को पॉलिथीन में डालने से या प्लास्टिक की बोतलों में बंद पानी के सूरज के लगातार संपर्क में रहने से माइक्रोप्लास्टिक सीधे पानी या खाद्य में मिल जाता है। माइक्रोबीड्स भी एक प्रकार के माइक्रोप्लास्टिक होते हैं, जिनका आकार एक मिलीमीटर से कम होता हैं। ये सौंदर्य प्रसाधन, व्यक्तिगत देखभाल उत्पादों और औद्योगिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न होते हैं।
कितना घातक
कई अध्ययनों में इससे पाचन तंत्र और आंतों से लेकर कोशिकाओं तक को खतरा बताया गया है। कैंसर, हृदय रोग, किडनी, पेट और लिवर के रोग, मोटापा, मां के गर्भ में मौजूद भ्रूण का विकास रुकने संबंधी दावे किए गए हैं। साइंस आफ द टोटल एनवायरनमेंट द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में निचले फेफड़े सहित शरीर के विभिन्न हिस्सों में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक मिलने का दावा किया गया है। अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने 12 प्रकार के प्लास्टिक की पहचान की है। इसमें पॉलीप्रोपाइलीन और पॉलीथीन के साथ ही टेरेफ्थेलेट और राल भी शामिल हैं।
आमतौर पर ये प्लास्टिक पैकेजिंग, बोतलों, कपड़ों, रस्सी और सुतली निर्माण में पाए जाते हैं। माइक्रोप्लास्टिक के सबसे खतरनाक स्रोतों में शहर की धूल, कपड़ा और टायर भी शामिल हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार प्लास्टिक के कण लंबे समय में इनसान के फेफड़ों के ऊतकों को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जिससे कैंसर, अस्थमा जैसी कई बीमारियां हो सकती हैं। एक अन्य अध्ययन के अनुसार, कपड़ा कारखानों में पॉलिएस्टर और नायलॉन फाइबर से निकलने वाले माइक्रोप्लास्टिक कणों के कारण वहां कार्यरत लोगों में खांसी, सांस फूलने और फेफड़ों की क्षमता कम होना जैसी बीमारियां देखी गई हैं।
विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक व उनके उत्पाद जैसे पॉलीविनाइल क्लोराइड व पॉलीस्टायरीन कैंसरकारक होते हैं। माइक्रोप्लास्टिक के संचय से मानव शरीर की विखंडन प्रक्रियाएं प्रभावित होती हैं और आंतों का माइक्रोबायोम असंतुलित हो सकता है। ये प्रजनन में क्षमता में कमी, मानसिक विकार जैसी गंभीर बीमारियों का कारण बन सकते हैं। माइक्रोप्लास्टिक से आक्सीडेटिव तनाव (फ्री रेडिकल्स और एंटीआक्सिडेंट्स के बीच असंतुलन जो कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाता है), प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाएं, जीनोटॉक्सिसिटी- कोशिका में आनुवांशिक नुकसान हो सकते हैं।
द लैंसेट में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, माइक्रोप्लास्टिक के कारण पाचन तंत्र कमजोर होने के साथ लिवर संबंधी समस्याएं भी हो सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसार, प्लास्टिक की प्रकृति न्यूरोटॉक्सिक होती है। इसका मतलब है कि ये हमारी सेल्स के कामकाज को प्रभावित कर सकते हैं और उन्हें मार भी सकते हैं। इससे कैंसर की आशंका भी बढ़ सकती है।जर्नल आफ नैनोबायोटेक्नोलॉजी की एक रिपोर्ट की मानें तो हाल के वर्षों में पॉलीस्टाइरीन किडनी में सूजन का बड़ा कारण है और आक्सीडेटिव स्ट्रेस भी बढ़ा रहा है। अगर लंबे समय यह स्थिति बनी रही तो किडनी संबंधी गंभीर बीमारियां होने की आशंका बढ़ जाती है, जो बाद में किडनी फेल होने का कारण बन सकती है।
कैसे लगेगी रोक
कृषि प्रणाली, विशेषकर बागवानी उद्योग में कई प्रकार के प्रदूषक पाए जाते हैं, जिनमें सूक्ष्म प्लास्टिक भी शामिल हो चुके हैं। प्लास्टिक अपशिष्ट का प्रबंधन एक गंभीर समस्या है। वैश्विक स्तर पर 6300 मिलियन टन प्लास्टिक उत्पादों का उत्पादन किया जाता है, जिसमें से 75 प्रतिशत से अधिक को लैंडफिल में डाला जाता है। कृषि और बागवानी में प्लास्टिक मल्च या प्लास्टिक की चादर का उपयोग जल उपयोग दक्षता बढ़ाने और मिट्टी के तापमान को बनाए रखने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया में प्लास्टिक के छोटे टुकड़े या सूक्ष्मप्लास्टिक मिट्टी में रह जाते हैं, जो मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए खतरा बन जाते हैं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक मल्च के उपयोग पर चेतावनी दी है। प्लास्टिक मल्च को धान, गेहूं और घास जैसे जैविक मल्च से बदला जा सकता है, जो प्लास्टिक के उपयोग को कम करेगा। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने से कोटेड उर्वरकों और अन्य सिंथेटिक उत्पादों का उपयोग कम होगा।
प्लास्टिक कचरा हर साल बढ़ रहा है। 2060 तक इसके तीन गुना बढ़ने की संभावना है। इसके प्रबंधन में अगर सुधार नहीं हुआ तो यह मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए गंभीर खतरा बन सकता है। 2019 के आंकड़ों को देखें तो वैश्विक स्तर पर हर साल लगभग 35.3 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा पैदा हो रहा है, जो अगले 38 वर्ष में बढ़कर 101.4 करोड़ टन से अधिक हो जाएगा। यह जानकारी आर्थिक सहयोग और विकास संगठन द्वारा हाल में जारी रिपोर्ट ‘ग्लोबल प्लास्टिक आउटलुक: पॉलिसी सिनेरियोज टू 2060’ में सामने आई है। इसमें कहा गया है कि प्लास्टिक कचरे का लगभग आधा हिस्सा सीधे लैंडफिल में डंप किया जा रहा है, जबकि करीब 20 प्रतिशत से भी कम को पुनर्चक्रित किया जाता है। नतीजन देश-दुनिया में तेजी से इससे जुड़ा कचरा अपने पैर पसार रहा है। यहां तक कि दुनिया के सुदूर निर्जन इलाकों में भी प्लास्टिक की मौजूदगी के सबूत मिले हैं, जहां इनसानी विकास की छाया नहीं पड़ी है।
इसलिए अनावश्यक माइक्रोप्लास्टिक पैकेजिंग को कम करना आवश्यक है। इसके लिए जागरुकता बढ़ानी होगी। प्लास्टिक कचरे के संग्रहण प्रणाली में सुधार और उचित लैंडफिल बनाना भी आवश्यक है। बायो-बेस्ड और बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक के उपयोग के लिए नीति-निर्माण व उनका अनुपालन भी आवश्यक है। प्लास्टिक मल्च को धान, गेहूं, और घास जैसी जैविक मल्च से बदला जा सकता है, जो प्लास्टिक के उपयोग को कम करेगा। प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने से कोटेड उर्वरकों और अन्य सिंथेटिक उत्पादों का उपयोग कम या बंद होना चाहिए।
माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण मानव क्रियाओं और निर्णयों का परिणाम है। हमने इस समस्या को उत्पन्न किया और अब हमें इसका समाधान भी खोजना है। कुछ देशों ने इसे नियंत्रित करने वाले कानून लागू किए हैं। प्लास्टिक को फिर से डिजाइन करने की आवश्यकता है ताकि माइक्रोप्लास्टिक का उत्सर्जन न हो। वैज्ञानिक अनुसंधान और नवोन्मेषी तकनीकों के माध्यम से हम सूक्ष्म प्लास्टिक के प्रभावों को नियंत्रित कर सकते हैं, जिससे न केवल पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा होगी, बल्कि मानव स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इस दिशा में ठोस प्रयास और सामूहिक कार्रवाई से हम एक स्वस्थ और स्वच्छ भविष्य की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। प्लास्टिक की बोतलों और उत्पादों से दूरी बनाने के साथ चाय या अन्य खाद्य पदार्थ को पॉलिथीन में रखने से भी बचना चाहिए। अपनी आदतों में बदलाव कर हम कुछ हद तक माइक्रोप्लास्टिक के खतरे से बच सकते हैं।
कैसे बचें?
- कांच, स्टील या तांबे की बोतल प्रयोग करें, खाद्य पदार्थ भी ऐसे ही पात्रों में रखें।
- टिफिन के लिए कांच या स्टील के बर्तन का उपयोग करें।
- प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों से बचें और आसपास की हवा शुद्ध रखने का प्रयास करें।
- प्लास्टिक के ब्रश और कंघी की जगह लकड़ी से बने उत्पादों का उपयोग करें।
- कचरा फेंकने या साग-सब्जी लाने के लिए पॉलिथिन के उपयोग से बचें।
क्या है माइक्रोप्लास्टिक
नेशनल ओशनिक एंड एटमोस्फियरिक एडमिनिस्ट्रेशन के अनुसार माइक्रोप्लास्टिक 5 मिलीमीटर से छोटे प्लास्टिक के कण को कहते हैं। यह एक तिल के बीज के बराबर हो सकता है। एक नैनोमीटर एक मीटर का एक अरबवां हिस्सा होता है। नैनोस्केल का मतलब 100 नैनोमीटर से कम आकार। माइक्रोप्लास्टिक प्लास्टिक कचरे से टूटकर अलग हो जाता है। ये कपड़े, सिगरेट, कॉस्मेटिक आदि में मौजूद होते हैं। ये इतने छोटे होते हैं कि इन्हें आंखों से देख पाना मुश्किल होता है।
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