महाकुंभ मंथन में बोलते आचार्य मिथलेश नंदनी शरण जी महाराज
उत्तर प्रदेश के लखनऊ में महाकुंभ पर आयोजित पाञ्चजन्य और ऑर्गनाइजर के ‘मंथन’ कार्यक्रम में मिथलेश नंदनी शरण, बौद्ध लामा गेशे जोतपा, और साध्वी जया भारती जी ने आध्यात्मिकता के संगम पर गहरी चर्चा की। इस कार्यक्रम में मंथन के अर्थ और उसकी भारतीय संस्कृति से जुड़ी महत्वपूर्ण दृष्टियों पर प्रकाश डाला गया।
प्रश्न- जब मंथन होता है तो बहुत कुछ निकलता है, विष भी निकलता है, अमृत भी निकलता है लेकिन यदि हम इस मंथन को आध्यात्मिक दृष्टिकोण और भारतीय संस्कृति से देखें तो इस 45 दिन के मंथन में क्या-क्या निकला है?
उत्तर- महाकुंभ पर सबकी अपनी-अपनी दृष्टि है, लोग अपने-अपने तरीके से बातें कहते हैं, विष भी मंथन से निकलता है, अमृत भी मंथन से निकलता है, 14 रत्न भी मंथन से निकलते हैं, जब हम यह कहते हैं तो हमें लगता है कि सिर्फ समुद्र ही मथा जाता है और कुछ नहीं मथा जाता। जब हम मंथन करते हैं, तो अनेक प्रकार से मंथन होता है- अरणी मंथन होता है, जिससे अग्नि निकलती है, यज्ञ पुरुष की पूजा होती है,दधि मंथन होता है, नवनीत प्रकट होता है तो केवल समुद्र मंथन क्यों? मंथन के अर्थ तक पहुंचने के लिए, मंथन के सभी आयाम हमारे सामने होने चाहिए, जब हम समुद्र मंथन की बात करते हैं, तो मेरा अनुरोध है कि जिसके पास दृष्टि नहीं है अमृत की, वह समुद्र मंथ भी ले तो उसे अमृत नहीं मिलता।
ऐसा नहीं है कि समुद्र मंथन से अचानक अमृत निकल आया। दरअसल, समुद्र मंथन करने वालों को पता था कि अमृत इसी से मिलेगा। इसलिए, बीच में जो कुछ भी निकला, वह बहुत कीमती था, फिर भी उनका मंथन यहीं नहीं रुका। जब उच्चैश्रवा निकला था तब रुक जाते, जब ऐरावत निकला था तब रुक जाते, जब महालक्षमी प्रकट हुई थी तब रुक जाते, जब कौस्तुभ मणि प्रकट हुआ था तब रुक जाते, जब विष निकल पड़ा था तब ही रुक जाते पर कथा ये कहती है कि जो लोग मंथन में शामिल थे, वे जानते थे कि हमें इस मंथन को अमरता तक ले जाना है, इसलिए अमरता के अधिकारी केवल वे ही हैं जो मंथन से पहले ही अमरता की अपनी इच्छा और अमरता की अपनी प्रतिज्ञा को पहचान लेते हैं और ये वे लोग हैं जो अपने शैशव काल से ही विद्या अभ्यास करते हुए पढ़ लेते हैं हम अमरत पुत्र हैं। इसलिए जब ऐसे लोग अमृत मंथन करने निकलते हैं, तो कई बार उन्हें और लोगों की मदद की ज़रूरत होती है, इसलिए वे उन लोगों को साथ ले आते हैं जो अमृत के हकदार नहीं हैं। आप जानते हैं कि अमृत अकेले देवताओं ने नहीं मथा था, देवासुर ने मिल कर माथा। कथा ये बताती है कि असुरों को अमृत की लालसा नहीं थी वे देवताओं के निमंत्रण पर आये थे। देवताओं को अमृत चाहिए था। आचार्य नीलकंठ ने महाभारत में बहुत ही महत्वपूर्ण संदर्भ देते हुए बताया है कि अमृत मंथन का रहस्य क्या है और वे कहते हैं- देवताओं और दानवों ने समुद्र मंथन में बराबर प्रयास किया लेकिन फिर भी दानवों को अमृत नहीं मिला क्योंकि वे इसके पात्र नहीं थे। अमृत चाहिए था देवताओं को. आचार्य नीलकंठ ने महाभारत में बहुत महत्वपूर्ण एक संदर्व दिया है अमृत मन्थन का रहस्य क्या है और वे कहते हैं- समुद्र मन्थन करने में देवताओं और असुरों का परिश्रम समान था तब भी असुरों को अमृत नहीं मिला क्योंकि वे इसके पात्र नहीं थे. वे अमृत कलश में लिये थे और मोहिनी को देख कर कि स्त्री मनस्क हो गए और अमृत को भूल गए इसलिए वे उससे वंचित हो गए।
ऐसा नहीं है कि हम जो महाकुंभ पर मंथन कर रहे हैं इसमें भी केवल देवता ही देवता दिखाई पड़े हो, इसमें भी कुछ न कुछ असुर कहीं न कहीं दिखाई पड़े हैं क्योंकि इतिहास है कि जब समुद्र मंथन होगा तो उसमें कुछ राक्षस भी होंगे. मंथन की कथा में राक्षस क्या करते हैं, वे अमृत कलश छीनकर भागना चाहते हैं। अच्छी बात यह है कि दैव बल अभी अधिक समर्थ हो गया है, इसलिए वे छीन कर ले नहीं जा सके। महाकुंभ आध्यात्मिकता की पृष्ठभूमि पर आधारित विशाल भारत का सांस्कृतिक समारोह है। यदि भारत पुरुष विशाल रूप में प्रकट हो जाएं तो कैसा होगा, यह जानने के लिए महाकुंभ का दर्शन करना चाहिए। जब हम विराट पुरुष के बारे में पढ़ते हैं तो कहा जाता है कि वृक्ष उसके शरीर के रोएं हैं, इसलिए जब हम पर्यावरण की बात करते हैं,तो हम वृक्षों की महिमा की बात करते हैं, और वृक्ष हमारे सामने बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं, लेकिन जब हम खंडहरों को देखने के बजाय विराट पुरुष को देखते हैं, तो हमें पता चलता है कि ये उसके शरीर के रोएं हैं। जब हम पर्वतों को देखते हैं तो हमें पता चलता है कि ये शिलाएं हैं लेकिन जब हम विराट को देखते हैं तो पता लगता है कि जिस विराट की हम आराधना करते हैं और हम स्वयं जिसका अंग हैं ये उसकी अस्थियां हैं। हम अपनी पिछली पीढ़ियों में अनेक कारणों से भारत को देखने में असफल रहे थे। महाकुंभ ने एक बार फिर हमें जगाया है कि देखो, यह भारत का विशाल स्वरूप है, और हम इस भारत का हिस्सा बनकर अपनी महिमा, अपनी दिव्यता को पहचान सकते हैं। भारतीयों की आंखें तो खुल ही गई हैं और इस चमक से दुनिया के लोगों की आंखें भी खुल गई हैं।
प्रश्न- सनातन धर्म जो है उसकी जो महिमा है वो विश्स्तर तक कैसे पहुंचे? जैसा कि आचार्य जी ने अभी कहा कि अगर हम सबको साथ लेकर चलते हैं तो युवाओं को छोड़ नहीं सकते। जिस तरह से हमने आज के युवाओं को महाकुंभ में आते हुए देखा और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से स्नान करते हुए देखा या जो उत्साह देखा, क्या आपको लगता है कि आज का युवा आध्यात्मिकता के प्रति उतना ही झुकाव रखता है या उसका उतना ही सम्मान करता है जितनी उससे अपेक्षा की जाती है।
उत्तर- इस कुंभ ने कई धारणाएं तोड़ दी हैं। ऐसे नारेटिव्स जो भारत के उपर, भारत के मानस के उपर और हम सब लोगों के उपर जो सनातनी हैं उनके अंदर बहुत एक सिस्टेमेटिक ढंग से एक प्रणाली बढ़ तरीके से ठोक-ठोक करके बताया जा रहा था कि जो सनातन है वो रेलेवेंट नहीं है आज की रिष्टि कोण में। सनातन इतने से ही प्रासंगिक नहीं है, सनातन संकीर्ण है, सनातन सीमित है, सनातन को मानने वाले बहुत लोग नहीं हैं लेकिन जिस भव्यता के साथ इस बार कुंभ का आयोजन हुआ है, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि ऐसा नहीं है कि युवा सनातन से नहीं जुड़ रहे थे, सनातन ने यह दिखाया कि कितना युवा जुड़ रहा है, आप यह देखना नहीं चाहते थे, वह अलग बात है। ये सिर्फ भारत के हिन्दू सनातनी युवाओं के लिए नहीं है, आप देखिए, सिर्फ भारत ही नहीं, पूरी दुनिया से युवा यहां आए हैं, जो अलग-अलग धर्मों या अलग-अलग विश्वास प्रणालियों से जुड़े हुए हैं, लोग यहां सिर्फ खुद को खोजने के लिए आते हैं। आप देख रहे हैं कि सभी अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने यहां शोध किया, सभी लोग जो वहां आए, अगर आप लोग वहां गए हैं और देखा है और अनुभव किया है, तो वहां शोध करने वाले अधिकतर लोग युवा थे। अगर हम भारत को संजीवनी सभ्यता कहते हैं, तो हमने जो पढ़ा है, ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ प्राचीन लोगों या पुराने लोगों के लिए है, ये संजीवनी सभ्यता इसलिए चली आ रही है क्योंकि सनातन संस्कृति में ये ये एक वाहन है, एक वाहक है जिसके माध्यम से हम ऐसे आयोजनों के माध्यम से अपनी संस्कृति को आने वाली पीढ़ियों तक देते रहे हैं।
प्रश्न- यह 2000 साल की परंपरा का कुंभ है और आप बौद्ध परंपरा से निकलकर महाकुंभ में कल्पवासियों की तरह रहे, आपका अनुभव कैसा रहा?
उत्तर- इस महाकुंभ ने भारत की एकता, अखंडता और परंपराओं को विकसित करने में बहुत मदद की है। ये सिर्फ देश के लिए ही नहीं बल्कि सनातन परंपरा का सम्मान करने वाले सभी लोगों के लिए खुशी की बात है। मैं इसके लिए देश और दुनिया के सभी लोगों को बहुत-बहुत बधाई देता हूं।
प्रश्न- अगर इस महाकुंभ की बात करें तो 66 करोड़ लोगों ने संगम में स्नान किया, इस लिहाज से देखा जाए तो ये इस मायने में अलग है, अगर आर्थिक दृष्टि से भी देखा जाए तो भारत में 66 करोड़, सनातन धर्म के लिहाज से देखा जाए तो आधी से ज्यादा आबादी ने संगम में डुबकी लगाई। यदि हम इसे भविष्य के परिप्रेक्ष्य से देखें तो आपके अनुसार यह क्या संकेत है?
उत्तर- अगर मैं शेर के संदर्भ में कहूं तो’कहां से छेडूं फसाना, कहां तमाम करूं’। इस बार महाकुंभ ने जो दिव्यता प्रकट की है, वह अनुभव करने योग्य है और उसे किसी भी भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। महाकुंभ ने भारत के सोये हुए गौरव को जगा दिया है और पूरा भारत अपनी सनातनता की बात करने लगा है। जो सदा सनातन है, वो हमारी अध्यात्म की चेतना को अध्यात्म के माध्यम से प्रकट करता है, वो धर्म से प्रकट होता है, संस्कृति से प्रकट होता है और संस्कृति मूल्यों से प्रकट होती है, तो जब संस्कृति प्रकट होती है, तो उसके जो उपांग दिखते हैं, सेवा के, सहयोग के, बाजार के, प्रचार के, आप उन महत्ताओं को इस आयाम में परिभाषित कर सकते हैं। ये भारत है जो 140 करोड़ की आबादी में से 70 करोड़ लोगों को एक विचार के माध्यम से एक जगह पर जाकर स्नान करने के लिए प्रेरित करता है और ये किसी प्रचार से संभव नहीं है, ये विचार से संभव है, ये भारत में परंपरा से मिलता है।
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