इंदिरा गांधी की हत्या का बहाना लेकर सिखों पर हुए हमलों और सामूहिक नरसंहार के आरोप में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को एक और मामले में आजीवन कारावास की सजा मिली है। उन पर एक पिता-पुत्र को जलाकर मारने का दोष सिद्ध हुआ है। इससे पहले 1984 की इसी हिंसा के एक अन्य प्रकरण में उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिल चुकी है और वे जेल में हैं।

वरिष्ठ पत्रकार
नवंबर 1984 में सिखों के विरुद्ध हिंसा भड़काने वाले सज्जन कुमार अकेले नहीं थे। देशभर में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने सिखों पर ऐसे ही हमले किए थे और स्थानीय नेताओं ने हमलों के लिए उकसाया था। सिखों के घरों में तोड़-फोड़ और सामूहिक हत्या की गई। देशभर में लगभग 3,500 से अधिक सिखों को घर से घसीट कर सड़क लाया गया और उनकी हत्या की गई। दिल्ली में ही यह संख्या 2700 से अधिक थी। पीड़ित परिवारों की आंखों में बोलती वे स्मृतियां आज भी आंसू ला देती हैं।
31 अक्तूबर, 1984 को दो सुरक्षाकर्मियों सतवंत सिंह और बेअंत सिंह ने इंदिरा गांधी की हत्या कर दी थी। इसकी प्रतिक्रिया में कांग्रेस का गुस्सा देशभर में सिख समाज पर फूटा। कांग्रेसियों ने सिख बस्तियों और घरों पर धावा बोला। देशभर में 100 से अधिक नगरों में सिखों पर हमले किए गए। इनमें 52 नगर ऐसे थे, जहां एक या एक से अधिक सिखों की हत्या की गई। सर्वाधिक हमले दिल्ली में हुए, जिसमें 2,700 से अधिक सिख मारे गए थे। हमलों की तैयारी 31 अक्तूबर से ही शुरू हो गई थी, लेकिन अगले दिन यानी 1 नवंबर की सुबह से हिंसा की लपटें तेज हा गई थीं।
कांग्रेस बचाती रही
दिल्ली के जंगपुरा, लाजपत नगर, डिफेंस कॉलोनी, फ्रेंड्स कॉलोनी, महारानी बाग, पटेल नगर, सफदरजंग एनक्लेव, सरस्वती विहार, पंजाबी बाग और नंद नगरी क्षेत्र में हुए हमले सबसे भीषण थे। हमलावर पेट्रोल, केरोसिन के अलावा धारदार हथियारों से लैस थे। हमलों से पहले सिखों के घरों की पहचान की गई, फिर चिह्नित घरों पर हमला किया गया। हमलावरों ने सिखों को खींच-खींच कर घर से निकाला और उनकी हत्या कर दी। कहीं सिखों को चाकुओं से गोदा गया, तो कहीं जिंदा जला दिया गया। महिलाओं तक को नहीं बख्शा गया। दरवाजे तोड़कर महिलाओं से मारपीट और घरों में लूटपाट की गई थी। यही नहीं, चलती गाड़ियों से सिखों को उतार कर उनकी हत्या की गई थी।
जिस हत्याकांड में सज्जन कुमार को उम्रकैद की सजा हुई है, वह दिल्ली के सरस्वती विहार क्षेत्र का है। सज्जन कुमार के उकसाने पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं की भीड़ ने जसवंत सिंह और उनके पुत्र तरुणदीप सिंह को जिंदा जलाकर मार डाला था। भीड़ ने जसवंत सिंह की पत्नी और भतीजी पर भी हमला किया था। दोनों इस हत्याकांड की चश्मदीद गवाह थीं। दोनों ने हमलावरों को दंड दिलाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी।इस दौरान जसवंत सिंह की पत्नी का तो निधन हो गया, पर भतीजी बलबीर कौर ने लड़ाई जारी रखी। इस वीभत्स हत्याकांड के समय वह 15 वर्ष की थीं। अब वे 55 वर्ष की हैं। यानी 40 साल बाद न्याय मिला। अदालत जब सजा सुना रही थी, तब उन्होंने सज्जन कुमार को फांसी देने की मांग की थी।
नाम दिया ‘हिंदू-सिख दंगा’
1984 की उस हिंसा में शामिल सज्जन कुमार के खिलाफ 3 मामले दर्ज हुए थे। इनमें एक 5 सिखों की हत्या के लिए भीड़ को उकसाने का था, जिसमें पहले ही उन्हें उम्रकैद की सजा मिल चुकी है। अब दूसरे मामले में भी उन्हें उम्रकैद की सजा हुई है। इन 40 वर्षों में कांग्रेस और उसकी सरकारों ने न केवल सिखों की हत्या के मामलों को दबाने की कोशिश की, बल्कि आरोपियों को बचाने के लिए भी पूरा जोर लगाया। इस क्रम में सबसे पहले इस नरसंहार को ‘दंगा’ नाम दिया गया। लेकिन दंगा वह होता है, जिसमें दो पक्ष हिंसा पर उतारू हों। 1984 की हिंसा तो एकतरफा थी। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने झुंड में सिखों पर सीधे-सीधे हमला किया था।
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, दिल्ली में कुछ हमलावरों के हाथ में मतदाता सूचियां थीं, जिनसे सिखों के नाम निकाले गए, फिर उनके घरों की पहचान कर हमला किया गया। हिंसा के दौरान जब हमलावर नारे लगाते हुए सड़कों पर घूम रहे थे, तब पुलिस का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं था। ऐसा सरकार के दबाव से ही संभव था। मारपीट और तोड़-फोड़ की सैकड़ों घटनाओं की शिकायतें तो दर्ज ही नहीं की गईं। हत्या और लूटपाट जैसे मामले दर्ज भी किए गए तो अधिकांश में आरोपियों के नाम नहीं लिखे गए। आरोपियों को ‘अज्ञात’ बताकर केवल खानापूर्ति की गई। जिन घटनाओं में पीड़ित परिजनों ने नाम सहित रिपोर्ट लिखवाई, उनमें आरोपियों ने विसंगतियों का लाभ उठाया और सुनवाई के दौरान बरी हो गए। अनेक स्थानों पर एफआईआर में भीड़ को ‘हिंदू’ लिखा गया, जबकि उसे ‘कांग्रेसी’ लिखा जाना चाहिए था।
हमलावरों को बचाने का प्रयास
सिखों के नरसंहार की दोषी असल में कांग्रेस पार्टी है। छोटे से लेकर बड़े तक, कांग्रेस का एक-एक कार्यकर्ता इसमें शामिल था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, तब उन्होंने हमलावरों का सीधा-सीधा बचाव किया था। 19 नबंवर, 1984 को एक जनसभा में उन्होंने कहा था, ‘जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है।’ उनका यह बयान न केवल असंवेदनशील था, बल्कि हिंसा को भी जायज ठहराने वाला था। उनके बयान को भाजपा ने अनुचित बताते हुए कहा था कि यह पीड़ित परिवारों के घावों पर नमक छिड़कने जैसा है।
तब पूरी कांग्रेस राजीव गांधी के बचाव में उतर आई थी। कांग्रेस ने सिखों पर हमला करने के आरोपी कार्यकर्ताओं को बचाने के लिए पूरी समझ और शासन की शक्ति का उपयोग किया। समय के साथ इन सामूहिक हत्याकांड की जांच के लिए कई जांच आयोग और समितियां बनीं, लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। उल्टे न्याय प्रक्रिया लंबी हो गई, जिसका लाभ आरोपियों को मिला। वे खुली हवा में सीना ताने घूमते रहे। इतना समय बीत गया कि अनेक आरोपी अपनी आयु पूरी करके शान के साथ संसार से विदा भी हो गए। पीड़ित परिवारों के सैकड़ों प्रत्यक्षदर्शी भी न्याय की आस में दम तोड़ गए।
अब टाइटलर की बारी

सिख नरसंहार में अब कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर की सजा की बारी है। टाइटलर पर दिल्ली के पुल बंगश गुरुद्वारा के पास भीड़ को सिखों की और उनकी दुकानें लूटने के लिए उकसाने का आरोप है। इसमें 3 सिख मारे गए थे। टाइटलर भी कांग्रेस सरकार में मंत्री रह चुके हैं। राउज एवेन्यू कोर्ट ने अगस्त 2024 में टाइटलर पर आरोप तय करने का आदेश दिया था। उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत हत्या, हिंसा और सिखों की दुकानें लूटने के लिए उकसाने सहित कई आरोपों में पर्याप्त सबूत हैं। सीबीआई द्वारा दाखिल आरोपपत्र में कहा गया है कि टाइटलर ने दंगाइयों को आश्वासन दिया था कि उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जाएगी। इसके बावजूद नवंबर 2007 में सीबीआई ने टाइटलर के खिलाफ सभी मामले बंद कर दिए थे।
एक अन्य कांग्रेस नेता हरिकिशन लाल भगत पर भी हिंसा में सक्रिय भूमिका निभाने का आरोप था। नानावटी आयोग की रिपोर्ट में इसका उल्लेख किया गया था कि पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस सांसद भगत और त्रिलोकपुरी के कांग्रेस नेताओं रामपाल सरोज और डॉ. अशोक ने सिख विरोधी हिंसा में सक्रिय भूमिका निभाई थी। भगत पर दो मुकदमे चले, लेकिन वे सजा से बच गए। एक मामले में मुख्य गवाह पलट गया, जबकि दूसरे में भगत के अल्जाइमर से पीड़ित होने के कारण सुनवाई नहीं हुई। हिंसा के भगत का राजनीतिक कॅरियर आगे बढ़ा और वे राजीव गांधी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने।
सत्ता सुख भोगते रहे कांग्रेस के दागी नेता
कांग्रेस नेतृत्व ने सिख नरसंहार के आरोपियों को न केवल बचाया, बल्कि उन्हें पुरस्कृत करते हुए प्रतिष्ठित पदों पर बैठाया। बाद के वर्षों में कोई मुख्यमंत्री बना तो कोई केंद्रीय मंत्री। सज्जन कुमार भी सांसद बने और संगठन के महत्वपूर्ण दायित्व पर रहे।
कांग्रेस के शीर्ष परिवार के करीबी रहे दागी कद्दावरों ने खूब सत्ता सुख भोगा है। उनमें कमलनाथ भी हैं, जिन्हें एक बार इंदिरा गांधी ने अपना तीसरा बेटा कहा था। संजय गांधी के करीबी रहे कमलनाथ ने आपातकाल के दौरान अहम भूमिका निभाई थी। उस समय यह नारा खूब चला था, ‘‘इंदिरा के दो हाथ, संजय गांधी और कमलनाथ।’’ इन्हीं कमलनाथ पर सिखों की हत्या के लिए भीड़ को उकसाने का भी आरोप है, जो 1991 से सभी कांग्रेस सरकारों में केंद्रीय मंत्री और बाद में मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री भी रहे। हालांकि हिंसा में उनकी भूमिका को लेकर कुछ प्रश्न अनुत्तरित हैं, जिनके उत्तर खोजने पर सिख नरसंहार के पीछे के उच्च स्तरीय षड्यंत्र उजागर हो सकते हैं।
When A Tree Shook Delhi: The 1984 Carnage And Its Aftermath पुस्तक के लेखक और वरिष्ठ अधिवक्ता एचएस फुल्का सिख नरसंहार में कमलनाथ की भूमिका के बारे में लिखते हैं- ‘‘रकाबगंज गुरुद्वारे के सामने भीड़ के साथ दो घंटे बिताने, गंभीर हालत में पड़े दो सिखों की मदद के लिए कुछ न करने, भीड़ और पुलिस को लक्षित समुदाय के खिलाफ अपनी शत्रुता जारी रखने की अनुमति देने के बाद कमलनाथ स्पष्ट रूप से समस्या का हिस्सा थे, समाधान का नहीं।’’ बता दें कि फुल्का नागरिक न्याय समिति के संयोजक थे, जिसने मिश्रा आयोग के समक्ष पीड़ितों का प्रतिनिधित्व किया था। उन्होंने नानावटी आयोग के समक्ष सभी कार्यवाहियों में नरसंहार न्याय समिति की कानूनी टीम का भी नेतृत्व किया था।
भाजपा शासन में बंधी आस
साल दर साल बीतता गया और पीड़ित परिवार न्याय के लिए टकटकी लगाए रहे। दिल्ली में 5,000 से अधिक सिख घरों पर हमले हुए थे और 2,733 सिखों की निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई थी। घायलों की संख्या भी लगभग 10,000 थी। इन हमलों और हत्याओं के लिए 587 एफआईआर दर्ज हुई थी। इनमें 240 मामलों में आरोपी ‘अज्ञात’ थे। सबूतों के अभाव में लगभग 250 मामलों में आरोपी दोषमुक्त हो गए। 25 वर्ष बीतने के बाद भी किसी आरोपी को सजा नहीं मिल सकी। बाद में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी तो 2000 में न्यायमूर्ति नानावटी की अध्यक्षता में एक जांच आयोग का गठन किया गया।
इसके बाद पीड़ितों के मन को यह उम्मीद बंधी कि उन्हें न्याय मिलेगा। लेकिन वाजपेयी सरकार के रहते आयोग की रिपोर्ट न आ सकी। जब आयोग की रिपोर्ट आई, तब मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पुन: कांग्रेस केंद्र की सत्ता पर आरूढ़ हो चुकी थी। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग 1 और 2 सरकारों के दौरान जांच और अभियोजन को फिर से ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। भाजपा एवं अन्य विपक्षी दलों की मांग पर आखिरकार आयोग की रिपोर्ट आई। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में 1984 के सिख विरोधी हिंसा में पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाए और कांग्रेस के अनेक नेताओं को स्पष्ट दोषी माना। साथ ही, आयोग ने कहा कि इस हिंसा में राजनीतिक समर्थन के स्पष्ट प्रमाण थे।
आयोग ने सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर सहित कई कांग्रेसी नेताओं की संलिप्तता का भी स्पष्ट उल्लेख किया। इसके बाद आरोपियों के विरुद्ध कार्रवाई तो शुरू हुई, लेकिन उसकी गति धीमी रही, जिसका लाभ आरोपियों को मिला। नानावटी आयोग की रिपोर्ट से पहले उनकी पद प्रतिष्ठा पर कोई अंतर नहीं आया था। आयोग की सिफारिश के बाद ही मामला सीबीआई को सौंपा गया था। इसके बाद 2010 में सज्जन कुमार पर तीन मामले दर्ज किए गए। लेकिन 2013 में जिला अदालत ने सज्जन कुमार को दोषमुक्त कर दिया।
इसी दौरान 2014 में फिर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनी तो दोषियों को सजा दिलाने के लिए कदम उठाए गए। सरकार की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में प्रार्थना की गई। 2015 में सरकार ने मामलों को फिर से खोलने के लिए एक एसआईटी गठित की। सीबीआई ने जिला अदालत के फैसले को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी। भाजपा सरकार की अपील पर ही 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने 199 प्रकरणों की जांच के लिए एसआईटी गठित की थी। एसआईटी ने जांच के बाद 54 मामलों में 426 लोगों की हत्या और 31 मामलों में 80 लोगों के गंभीर रूप से घायल होने की बात कही। अन्य 114 मामले आगजनी, लूटपाट और हमले के थे, जो अभी विचाराधीन हैं।
एसआईटी की मदद से ही 17 दिसंबर, 2018 को उच्च न्यायालय ने सज्जन कुमार और पूर्व कांग्रेस पार्षद बलवान खोखर सहित 4 लोगों को आजीवन कारावास और 2 अन्य को 10 साल कैद की सजा सुनाई थी। सज्जन कुमार को अब तक दो मुकदमों में उम्रकैद हुई है, जबकि दिल्ली के सुल्तानपुरी में 3 सिखों की हत्या के मामले में सितंबर 2023 को बरी किया जा चुका है।
सज्जन कुमार राजनीति में आपातकाल के दौरान सक्रिय हुए थे और संजय गांधी के करीबी रहे। 1977 में पार्षद बने और 1980 में बाहरी दिल्ली से लोकसभा चुनाव जीते। जिस समय इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, उस समय सज्जन कुमार सांसद थे। उन पर दिल्ली के दर्जनभर स्थानों पर सिखों पर हमले के लिए कार्यकर्ताओं को उकसाने का आरोप है।
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