सोशल मीडिया सामाजिक संवाद का सशक्त माध्यम बन गया है, लेकिन समाज एक्स, फेसबुक, यूट्यूब जैसे माध्यमों का दुरुपयोग भी देख रहा है। हाल ही में यूट्यूबर रणवीर इलाहबादिया के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने जो कहा, वह संवाद के सामाजिक माध्यमों के अनियंत्रित उपयोग के प्रति स्पष्ट रूप से आगाह करता है। ‘कॉमेडी शो’ में रणवीर ने शब्दों की मर्यादा लांघते हुए जो कहा, उससे पारिवारिक संबंधों के प्रति दृष्टिकोण का निकृष्ट स्वरूप सबने महसूस किया। इसीलिए उसका चौतरफा विरोध हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी स्वरूप में पूरे विषय को आगे बढ़ाया है।
प्रश्न इससे बड़ा है, लेकिन आशंका इससे भी कहीं गहरी है। अक्सर सड़कों पर धरनों, विरोध-प्रदर्शनों के नाम पर जाम लगता है तो शहरों की व्यवस्था चरमरा जाती है, ये सभी जानते हैं। देश की राजधानी में नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) के विरोध में धरने-प्रदर्शन और कृषि विधेयकों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर धरना, इसके सबसे बड़ा उदाहरण हैं। लेकिन इन विरोध प्रदर्शनों की परिणति क्या हुई? दिल्ली में दंगे और लालकिले के सामने अराजकता के नंगे नाच को पूरी दुनिया ने देखा। तो क्या रणवीर ने जिन शब्दों को कॉमेडी शो के ‘गेस्ट-जज’ के रूप में भारत की नई पीढ़ी के सामने रखा, शब्दों और गंदगी भरे मानस की अनियंत्रित अराजकता कहीं वैसा ही कोई प्रयोग तो नहीं! यह सिर्फ सोशल मीडिया में प्रसिद्धि पाने और अनगिनत प्रशंसक आकर्षित करने की लालसा तो बिल्कुल नहीं हो सकती।
पश्चिमी शक्तियां लंबे समय से भारतीय समाज, भारतीय संस्कृति और परंपरा को निशाना बनाती रही हैं। इसलिए रणवीर इलाहाबादिया की इस हरकत को षड्यंत्र की दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए, क्योंकि बीते कुछ वर्षों से बाहरी शक्तियां सोशल मीडिया माध्यमों के जरिये लगातार भारतीय समाज को बांटने और भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर हमले कर रही हैं। गत लोकसभा चुनाव से लेकर दिल्ली विधानसभा चुनाव, सम्भल, अयोध्या में राम मंदिर और प्रयागराज में महाकुंभ तक में दुष्प्रचार के प्रयास साफ-साफ दिखे हैं। यह सब देखते हुए यह आशंका स्वाभाविक है कि देश के कुछ नवोदित सोशल मीडिया ‘इन्फ्लुएंसर’ के जरिये विदेशी शक्तियां पांव पसारने का प्रयास तो नहीं कर रही हैं। उदाहरण के लिए, ध्रुव राठी और जुबैर अहमद जैसे लोग फर्जी खबरों के जरिये ऐसे प्रयास करते रहते हैं।
क्या रणवीर या उसके जैसे कुछ यूट्यूबर भारतीय समाज को पश्चिमी मानसिकता में ढालने के प्रयासों में जुटे हैं? क्या भारतीय परिवार-संस्कार को कमजोर करने के लिए उन्हें कोई निर्देशित कर रहा है? यह स्पष्ट है कि इसके पीछे एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरा इकोसिस्टम काम कर रहा है। कोई इसकी पटकथा लिख रहा है, तो कोई उस पर बनने वाले कार्यक्रमों का निर्देशन, जिसका निर्माण कहीं और हो रहा है और प्रसारण कहीं और। सामूहिक रूप से ऐसी न जाने कितनी सामग्री तैयार हो रही है।
भारत की कुटुम्ब व्यवस्था पर अराजकता का यह प्रहार चाहे विदेशी टीवी शो की नकल के चक्कर में गलती से हुआ हो या फिर जानबूझकर किया गया प्रयोग हो, इसका क्या परिणाम होगा, उसका विश्लेषण कर उपचारात्मक कदम उठाना आवश्यक है। नासमझी मान कर इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती, क्योंकि मामला सिर्फ शो की टीआरपी और फॉलोअर बढ़ाने तक सीमित नहीं है।
गत 8 फरवरी को यूट्यूब पर रिलीज होने वाले शो में रणवीर ने जो कुछ कहा, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने बेहद आपत्तिजनक माना है। न्यायालय ने सख्त शब्दों में कहा, ‘‘रणवीर के दिमाग में गंदगी भरी है, उसकी भाषा बेटियों, बहनों, माता-पिता और समाज तक को शर्मिंदगी महसूस कराती है।’’ पहली ही सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय ने रणवीर के वकील अभिनव चंद्रचूड़ से यह पूछा कि रणवीर इलाहाबादिया की भाषा को अश्लील और अभद्र नहीं कहा जाएगा तो किसे कहा जाएगा? अश्लीलता और अभद्रता के क्या मानक हैं?
अश्लीलता की संवैधानिक व्याख्या क्या है? रणवीर ने जो कहा, क्या वह उस व्याख्या की परिधि में आता है, यह अब न्यायालय को तय करना है। साथ ही, यूट्यूब की नीति पर भी सवाल उठते हैं कि अश्लीलता और अभद्रता को मापने का उसका पैमाना क्या है? यह भी तय होना है कि क्या शो के संचालक रैना ने भी यूट्यूब की नीतियों का उल्लंघन किया है? सवाल तो और भी हैं। जैसे-भारत में फेसबुक, इंस्टाग्राम और एक्स जैसे सोशल मीडिया मंच क्या भारतीय परंपराओं और मर्यादाओं के प्रति संवेदनशील हैं? ऐसे किसी मामले में सोशल मीडिया कंपनियां क्या कदम उठाती हैं? ऐसी किसी सामग्री पर उनकी कोई प्रतिक्रिया होती भी है या नहीं? ये सब भी इस बार न्यायालय में विषय बन सकते हैं।
मनोरंजन के नाम पर फिल्मों में भारतीयता के विरुद्ध नैरेटिव दशकों से चल रहा है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। अब इसमें सोशल मीडिया और ओटीटी भी जुड़ गए हैं। इनका एक ही उद्देश्य है-भारत के मूल स्वरूप को तहस—नहस करना। भारतीय परिवार के एकात्म स्वरूप का बाजारीकरण करना ही इनका काम है। कोई भी नियंत्रण इस मानसिकता के पालकों को अस्वीकार है। कभी लोकतंत्र के नाम पर, कभी संविधान प्रदत्त अधिकारों के नाम पर तो कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ये सिर्फ अराजकता ही फैला रहे हैं। सरकार ने फिल्मों, कार्यक्रमों में परोसी जाने वाली फूहड़ता और अश्लीलता को रोकने के लिए व्यवस्था बनाई है। साथ ही, समाज से उठने वाली शिकायतों पर भी सरकार नीतियां बनाती है और दिशानिर्देश जारी करती रहती है। अब चूंकि यह मामला न्यायालय में है और उसने केंद्र सरकार और दोनों संबंधित राज्यों से उनका पक्ष भी जानना चाहा है, तो उम्मीद बंधी है कि सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्मों का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होगा।
भारत में आज भी संयुक्त परिवार की परंपरा है। संस्कारों की पहली पाठशाला मां के साथ पूरा संयुक्त परिवार होता है। यहां आज भी भाई अपनी बहन की रक्षा का वचन लेता है, पति के लिए पत्नी करवाचौथ का व्रत रख कर उसकी दीर्घायु की कामना करती है, पुरुष पूरे परिवार की रक्षा और भरण-पोषण का दायित्व निर्वहन करता है। भले ही वृद्धाश्रम के चलन की चर्चा समाज में सोशल मीडिया या मुख्य धारा के मीडिया के माध्यम से होती रहे, कुछ मामलों में दुर्घटनाएं हुई भी हैं, मगर आज भी भारतीय समाज में माता-पिता का स्थान सर्वप्रथम ही माना जाता है। आपसी संवाद में आयु के कारण कुछ अंतर दिख सकते हैं, पर वह स्वाभाविक है। इसीलिए तो यहां मातृ दिवस या पितृ दिवस की आवश्यकता नहीं होती। परिवार नाम की संस्था का विचार भारतीय संस्कारों में है, जहां संवाद कितना भी और कैसा भी होता रहे, परिवार नाम की इस इकाई पर कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसे परिवारों में संस्कारों का अभाव युवा पीढ़ी में कभी नहीं दिखता।
ऐसे में यहां रणवीर जैसे पेशेवर यूट्यूबर को ऐसा कैसे लगा कि वह जो कहेगा भारत की युवा पीढ़ी उसे वैसे ही स्वीकार कर लेगी? सोशल मीडिया पर मिलने वाले लाइक्स, व्यूज और फॉलोइंग दिमाग की उड़ान को कौन से आसमान पर ले गई होगी, जिसने भारतीय सामाजिक व्यवस्था के मूल के विरुद्ध इस तरह की सोच भी जाग्रत होने दी। रणवीर, समय और अपूर्वा जैसे असंख्य युवा यूट्यूबरों के लिए यह मामला इस बार बड़ा सबक देकर जाने वाला है।
यहां एक और बात का उल्लेख आवश्यक है। विश्व को अराजकता के रूप में एक नया बाजार मिल गया है। छोटे-छोटे प्रयोगों से यह स्पष्ट हो गया है कि यह बाजार न सिर्फ शीघ्र परिणाम देता है, बल्कि आक्रामक भी है। यह नया बाजार है युवा। युवा मन के विध्वंसकारी पासे का असीमित प्रयोग हाल ही में बांग्लादेश में हुआ। उसकी कुछ झलक बिहार और दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में भी दिखाई दी। जैसे गांजे से मन को सुन्न करके अपने वश में कर लिया जाता है, कहीं आज की पीढ़ी को भी इस अराजकता से बर्बाद करने का यह किसी नैरेटिव का भाग तो नहीं? यह किसी ऐसे षड्यंत्र की एक शुरुआत भी हो सकती है।
इसीलिए इस विषय को पूरी संवेदनीलता के साथ समझते हुए आगे बढ़ना होगा। सोशल मीडिया पर शाब्दिक अराजकता के इस खेल को यहीं रोकने के पक्षधरों को मिलकर उपाय करने होंगे।
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