साक्षात्कार

‘जनहित और विकास के लिए एक साथ चुनाव आवश्यक’

‘देश में एक साथ चुनाव’ सत्र में पाञ्चजन्य की सलाहकार संपादक तृप्ति श्रीवास्तव ने केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान से बातचीत की

Published by
पाञ्चजन्य ब्यूरो

पाञ्चजन्य की स्थापना के 78वें वर्ष पर दिल्ली के ‘दि अशोक होटल’ में आयोजित ‘बात भारत की : अष्टायाम’ कार्यक्रम का आयोजन किया गया। ‘देश में एक साथ चुनाव’ सत्र में पाञ्चजन्य की सलाहकार संपादक तृप्ति श्रीवास्तव ने केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान से बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसके प्रमुख अंश-

एक साथ चुनाव को लेकर बड़ा फैसला होने वाला है, जिसकी लोग प्रतीक्षा भी कर रहे हैं। देश में इसकी आवश्यकता क्यों है? इससे देश को क्या फायदा होगा?
मैं सबसे पहले पाञ्चजन्य को धन्यवाद दूंगा। देश में एक साथ चुनाव का विमर्श सबसे पहले पाञ्चजन्य ने ही प्रारंभ किया था। आज आप देख रहे हैं कि इस पर ड्राफ्ट भी तैयार है और संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) विचार भी कर रही है। लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन है और यह चुनाव के माध्यम से ही हम करते हैं। संविधान निर्माताओं ने यह सोचकर चुनाव की कल्पना की थी कि एक निश्चित अवधि के बाद चुनाव होंगे। इस तरह तय हुआ कि देश में 5 वर्ष में चुनाव होंगे। जनता नई सरकार, प्रतिनिधि चुनेगी और फिर पांच साल के बाद चुनाव होंगे। उस समय उनके दिमाग में यह नहीं आया था कि धारा 356 का इतनी बार दुरुपयोग होगा।

देश में 1967 तक विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ होते थे। 1967 के पहले तो कांग्रेस की ही सरकार हुआ करती थी। जब अन्य दलों की सरकारें सत्ता में आने लगीं तो उन्हें भंग करने का सिलसिला शुरू हुआ। राज्यों की विधानसभाएं इतनी बार भंग की गई कि अब देश में और कोई काम हो या न हो, हर राजनीतिक दल पांच साल, 12 महीने, 365 दिन चुनाव की तैयारी में लगा रहता है।

शिवराज सिंह चौहान से बातचीत करतीं तृप्ति श्रीवास्तव

अभी आप देख लीजिए पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में चुनाव हुए और उसके तीन महीने पहले आचार संहिता लग गई। इसके बाद कोई काम नहीं हो सका। सारे काम ठप हो गए। फिर चार महीने बाद जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई तो फिर सारे काम ठप हो गए। यानी लगभग एक साल कोई काम नहीं हुआ। केवल चुनाव की तैयारी चलती रही। लोकसभा के चुनाव खत्म नहीं हुए कि चार महीने बाद जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड में चुनाव की घोषणा हो गई। लोकसभा चुनावों की थकान अभी उतरी भी नहीं थी और राजनीतिक दलों के योद्धा कमर कस कर इन चुनावों के लिए रवाना हो गए। अब आप देखेंगे कि वे चुनाव खत्म नहीं हुए कि अब दिल्ली में चुनाव का दंगल शुरू हो गया। फिर बिहार में चुनाव की तैयारी शुरू हो जाएगी। हम राजनीतिक दलों के सारे नेता क्या कर रहे हैं, एक ही काम,चुनाव की तैयारी। इस तरह जनता के हित और विकास के कामों की प्राथमिकता बचती नहीं है, सिर्फ चुनाव जीतना है।

आप एक बार सोचकर देखिए, चाहे प्रधानमंत्री हों, केंद्रीय मंत्री हों, राज्य के मुख्यमंत्री-मंत्री या किसी भी दल की सरकार हो, एक राज्य में चुनाव का शंखनाद हुआ नहीं कि सब कुछ छोड़कर चुनाव में लग जाते हैं। अब कृषि मंत्री कृषि का काम छोड़कर एक राज्य के चुनाव प्रचार में व्यस्त है। इसमें कितना समय बर्बाद होता है। दूसरी बात, प्रशासनिक अधिकारी भी चुनाव में लग जाते हैं। आचार संहिता के कारण न तो कोई नई घोषणा हो पाती है और न ही विकास कार्य। सब ठप हो जाता है, सिर्फ चुनाव की तैयारियां चलती रहती हैं। संबंधित राज्य के मंत्री और अधिकारी तो इसमें लगे ही रहते हैं, चुनाव आयोग दूसरे राज्यों के प्रशासनिक अधिकारियों को पर्यवेक्षक बनाकर दूसरे राज्य में चुनाव कराने के लिए भेज देता है। उनके जाने पर दो-तीन महीने के लिए काम बंद हो जाता है, क्योंकि प्रशासनिक मशीनरी चुनावों में लग जाती है। शिक्षक क्या कर रहे हैं? पढ़ाने की बजाय मतदाता सूची बनवा रहे हैं। पुलिस चुनाव व्यवस्था में लगी रहती है।

यहां तक कि वैज्ञानिकों की भी चुनाव में ड्यूटी लगा दी जाती है। पूरी मशीनरी अपना काम छोड़कर चुनाव में लग जाती है और कोई काम नहीं होता। देश का कितना पैसा खर्च होता है? हर चुनाव के लिए खजाने से व्यवस्था की जाती है और फिर राजनीतिक दल भी खर्च करते हैं। उम्मीदवारों का खर्च अलग। उम्मीदवार के लिए तो खर्च की सीमा तय कर दी गई है, लेकिन कोई राजनीतिक दल कितना खर्च करेगा, उसकी कोई सीमा नहीं है। राजनीतिक दल पैसा कहां से लाएगा? हरेक पार्टी पहुंच जाती है चंदा लेने। ये सब किसका पैसा है?

इस तरह लगातार चुनाव में भारी-भरकम खर्च होता है। कानून-व्यवस्था संभालने और अपराधियों को पकड़ना छोड़कर पुलिस, अर्ध सैनिक बल केवल चुनाव कराते रहते हैं। फिर पार्टियां बड़े नीतिगत फैसले नहीं ले पातीं और राष्ट्रहित व जनहित के बड़े फैसले टाल दिए जाते हैं। विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव, फिर निकाय चुनाव, उसमें भी शहरी और ग्रामीण, यह क्या है? हर चार-चार महीने बाद चुनाव से जनता भी ऊब जाती है। क्या देश में चुनाव के अलावा कुछ नहीं होना चाहिए? इसलिए संविधान निर्माताओं ने बिल्कुल ठीक सोचा था कि हर पांच साल में चुनाव होंगे। आज देश की प्रगति और विकास में लगातार होने वाले चुनाव सबसे बड़े बाधक हैं।

जनकल्याण में भी सबसे बड़ी बाधा हैं। इसलिए आज की परिस्थितियों को देखते हुए मैं पाञ्चजन्य को फिर से बधाई दूंगा कि इसने सबसे पहले इसे पहचाना और देश में बहस शुरू की। मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को भी धन्यवाद देना चाहता हूं, जिनके लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि है। उन्होंने यह पहल की कि संपूर्ण देश में एक साथ चुनाव होना चाहिए। प्रत्येक पांच साल में चुनाव हो, ताकि साढ़े चार साल जनता के कल्याण और विकास के काम हो सकें।

शिवराज सिंह चौहान को सम्मानित करते भारत प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अरुण कुमार गोयल एवं (बाएं) रतन शारदा

चुनावों में सुरक्षा बलों की जिम्मेदारियां बढ़ जाती है, प्रशासन की जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। क्या एक देश एक चुनाव को विपक्षी दल समर्थन देंगे? अगर नहीं देंगे तो यह कैसे लागू होगा?
पहली बात, एक साथ चुनाव का मतलब यह नहीं कि पूरे देश में एक ही तारीख को चुनाव होंगे। जिस तरह आज लोकसभा के चुनाव अलग-अलग चरणों में होते हैं, सुरक्षा के मद्देनजर एक साथ चुनाव भी विभिन्न चरणों में कराए जा सकते हैं। दलों की उपलब्धता के आधार पर चुनाव आयोग यह निर्णय ले सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। इस तरह लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक-दो माह में कराए जा सकते हैं। रही बात विपक्षी पार्टियों की, तो आप किसी भी राष्ट्रभक्त से पूछ लीजिए, जनहित के बारे में जो सोचता है, उससे पूछ लीजिए, वह ईमानदारी से यही कहेगा कि हमेशा होने वाले चुनाव देश की तबाही का कारण बन गए हैं। सभी राजनीतिक दलों को यह सोचना चाहिए कि क्यों रोज चुनाव में लगें? सरकार भी कोशिश करे कि सहमति बने। मैं तो यह कहता हूं कि यह जन आंदोलन, जन अभियान बने जैसे पाञ्चजन्य ने यह विषय उठाया, उस पर देश में चर्चा हो। जब जन अभियान बनेगा, तब सभी राजनीतिक दल निश्चित तौर पर विचार करके साथ आएंगे।

 जब एक साथ चुनाव होंगे तो राजनीतिक दलों के सामने चुनौतियां भी होंगी। जब सारे नेता देशभर में प्रचार के लिए निकलेंगे, तो क्या योजना होगी, क्या प्राथमिकताएं होंगी? किस तरह की रणनीति होगी?
लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होंगे तो स्टार प्रचारक पूरे देश में प्रचार करें न, कौन मना कर रहा है। आपके पास जो समय है, उसमें आपको विधानसभा के साथ-साथ लोकसभा के बारे में भी भाषण देना चाहिए। जनता इतनी परिपक्व है कि एक तरफ तो वह लोकसभा में एक पार्टी को वोट देती है, दूसरी तरफ विधानसभा में दूसरी पार्टी को वोट देती है। उनके लिए प्रधानमंत्री की अलग पसंद है और मुख्यमंत्री के लिए अलग। यह बात कई चुनावों में साबित हो चुकी है। इस बार को अगर छोड़ दिया जाए, तो ओडिशा में एक साथ चुनाव हुए। उसमें भी विधानसभा के लिए पसंद अलग थी। स्टार प्रचारक देश भर में जा सकते हैं। आजकल तो इसकी बाध्यता भी नहीं रही कि संबंधित क्षेत्र में जाकर ही प्रचार किया जाए। आप अपनी बात कहीं से भी कह सकते हैं। आजकल तो जनता रैलियों की बजाय टीवी पर भी बहस सुनती है। आम सभाओं का सीधा प्रसारण होता है। जनता इससे भी उनके विचार समझ लेती है।

आजकल एक चलन शुरू हो गया है कि चुनाव हारने के बाद विपक्षी दल चुनाव आयोग पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। एक साथ चुनाव होने पर क्या चुनाव आयोग की चुनौतियां नहीं बढ़ जाएंगी?
मैं समझता हूं कि चुनौतियां और कम हो जाएंगी। अभी तो यह हो रहा है कि लोकसभा से लेकर निकाय चुनाव तक अलग-अलग स्तर पर मतदाता सूची बनती है। एक साथ चुनाव होंगे तो एक ही मतदाता सूची से काम चल जाएगा। इससे चुनाव आयोग की समस्या और कम हो जाएगी। पांच साल में एक बार चुनाव होगा तो जनता का उत्साह चरम पर होगा। चुनाव आयोग भी नवाचार के बारे में सोच सकेगा।

 एक साथ चुनाव होने से मतदाता के बीच कोई दुविधा उत्पन्न न हो, इसके लिए कोई रणनीति बनी है?
भारत लोकतंत्र की जननी है। यहां तो प्राचीन समय से गणराज्य की कल्पना है। हमारे यहां लिच्छवियों से लेकर अलग-अलग गणराज्य रहे हैं। भारत की जनता इतनी परिपक्व रही है कि तब से लोकतंत्र को चुनती आ रही है। गांव में भी पंच परमेश्वर फैसला करते थे और उन्हें भी जनता ही चुनती थी। जहां तक दिल्ली की बात है तो इस बार जिन्होंने लोकसभा में वोट दिए हैं, वे विधानसभा में भी देंगे। जनता अपने आप तय कर लेती है कि उसे किस उम्मीदवार को वोट देना है। हमारे यहां दुनिया का सबसे परिपक्व लोकतंत्र है। मैं भारत की महान जनता को बारंबार प्रणाम करता हूं जिसके आशीर्वाद से आज देश में लोकतंत्र चल रहा है और इसका उदाहरण पूरी दुनिया में दिया जाता है।

यदि यह व्यवस्था पूरे देश में लागू हो जाती है तो क्या भारत पूरी दुनिया में एक मॉडल के रूप में उभरेगा?
पूरी दुनिया के सामने भारत आज भी आदर्श है, मॉडल है। हमने कई बार देखा है कि जनता कभी भी, किसी को बदल सकती है। 140 करोड़ की आबादी वाला यह महान देश, यहां की बुद्धिमान जनता कैसे फैसला करती है, उसे देश-दुनिया आश्चर्य से देखती है। मुझे यह कहते हुए गर्व है कि जब से नरेंद्र मोदी जी की सरकार आई है, तब से हमने धारा-356 का कभी भी दुरुपयोग नहीं किया। इंदिरा गांधी के समय पता नहीं कितनी बार सरकारें गिराई गईं। फिर कभी ऐसी स्थिति नहीं बनी कि केवल उतने ही कार्यकाल के लिए चुनाव हो। एक साथ चुनाव की परंपरा बनेगी तो दीर्घकालिक योजनाओं पर मजबूती से काम होगा। सरकारों को काम से कोई समझौता नहीं करना पड़ेगा। विकसित भारत के निर्माण में पूरे देश में एक साथ चुनाव मील का पत्थर साबित होगा।

एक साथ चुनाव का देश पर क्या आर्थिक प्रभाव पड़ेगा?
अभी तो सबसे बड़ी बात यह है कि लोकसभा के लिए अलग पैसा खर्च करो, विधानसभा के लिए अलग। एक साथ चुनाव होने से एक ही खर्च में दोनों चुनाव हो जाएंगे। चंदा देने वालों को भी बहुत राहत मिलेगी। इसमें फायदा ही फायदा है। पाञ्चजन्य ने जो महायज्ञ प्रारंभ किया है, उसकी बहुत जल्द पूर्णाहुति होगी। हमारा देश विचार करके फैसले लेता है। इसलिए अब पूरे देश में जगह-जगह से इसके लिए समर्थन मिल रहा है। मैं तो इस मंच के माध्यम से अपील करना चाहता हूं कि देश की जनता आगे आए और अपनी आवाज बुलंद करे कि संपूर्ण देश में एक साथ चुनाव होना चाहिए। सभी विधानसभाएं प्रस्ताव पारित करें कि एक साथ चुनाव होना चाहिए। मुझे पूरा विश्वास है कि इसके लिए जन दबाव बनेगा और सभी राजनीतिक दल एक साथ आकर इस संकल्प को पूरा करने के लिए आगे बढ़ेंगे।

Share
Leave a Comment