भारत

पाञ्चजन्य राष्ट्रीय विचार का सशक्त माध्यम और एकता की स्थापना का प्रेरणास्रोत : सुनील आंबेकर

पाञ्चजन्य की यात्रा काफी लंबी है और संक्षेप में यह राष्ट्रीय विचार की एक सतत यात्रा है और इसका जन्म एक मात्र उद्देश्य के साथ हुआ कि लोग भारत के बारे में कैसे समझें? भारत के बारे में जानें?

Published by
Mahak Singh

पाञ्चजन्य की 78वीं वर्षगांठ पर आयोजित कार्यक्रम “बात भारत की” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर जी ने “पाञ्चजन्य” पर अपने विचार साझा किए।

भारत की पहचान

पाञ्चजन्य की यात्रा काफी लंबी है और संक्षेप में यह राष्ट्रीय विचार की एक सतत यात्रा है और इसका जन्म एकमात्र उद्देश्य के साथ हुआ कि लोग भारत के बारे में कैसे समझें? भारत के बारे में जानें? और भारत के लिए काम करने की प्रेरणा पाएं, जिसका पूरा उद्देश्य भारत है, इसलिए अगर वो आज भारत के बारे में बात कर रहे हैं, तो किसी को ऐसा नहीं लगना चाहिए कि वो आज भारत के बारे में बात कर रहे हैं। मुझे लगता है कि पाञ्चजन्य का जन्म इसी काम के लिए हुआ और इसलिए शुरू से लेकर आज तक इसी एक धारा से यह काम निरंतर चल रहा है।

इसलिए, स्वाधीनता की पूरी यात्रा के बाद राष्ट्र जागरण का काम, क्योंकि इतने वर्षों के बाद जब कोई भी देश-विदेशी दास्ता से मुक्त होता है और आजादी की तरफ अपनी यात्रा शुरू करता है, तो मुझे लगता है कि उसमें बहुत वैचारिक उथल-पुथल होती है। विदेशी दास्ता के काल में बहुत सारे ऐसे विषय भी आए और जिन विषयों पर अपनी जो भारत उसके बारे में भ्रम उत्पन्न करने के प्रयास भी हुए। अपना राष्ट्र क्या है, भारत क्या है? इसके बारे में भी बहुत सारे भ्रम उत्पन्न करने के प्रयास हुए।

हमारी एकता के अस्तित्व पर भी बहुत सारे प्रश्न उठाए गए। इस बात पर भी सवाल उठाए गए कि हमारी एकता का आधार क्या होगा। अगर हम भारत के इतिहास पर नजर डालें तो यह हजारों साल पुराना है। इस पर प्रश्न उठा कि भारत का जन्म कब हुआ? परंतु ये राष्ट्र तो ऐसा हैं की जिसका कोई ऐसा तारीख नहीं हैं। कोई तिथि नहीं हैं की इस दिन उसका जन्म हुआ हो। ये तो एक मानव संस्कृति की ऐसी यात्रा हैं की जो प्रारंभ को हुई इसका ठीक से अंदाजा नहीं है। परंतु ये निश्चित है की यात्रा ने भारत के लिए और पूरे मानव जाति के लिए विश्व के लिए हमेशा कल्याण की बात की है और इसलिए इसका उद्देश्य ही कल्याण है। मुझे लगता है कि इस बात को ही एक अलग तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ था, जिसके कारण ये जो जीस बातों से भारत के प्रति स्वाभिमान उत्पन्न होता है, उन बातों पर भी आघात हुआ।

मुझे लगता है कि इस बात में ये बात जरूरी है और आज भी स्वाधीनता के 75 वर्ष के बाद भी आज जहाँ बहुत सारे लोग इसके बारे में स्पष्टता से समझने लगे हैं परंतु अभी भी ये यात्रा आगे बहुत समय तक चलनी होगी, चलानी होगी और इस पर बहुत सारी चर्चाएं होनी होगी। एक समय था अपने देश में देश के कुछ ऐसे हिस्से थे- उदाहरण के तौर पर कहा जाए तो हमारे देश का जो पूर्वोत्तर का हिस्सा है, वहाँ ये बात लगातार लगातार बताई गई कि आप कुछ अलग दिखते हो, आप अलग हो और ये बात केवल किसी यूनिवर्सिटी के क्लासरूम तक सीमित नहीं रही या किसी के पीएचडी थीसिस तक या किसी मीडिया के फ्रंट पेज तक सीमित नहीं रही। यह बात लोगों के मन में, उनके जीवन में घर कर गई और इसका परिणाम यह हुआ कि अलगाववादी, हिंसक और भारत की प्रगति के खिलाफ कई आंदोलन हुए और यह सिर्फ पूर्वोत्तर में ही नहीं बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी हुआ। ये दूर होने चाहिए और हमारे अंदर जो एकता के सूत्र हैं की कौन सी ऐसी बातें हैं जिनसे हम जुड़े हुए हैं?
उन बातों की स्पष्टता करने का जो काम था वो सतत रूप से बहुत सारे राष्ट्रीय माध्यमों से हुआ, जिसमें पाञ्चजन्य की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण रही।

अगर हम ये जांचना चाहते तो आज समझ में आता है कि पूरे देशभर में पूर्वोत्तर में आज इसके बारे में एक सामान्य रूप से यह धारणा बन गई है कि यह बात जो हमें बताई जा रही थी, वह गलत है। वह झूठी थी, उसका कोई आधार नहीं था और उसका उद्देश्य या इंटेंशन भी सही नहीं था और इसलिए ये बात समझने के कारण ही वहाँ का वातावरण बदला है। देशभर में, देश के अन्य हिस्सों में भी इसके बारे में धारणाएं ठीक होती चली गई और परिणाम ये है की आज से 5 साल पहले अगर हम समाचार पत्रों को देखेंगे तो पाञ्चजन्य छोड़कर बाकी बहुत सारी जगहों पर ऐसे समाचार आते थे की दिल्ली के किसी क्षेत्र में किसने नॉर्थ ईस्ट के बारे में क्या कहा, जिसके कारण वहाँ क्या लोगों को भ्रम उत्पन्न हुआ और उसके कारण कैसा संघर्ष बढ़े इसके बारे में बहुत सारी ऐसी उल्टी सीधी बातें हमको देखने को मिलती हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ये प्रयास, ये जागरूकता इस स्तर पर पहुंची है कि आजकल, पिछले कुछ वर्षों में, ऐसी खबरें, ऐसी घटनाएं देखने को नहीं मिलती हैं, न ऐसी खबरें आती हैं। न ही इन मामलों पर ऐसी कोई बेतुकी बातें हो सकती हैं और इसका मुख्य कारण यह है कि देशभर में लोगों में जो जागरूकता आई है, उसके परिणामस्वरूप यह संभव हो पाया है।

महाकुंभ और हमारे सांस्कृतिक प्रतीक

महाकुंभ का आयोजन 12 वर्ष में एक बार एक स्थान पर होता है और मुझे लगता है कि इससे हमारे समाज की मानसिक स्थिति अगले 12 वर्षों के लिए मजबूत होती है और इससे समाज की एकता और मजबूत होती है। इसलिए ऐसे कुंभ को और मजबूत किया जाना चाहिए। जो लोग ऐसा नहीं चाहते, वे इस पर नकारात्मक टिप्पणियां करते रहते हैं। हमारे त्यौहार हैं, वे हमें जोड़ते भी हैं। इसलिए, उन त्योहारों को मजबूत करने की जरूरत है जो हमें एकजुट करते हैं। आजकल तो उनके पास ऐसी शक्तियां भी आ गई हैं कि उन्हें हमारी याद तभी आती है जब दिवाली और होली आती है और वे कुछ गलत बातें कह देते हैं, इसलिए इन बातों को हल्के में नहीं लेना चाहिए। पूरे समाज को मिलकर इन चीजों का सामना करना चाहिए कि नहीं भाई, ये हमारी एकता के प्रतीक हैं।

धार्मिक ग्रंथों का महत्व

हमारे ग्रंथ रामायण और महाभारत हैं जो हमें अच्छे जीवन मूल्य सिखाते हैं, जो हमें मिलजुल कर रहने के लिए कहते हैं, जो हमें राक्षसों से लड़ने, एक-दूसरे के प्रति प्रेम और स्नेह से रहने की प्रेरणा देते हैं। वे हमें अपनेपन का एहसास दिलाते हैं। मैं समझता हूं कि हमारे लिए उन चीजों को बचाकर रखना जरूरी है जिनसे हजारों पीढ़ियां राष्ट्रीय एकता के लिए निरंतर प्रेरणा प्राप्त करती रही हैं और इसलिए ऐसी भाषा को भी बचाकर रखना जरूरी है, जिसमें ज्ञान उपलब्ध हो। जिन तरीकों से यह सिखाया जाता है, उन्हें भी संरक्षित करने की आवश्यकता है और इसलिए अगर हम अपने मंदिरों में जाते हैं, जहां से लोगों को हर दिन प्रेरणा मिलती है, तो ऐसी प्रेरणा के स्थानों को संरक्षित करना आवश्यक है।

तो इस देश में इतने सारे प्रतीक हैं, जिसमें आज के समय में संविधान एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रतीक है और इसीलिए आज जब देश में बहुत सारी चर्चाएं चल रही हैं, तो इन बातों को फिर से याद करना, इन बातों पर चर्चा करना और उसी आधार पर आगे बढ़ते रहना आवश्यक है। अब समय बदल रहा है। पूरे देश में उत्साह का माहौल है और पूरी दुनिया भी भारत की ओर देख रही है। जैसे प्रगति से प्रगति देशों को भारत से योग मिला अब फिर से मेडिटेशन डे भी लिया है और अभी बहुत सारी बातें हैं जिसके लिए वो भारत की तरफ भी देखेंगे।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और नैतिक सवाल

अभी आर्टिफीसियल इन्टेलिजेन्स आ गया और वो आने वाले समय में हमारे जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करेगा और एक तरीके से ये वातावरण बन रहा है। आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस हमारा कल्चर तय करेगा या हमारा ह्यूमन इंटेलिजेंस आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस का कल्चर तय करेगा? आज यह एक महत्वपूर्ण मामला है। भारत को यह कहना होगा कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में, साथ ही जैविक क्षेत्र में, हमारे द्वारा विकसित विज्ञान का नैतिक उपयोग कहां और कैसे किया जाए? इसलिए, यह मुद्दा उठाना आवश्यक है कि एआई में क्या नैतिक है और क्या अनैतिक है। कौन सी बात मानव हित में है और कौन सी नहीं? इन चीजों पर बात करना जरूरी है और इसलिए आने वाले समय में हमारे देश के लोगों को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी नई चीजों का स्वागत करना चाहिए और यह देश के हित में कैसे काम करेगी? क्योंकि जब भी कोई नई चीज आती है तो उसका उपयोग दोनों तरह से हो सकता है और इसीलिए जो लोग अच्छा चाहते हैं, उन्हें जल्दी से यह बात समझनी होगी और सोचना होगा कि नए समय में यह पूरी दुनिया के हित में लोगों के लिए कैसे लाभदायक और विनियमित, कृत्रिम, नैतिक होगा। यह हमारे देश की प्रगति में भी उपयोगी होगा और यदि समय रहते इसे ठीक नहीं रखा गया तो इसका हमारे देश की एकता, अखंडता, प्रगति और जनजीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इसलिए, यह कोई विकल्प नहीं है कि हम इसे चाहते हैं या नहीं। लेकिन हम इसे कैसे चाहते हैं, इस बारे में निश्चित रूप से विकल्प हैं, इसलिए मुझे लगता है कि आज जब हम भारत के बारे में ऐसे नए आधुनिक विषयों पर बात कर रहे हैं, तो ऐसे विषयों पर भी चर्चा होनी चाहिए।

 

 

Share
Leave a Comment