बस्तर संभाग के बीजापुर जिले से एक के बाद दुखद घटनायें सामने आई हैं। युवा पत्रकार मुकेश चंद्राकर की निर्मम हत्या और नक्सलियों द्वारा आईडी धमाका करके आठ जवानों की हत्या— दोनों ही घटनाओं का आपस में कोई संबंध न होते हुए भी सह-संबद्धता है। बीजापुर और उससे लगी अंतरराज्यीय सीमाएं इस परिक्षेत्र को नक्सलवाद के लिए उर्वर बना देती हैं। जब से केंद्र सरकार इस तथ्य के लिए प्रतिबद्ध हुई है कि नक्सलवाद को मार्च 2026 से पूर्व समाप्त कर दिया जाना है, सम्पूर्ण बस्तर क्षेत्र में एक आपाधापी है। सुरक्षाबल बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ रहे हैं और माओवादियों के कथित आधार क्षेत्र अर्थात् अबूझमाड़ के भीतर प्रविष्ट हो रहे हैं।
वर्ष 2024 माओवादियों के लिए घटना प्रधान रहा, अब तक उन्हें इतनी तादाद में अपने कैडरों का नुकसान पहले कभी देखना नहीं पड़ा था। इस वर्ष सुरक्षाबलों द्वारा संचालित अभियानों में 296 माओवादियों को मार दिया गया है। यह अवश्य है कि संघर्ष में चौबीस जवान भी शहीद हुए हैं। सुरक्षा बलों ने यदि 100 अभियान चलाए तो उन्हें हरेक में सतर्क, सटीक और सफल होना आवश्यक है लेकिन जाने-अनजाने एक चूक वह होती है जिसकी अपनी 99 असफलताओं के बाद भी माओवादी प्रतीक्षा करते रहते हैं। गत 6 जनवरी को हुई घटना ऐसी ही वह चूक है जिसने लगातार कमजोर होते माओवादियों को अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का अवसर दे दिया है।
तीन दिन से ले रहे थे लोहा
जवान लगातार तीन दिन से माओवादियों से लोहा ले रहे थे। उन्होंने बीजापुर में ही नक्सल उन्मूलन की कार्रवाई में बड़ी सफलता अर्जित करते हुए पांच माओवादियों को ढेर कर दिया था। इस अभियान में एक जवान भी शहीद हुआ था। घटना के बाद पूरे क्षेत्र की सघन तलाशी करने के उपरांत जवान अपने कैंप की ओर लौट रहे थे। यह दोपहर लगभग सवा दो बजे का समय था। डीआरजी के जवानों को वापस लाने के लिए जो पिकअप वाहन भेजा गया था, नक्सलियों ने उसे निशाना बनाया। नक्सलियों ने कुटरू क्षेत्र में अंबेली ग्राम के निकट इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आईईडी) ब्लास्ट किया। यह धमाका इतना शक्तिशाली था कि वाहन के परखच्चे उड़ गए। इस धमाके के कारण न केवल वाहन पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हुआ, बल्कि उसके एक हिस्से को निकट के पेड़ पर लटका हुआ देखा गया। सड़क के बीचों—बीच दस फुट से अधिक गहरा गड्ढा हो गया।
दंतेवाड़ा डीआरजी के आठ जवान और एक वाहन चालक इस घटना में शहीद हो गए। इस परिघटना में कुछ जवान घायल भी हुए हैं, जिनका समुचित इलाज किया जा रहा है। बस्तर की सड़कों ने ऐसे कितने ही बलिदान देखे हैं। जब नक्सलवाद से निर्णायक लड़ाई की संकल्पना बनी तो यह भी सोचा गया कि सड़कें आवश्यक हैं। अस्सी के दशक से आरंभ हुआ माओवाद वहां—वहां फैला जहां-जहां सड़कें नहीं थीं और जहां उनका विस्तार किया गया, वहां सड़कों को नष्ट कर किलेबंदी कर दी गई।
एक दौर था जब माओवादियों ने बस्तर को इस तरह अपने डैनों में जकड़ लिया था कि रायपुर से बैलड़ीला की मुख्य सड़क और रास्ते के कांकेर-कोंडागांव-जगदलपुर-गीदम-बचेली-किरंदुल जैसे नगर-शहर छोड़ दिए जाएं तो अधिकांश भूभाग पर उनकी उपस्थिति और पकड़ बन गई थी। सो सड़कों के महत्व को समझा गया और धीरे धीरे ही सही, बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों तक भी सड़क पहुंचने लगी। इस प्रक्रिया में माओवादियों का प्रतिरोध भी सम्मिलित हुआ। बना दी गई सड़कें बार बार काट दी जातीं, सड़क निर्माण में लगे वाहनों को जला दिया जाता, ठेकेदारों-मजदूरों को डराया-धमकाया जाता। इस सब के बाद भी सड़कें बनती रहीं।
भ्रष्टाचार का किया था खुलासा
माओवाद से लड़ाई में विकास को अनिवार्य शर्त माना जाता है। विकास का मोटा-मोटा अर्थ है ढांचे का निर्माण और सड़कें। केंद्र और राज्य सरकार ने बस्तर के विकास के लिए अनेक प्रकार की योजनाओं की न केवल घोषणा की है अपितु उचित मात्र में बजट उपलब्ध कराया गया है। अंदरूनी क्षेत्रों में कौन देखने आ रहा है की मानसिकता के कारण ठेकेदार बस्तर में काम करने को भ्रष्टाचार और पैसे बनाने का आधार बना लेते हैं। ऐसी ही एक सड़क के निर्माण में हुए करोड़ों रूपए के भ्रष्टाचार को बीजापुर के जीवट और युवा पत्रकार मुकेश चंद्राकर ने अपने यू-ट्यूब चैनल ‘बस्तर जंक्शन’ के मध्यम से उजागर किया था।
सड़कें सुरक्षा बलों के लिए चुनौतियां इसलिए भी बनती रही हैं क्योंकि माओवादी आईईडी लगाने तथा इसके माध्यम से नुकसान पहुचाने में निरंतर सफल होते रहे हैं। कई सड़कें तो ऐसी हैं जिनमें निर्माण पूर्व ही माओवादियों ने आईईडी लगा दिए थे। ये ऐसे बम होते हैं जो फटने के लिए अवसर की प्रतीक्षा में रहते हैं। माओवादी जवानों के आने-जाने के रास्ते में इस तरह बम प्लांट करते हैं जिनमें दबाव पड़ने से धमाका हो जाता है। यही कारण है कि बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों में निर्मित अनेक सड़कें ऐसी हैं जिसमें प्रत्येक किलोमीटर के निर्माण ने कितने ही जवानों की जान ली है।
स्वभाव से निर्भीक थे मुकेश
मुकेश चंद्राकर ने बीजापुर के तकालगुडा नक्सली हमले (अप्रैल 2021) के बाद माओवादियों की कैद से कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह मन्हास को छुड़ाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। बस्तर में पत्रकारिता करना कैसे दुधारी तलवार पर चलना है, इसे समझने के लिए यह उल्लेख अनिवार्य है कि वर्ष 2024 की जनवरी में ही मुकेश को माओवादियों के मध्य रीजन ब्यूरो के प्रवक्ता प्रताप ने पुलिस और सरकार का दलाल बताते हुए धमकी दी थी।
यह अलग बात है कि माओवादियों द्वारा भी मुकेश चंद्राकर की हत्या के बाद एक पर्चा जारी किया गया है जिसमें उसके परिजनों से संवेदना व्यक्त की गई है। धमकियां तो ठेकेदारों से भी मिल रही थीं क्योंकि बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों में जाकर रिपोर्टिंग करने वाले मुकेश स्वभाव से ही निर्भीक थे। वह सड़क जिसने मुकेश की जान ले ली, उसके निर्माण में निहित भ्रष्टाचार तो बंद आंखों से भी देखा-पहचाना जा सकता है। उन्होंने तथ्यों के साथ इसे उजागर किया था।
मुकेश एक जनवरी से लापता थे। पुलिस ने खोजबीन में तेजी दिखाई। स्थानीय पत्रकारों ने न केवल दबाव बनाया बल्कि स्वयं भी खोजबीन में जुटे। संदेह स्थानीय ठेकेदार सुरेश चंद्राकर पर था। जब पुलिस बीजापुर शहर की छतनपारा बस्ती में सुरेश चंद्राकर की प्रॉपर्टी पर पहुंची तो वहां एक सेप्टिक टैंक में नए हुए निर्माण ने संदेह उत्पन्न किया। जेसीबी की सहायता से सैप्टिक टैंक को जब तोड़ा गया तब भीतर से मुकेश के शव को बाहर निकाला जा सका।
बर्बरता से की गई हत्या
मुकेश की पोस्टमार्टम रिपोर्ट से जो जानकारी बाहर आई है वह रोंगटे खड़े कर देती है। उसकी केवल हत्या नहीं की गई बल्कि हत्यारों द्वारा पाशविकता से मारा गया था। रिपोर्ट बताती है कि मुकेश की पांच पसलियां और गर्दन की हड्डी टूटी हुई थी, हाथ की हड्डी दो टुकड़ों में टूटी पाई गई। लीवर चार भाग में फट गया था। हृदय भी बुरी तरह से फटा हुआ मिला है। सिर पर गंभीर चोट सहित वार किए जाने के पंद्रह निशान हैं। जिस डॉक्टर ने मुकेश के शव का पोस्टमॉर्टम किया उसने बताया कि उन्होंने अपने बारह साल के कॅरियर में इतनी नृशंसता से की गई हत्या नहीं देखी। हालांकि मुकेश के हत्यारों को पकड़ लिया गया है और ठेकेदार भी हिरासत में है। कानून आगे क्या रास्ता लेगा अथवा हत्यारों को क्या सजा मिलेगी, यह देखना शेष है। हत्यारों को कठोरतम दण्ड मिलना चाहिए क्योंकि ऐसी निर्मम हत्या ‘रेयरेस्ट आफ द रेयर’ है।
ऐसा पहली बार नहीं है कि यहां किसी पत्रकार की हत्या हुई हो। अभी दशक भर नहीं बीता जब माओवादियों ने बस्तर में ही पत्रकार साई रेड्डी की नृशंस हत्या कर दी थी। वनवासियों की हत्या हो, जवानों की हत्या अथवा पत्रकारों की हत्या; बस्तर की सड़कों पर से न जाने ऐसा कितना ही दर्द रक्त बन कर बह चुका है।
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