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लोकतंत्र की ढाल

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के उद्देश्य से 1948 में चुनाव आयोग की स्थापना हुई। यह भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला है। आज न केवल भारत, बल्कि दुनिया भर में यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की एक मिसाल है

by अखिलेश वाजपेयी
Jan 7, 2025, 01:46 pm IST
in भारत, विश्लेषण, संविधान
चुनाव आयोग का दिल्ली स्थित केंद्रीय कार्यालय

चुनाव आयोग का दिल्ली स्थित केंद्रीय कार्यालय

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अखिलेश वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार

लोकतंत्र में सवाल करना तो आम आदमी का मौलिक अधिकार है। तब कोई व्यक्ति और संस्था सवालों से परे कैसे रह सकती है? राजनीतिक दलों को भी प्रश्न और प्रतिप्रश्न का अधिकार लोकतंत्र का हिस्सा है। संभव यह भी है कि कभी कोई तार्किक या वास्तविक वजह भी इन सवालों का आधार बनी हो। कुछ गलतियां भी संभव हैं, लेकिन चुनाव आयोग की 75 साल की चुनावी परीक्षा की यात्रा, इसकी सुधार के स्वभाव से संस्था की साख एवं विश्वास को निरंतर मजबूत करने की ही यात्रा है। यही वजह है कि इतनी लंबी यात्रा में इसने सिर्फ देश के मतदाताओं का भरोसा ही नहीं जीता है, बल्कि मतदान की प्रक्रिया में निरंतर सुधार, मतदाताओं को सहूलियत तथा पारदर्शिता के प्रयोगों से विश्व के कई देशों की प्रशंसा हासिल की है। उनकी जिज्ञासा का केंद्र भी बनकर उभरा है। वैसे तो देश में चुनाव का सिलसिला स्वतंत्रता के पहले से ही शुरू हो गया था, लेकिन आजाद भारत में चुनाव प्रक्रिया का इतिहास 1951-52 से पहले आम चुनाव के साथ शुरू होता है। इसके लिए संविधान में निर्वाचन आयोग के गठन की व्यवस्था की गई। इसकी प्रक्रिया 1948 से शुरू हुई, जिसके अनुसार 25 जनवरी, 1950 को देश में केंद्रीय निर्वाचन आयोग की स्थापना की गई। यह 26 जनवरी, 1950 को भारत के पूर्ण गणतांत्रिक देश घोषित होने के साथ क्रियाशील हो गया। इसे देश की विधानसभाओं से लेकर लोकसभा, राज्यसभा, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति के चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी गई।

संवैधानिक संस्था का दर्जा

चुनाव आयोग को संवैधानिक संस्था का दर्जा दिया गया, ताकि कभी कोई सरकार इस संस्था में सीधे हस्तक्षेप कर देश के मतदाताओं के स्वतंत्र और स्वविवेक से देश-प्रदेश की व्यवस्था के संचालन के लिए गठित संस्थाओं के लिए अपने प्रतिनिधियों को चुनने के अधिकार में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न कर सके। धनबल या बाहुबल अथवा सत्ताबल की ताकत से भी मतदाताओं को प्राप्त अधिकारों का हरण न किया जा सके।

चुनौतियों के बीच आयोग का काम

भले ही आज संचार क्रांति और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) एवं कंप्यूटर के अविष्कार ने मतदान से लेकर उसके परिणाम तक की प्रक्रिया को काफी सरल कर दिया हो, लेकिन शुरुआत में यह बहुत आसान काम नहीं था। आयोग के गठन के बाद देश के पहले निर्वाचन आयुक्त पद पर नियुक्त किए गए तत्कालीन वरिष्ठ नौकरशाह सुकुमार सेन के सामने देश में मतदान प्रक्रिया को विकसित करने की बड़ी चुनौती थी। इसके लिए उन्हें उस समय देश की 36 करोड़ आबादी से मतदाताओं का चयन करना था, जिसके लिए अर्हता तय करनी थी।

खास बात यह थी कि तब देश में साक्षरता दर बेहद कम थी। देश की बड़ी आबादी पढ़ना और लिखना भी नहीं जानती थी। उन्हें मतदान प्रक्रिया के बारे में समझाना था। सबको सरलता एवं सुविधापूर्ण मतदान करने की सुविधा मुहैया करानी थी। इसके लिए कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना था। मतदाता सूची तैयार करानी थी। साथ ही राजनीतिक दलों को भी इसके बारे में समझाना और तैयार करना था। आम आदमी से लेकर राजनीतिक दलों के मन में यह भरोसा भी पैदा करना था कि चुनाव पूरी तरह निष्पक्ष हुए हैं।

ऐसे हुआ पहला आम चुनाव

आयोग की चुनौतियों का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि प्रारंभ में यह सिर्फ एक सदस्यीय ही था। मतलब तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सेन को ही अकेले सारे फैसले लेने थे। उन्होंने तत्कालीन सरकार से विचार-विमर्श कर 1951 की जनगणना को मतदाताओं के चयन का आधार बनाने का फैसला किया। सेन ने दुनिया के कई देशों के चुनाव में मतदाताओं के लिए निर्धारित न्यूनतम आयु सीमा 21 वर्ष को ही भारत में मतदाता सूची निर्धारण का आधार बनाया। राज्य विधानसभा वार मतदाता सूची बनाने का निर्णय किया गया। इस प्रक्रिया के तहत उस समय देश की लगभग 36 करोड़ आबादी में लगभग 17.30 करोड़ से अधिक लोगों को मतदान का अधिकार दिया गया। तब न आज की तरह से सड़कें थीं, न संवाद के साधन। कई जगह तो मतदान केंद्र बनाने के लिए उचित भवन भी उपलब्ध नहीं थे।

चूंकि मतदाताओं का बड़ा हिस्सा पढ़ना-लिखना नहीं जानता था, इसलिए आयोग के सामने एक ऐसी पद्धति भी विकसित करने की चुनौती थी, जिससे मतदाता अपनी पसंद की पार्टी या प्रत्याशी को मत दे सकें। इसके लिए चुनाव चिह्न निर्धारित किए गए। मतपत्र छपवाने की पद्धति तय हुई। मतपेटियां बनवाई गईं, ताकि मतदाता अपनी पसंद वाली पार्टी या प्रत्याशी को वोट दे सकें। इसी तरह गोपनीय तरीके से मतदान कराने, फिर मत पेटियों को जिला मुख्यालय लाकर सुरक्षित रखने तथा सुरक्षा के बीच मतगणना की प्रणाली निश्चित करने जैसी तमाम चुनौतियों के बीच देश में 25 अक्तूबर, 1951 से 21 फरवरी, 1952 तक निर्वाचन प्रक्रिया चली। इसमें 45.7 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले। इस प्रकार देश में पहली बार पूरी तरह स्वतंत्र और अंग्रेजों के किसी तरह के हस्तक्षेप से मुक्त चुनी हुई सरकार अस्तित्व में आई।

आयोग की साख का विस्तार

तब से लेकर अब तक देश में 18 लोकसभा चुनाव हो चुके हैं। राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों को जोड़ लें और फिर देश में हर वक्त कहीं न कहीं होने वाले उपचुनावों को भी इस सूची में शामिल कर लें तो यह संख्या सैकड़ों में पहुंच जाएगी। निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या हजारों में है।

1951-52 में 17.3 करोड़ मतदाताओं के लिए मतदान की सुविधा का प्रबंध करने वाले आयोग ने पिछले वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव में लगभग 98 करोड़ मतदाताओं के लिए मतदान की व्यवस्थाएं कराकर कीर्तिमान स्थापित किया। लोकसभा चुनाव में लगभग 65 करोड़ मतदाताओं ने वोट डाले। मतपत्रों पर मुहर लगाने से शुरू हुए चुनाव अब ईवीएम से हो रहे हैं। वीवीपैट के प्रयोग से मतदान प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाया गया है। अनुमान लगाया जा सकता है कि यह यात्रा कोई आसान नहीं है। कोई कितने भी सवाल उठाए, लेकिन भारत के निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता विदेशों में आकर्षण का विषय अकारण नहीं है। शायद ही किसी को यकीन हो, लेकिन यह सत्य है कि देश में पहले आम चुनाव के जरिए ही आयोग ने ऐसी साख बनाई कि सूडान जैसे देश ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन को अपने यहां चुनाव प्रक्रिया निर्धारित करने और चुनाव कराने के लिए भेजने का आग्रह किया। सेन और उनके सहयोगी लगभग डेढ़ साल वहां रहे।

कठिनाइयां भी कम नहीं रहीं

इसका मतलब यह नहीं है कि देश में चुनाव आयोग की साख और विश्वसनीयता की यात्रा कठिनाइयों से पूरी तरह मुक्त रही है। 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव के बाद ज्यों-ज्यों समय आगे बढ़ा, त्यों-त्यों आयोग के सामने कभी धनबल, बाहुबल तो कभी सत्ताबल के दबाव से निर्वाचन प्रणाली को मुक्त रखने की चुनौती आती रही है, जिनकी कई कहानियां इतिहास में दर्ज हैं। याद कीजिए, जब आपातकाल में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश की सारी संवैधानिक संस्थाओं को पंगु बना दिया था। उस स्थिति में 1977 के चुनाव में निरंकुश सत्ता की छाया में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त के लिए चुनाव कराना आसान नहीं रहा होगा।

इसी तरह, एक प्रसंग 1982 का है, जब सत्ता में लौटी इंदिरा गांधी ने हेमवती नंदन बहुगुणा को चुनाव में हराने के लिए हरियाणा पुलिस को गढ़वाल भेज दिया था। यह देखकर तत्कालीन चुनाव आयुक्त श्यामलाल शकधर ने वह चुनाव ही रद कर दिया था। अतीत के पन्नों पर मतपत्र लूट लेने, फर्जी वोटिंग करने, मतदाताओं को डरा-धमका कर वोट देने से रोकने की इतनी घटनाएं दर्ज हैं कि कई किताबें लिखीं जा सकती हैं।

यहीं पर याद आते हैं मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन, जिन्होंने सख्त तेवरों, कड़े फैसलों और केंद्रीय सुरक्षा बलों के प्रयोगों से इन बुराइयों की जड़ों पर प्रहार कर आयोग की साख बढ़ाई और इसकी शक्ति का संदेश देकर देश की लोकतांत्रिक प्रणाली की पवित्रता को बहाल कराया। इससे मतदान केंद्रों पर लूट और फर्जी मतदान की घटनाएं निरंतर कम होती गईं।

सुधार के निरंतर प्रयोग

देश की चुनाव प्रणाली की पवित्रता बनाए रखने के लिए आयोग ने कठिन चुनौतियों के बीच कई यत्न किए हैं। इसमें न्यायपालिका और विधायिका के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता। आयोग ने राजनीति में धनबल के उपयोग पर अंकुश के लिए न सिर्फ चुनाव आचार संहिता को कड़ा और व्यापक बनाया, बल्कि इसे कड़ाई से लागू करके भी दिखाया। प्रत्याशियों के लिए नामांकन के वक्त शपथ पत्र और उन पर दर्ज मुकदमों की घोषणा के प्रावधान कर यह कोशिश की गई कि जनता को अपने उम्मीदवारों की चाल, चरित्र और चिंतन को देखकर उन्हें वोट देने या न देने का फैसला करने का विकल्प मिले। निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव के लिए प्रेक्षकों की नियुक्ति का प्रयोग शुरू किया गया। मतदान और मतगणना में लगने वाले लंबे वक्त को कम करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) का उपयोग शुरू किया।

वर्ष 1982 में केरल की एक विधानसभा सीट से शुरू हुआ प्रयोग तमाम रुकावटों और बहस के बाद आज वीवीपैट के प्रयोग तक पहुंच कर चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता को और बढ़ा रहा है। ईवीएम मशीनों से चुनाव को प्रभावित करने के आरोपों की जांच में अब तक ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है। इससे चुनाव आयोग की साख और मजबूत हुई है।

शुरू में एक मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ शुरू हुआ चुनाव आयोग का सफर आज दो सहायक चुनाव आयुक्तों के साथ कई उपायुक्तों की नियुक्ति तक पहुंच गया है। फर्जी मतदान रोकने के लिए पहचान पत्र आ गए हैं। मतदाताओं को सामने खड़े सभी उम्मीदवारों को खारिज करने के लिए ‘नोटा’ का विकल्प दिया गया है। भूटान, नेपाल, जॉर्डन, मालदीव, नामीबिया और मिस्र सहित कई देश अपने यहां के चुनाव में हमारे देश के निर्वाचन आयोग से तकनीकी सहायता ले रहे हैं। कुछ देशों में तो भारत में बनी ईवीएम मशीनों से ही चुनाव हो रहे हैं। आयोग की यह यात्रा ही उसकी साख को लेकर सामने आने वाले हर सवाल का जवाब है।

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