भारतीय संस्कृति में कुंभ का महत्वपूर्ण स्थान है। भागवतपुराण (स्कंध 8, अध्याय 5) के अनुसार चाक्षुष-मन्वन्तर (पौराणिक कालगणनानुसार लगभग 42-89 करोड़ वर्ष पूर्व) भगवान विष्णु का कच्छप-अवतार हुआ एवं क्षीरसागर के मंथन से चंद्रमा सहित 14 रत्नों की उत्पत्ति हुई। इसी समुद्र-मंथन के दौरान अमृत-कलश (कुंभ) भी निकला, जिसे प्राप्त करने के लिए देवताओं एवं असुरों में छीना-झपटी हुई। इसे देखते हुए भगवान विष्णु ने एक योजना बनाई और स्वयं ‘मोहिनी’ अवतार धारण करके देवताओं को अमृतपान कराने के लिए पंक्तिबद्ध बैठाया। वितरण के लिए अपने को प्रस्तुत करने से पूर्व मोहिनीरूप विष्णु ने इंद्र पुत्र जयंत को अमृत-कलश धारण करने का भार दिया और उसकी रक्षा का दायित्व नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, बृहस्पति और शनि को दिया। कलश न टूटे, यह कार्य सूर्य को दिया गया, अमृत न छलके, न बहे, यह दायित्व चंद्र को मिला, राक्षसों से अमृत-कुंभ सुरक्षित रहे, इसका भार बृहस्पति को दिया गया_। शनि का कार्य जयंत की रक्षा करना था।
इन्हीं चारों ग्रहों से चार स्थानों पर होने वाले कुंभ-पर्व की कथा जुड़ी हुई है। राक्षसों से कलश की रक्षा करने के लिए ही जयंत को चतुर्दिक् भागकर जाना पड़ा। भागने के क्रम में नासिक, उज्जैन, हरिद्वार और प्रयाग पर कुंभ से अमृत की बूंदें छलकीं। इस घटना की स्मृति में इन चार स्थानों पर कुंभ-मेलों का आयोजन होता है। हरिद्वार में अमृत तब छलका जब सूर्य ने मेष राशि में तथा बृहस्पति ने कुंभ राशि में प्रवेश किया था। प्रयाग में अमृत छलकने का समय वह था जब सूर्य ने मकर राशि में (मकर-संक्रांति) तथा बृहस्पति ने वृष-राशि में प्रवेश किया था।
हरिद्वार और प्रयागराज में दो कुंभ पर्वों के बीच 6-6 वर्ष के अंतराल में अर्ध कुंभ का आयोजन होता है। जब सूर्य मेष राशि में और बृहस्पति ने सिंह राशि में प्रवेश किया था, तब उज्जैन के क्षिप्रा में अमृत छलका था। इस घटना की स्मृति में उज्जैन में प्रत्येक 12 वर्ष पर सिंहस्थ कुंभ का आयोजन होता है। जब सूर्य और बृहस्पति ने सिंह राशि में प्रवेश किया था, तब नासिक की गोदावरी में अमृत छलका। नारदीयपुराण (2-66-44), शिवपुराण (1-12-22-23), वाराहपुराण (1-71-47-48) और ब्रह्मपुराण में भी कुंभ एवं अर्ध कुंभ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध हैं। कुंभ पर्व हर 3 साल के अंतराल पर हरिद्वार से शुरू होता है। इसके बाद प्रयाग, नासिक और उज्जैन में कुंभ मनाया जाता है।
संस्कृति की अमूल्य निधि
भारत और विश्वभर में फैले कोटि-कोटि हिंदू और प्रवासी भारतीय युगों-युगों से कुंभ के माध्यम से आध्यात्मिक रूप से एकताबद्ध होते रहे हैं। किसी उत्सव के आयोजन में भारी जन संपर्क अभियान और अतिथियों को आमंत्रण प्रेषित किया जाता है, जबकि कुंभ विश्व में एक ऐसा पर्व है जहां कोई आमंत्रण अपेक्षित नहीं होता। भाषा-भेद, जाति-भेद, वर्ण-भेद, प्रांत-भेद, आयु-भेद तथा साधन-भेद से ऊपर उठकर, केवल आस्था के बल पर करोड़ों लोग सहस्राब्दियों से केवल पंचांग देखकर इस पवित्र पर्व को मनाने के लिए एकत्र होते हैं। कुंभ एक ऐसा विशाल पर्व है जहां सनातन हिंदू संस्कृति अपने संपूर्ण वैभव-समृद्धि और सौंदर्य के साथ समुपस्थित रहती है। यह आर्य संस्कृति का वृहत्तम मिलन- बिंदु है।
देश का सामान्य जन कुंभ को महान अवसर के रूप में देखता है और इस दौरान ‘कल्पवास’ करना अपना परम सौभाग्य समझता है। देश के कोने-कोने से लाखों-करोड़ों लोग पैदल, वाहन से चलकर कुंभ में पहुंचते हैं, नदी में डुबकी लगाते हैं और अमृत की अनुभूति करते हैं। कुंभ-मेले (कल्पवास) के दौरान क्या राजा, क्या रंक, क्या साधु-संन्यासी, सभी बालुकामयी सर्द भूमि पर शयन करते हैं। एक समय का भोजन एवं तीनों समय स्नान-पूजा तथा यज्ञ, हवन और भगवद्भजन करते हैं।
संप्रदायों का अपूर्व संगम
कुंभ में सभी संप्रदाय, ऋषि-मुनि, योगी, तपस्वी, साधु-संत खुले मन से सम्मिलित होकर अपने को कृतार्थ मानते हैं। कुंभ पर्व मुख्यत: साधु-संन्यासियों का ही पर्व माना जाता है। प्राचीन काल से आत्मसाक्षात्कार रूपी अमृत की प्राप्ति के लिए साधु-संत कुंभ पर्व पर एकत्र होते रहे हैं। आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित शांकर-मठ तथा दशनामी नागा-संन्यासी इस पर्व पर अनिवार्य रूप से एकत्र होते हैं। देश के किसी भी कोने में रहने वाले, हिमालय की कंदराओं तक में एकांत साधना करने वाले साधु-संन्यासी भी कुंभ के अवसर पर स्नान करने के लिए एकत्र होते हैं। नदी-तट पर एकत्र होकर अध्यात्म साधना, धर्मचर्या तथा धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए विचार-विमर्श करना, फिर अपने विचारों को जनसामान्य तक पहुंचाने के लिए निकल पड़ने की परंपरा रही है।
यह परंपरा आज भी कायम है। आज भी साधु-संन्यासी अपने महत्वपूर्ण निर्णय कुंभ के अवसर पर लेते हैं और नए शिष्यों को भी इसी अवसर पर संत-समाज में सम्मिलित किया जाता है। महामंडलेश्वरों का चयन भी इसी समय पर होता है। संत एवं साधु धर्म, दर्शन, शास्त्रों के सिद्धांतों पर वाद-विवाद एवं विमर्श करते हैं। आगामी 12 वर्ष के लिए हिंदू-धर्म का कैलेण्डर, अखाड़ों के कार्यक्रम और समाज में घटने वाले घटनाक्रम पर चिंतन भी करते हैं।
सनातन-धर्म के अंतर्गत आने वाले श्रीवैष्णव, गौड़ीय वैष्णव, रुद्र, माध्व, सनक, वल्लभ, रामानुज, हरिदासी, स्वामिनारायण, प्रणामी, पांचरात्र, नारायणी, दशनामी, नाथ, कापालिक, लिंगायत या वीरशैव, पाशुपत, अघोर, दक्षिणाचारी, वामाचारी, सौर, शाक्त, गाणपत्य, नारसिंह, स्मार्त, रामानंदी, श्वेतांबर, दिगंबर, हीनयान, महायान, वज्रयान, सिख, रामरंजा, कबीरपंथी, खालसा, अकाली, उदासी, नामधारी, निरंजनी, निरंकारी, राधास्वामी आदि सभी मत-मतांतर को मानने वाले, कुम्भ में उत्साहपूर्वक एकत्र होते हैं।
साधु-संन्यासी, सन्त-महंत, मठाधीश-महामंडलेश्वर, पीठाधीश्वर, धर्माचार्य-शंकराचार्य, अपने-अपने अखाड़ों-आश्रमों के साथ महीनेभर तक कुंभ मेले में डेरा डाले रहते हैं और अपने-अपने अखाड़ों की भव्य शोभायात्रएं निकालते हैं। कितने ही साधु-संत धूनी रमाते हैं, कीर्तन करते हैं, तपस्या में लीन रहते हैं। कितने ही हठयोगी कुंभ में आकर अपनी योग-सिद्धियों और चमत्कारों का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं। विभिन्न वेशों और मुद्राओं में आए कितने साधु-संत चर्चा-कौतूहल के विषय बने रहते हैं। इस तरह कुंभ में न केवल सनातन-धर्म की विराटता और लघु भारत की झलक दिखती है, वरन् इससे भारत की संपूर्ण धार्मिक एवं सांस्कृतिक एकता भी सुदृढ़ होती है।
कुंभ के दौरान देश-विदेश से आए लाखों-करोड़ों दर्शनार्थी-श्रद्धालु मेला-परिसर का भ्रमण करते हैं, और साधु-संतों के शिविरों में जाकर उनके संप्रदाय का परिचय प्राप्त करते हैं। प्रो. संगमलाल पाण्डेय के शब्दों में, ‘‘विविध धर्माचार्यों के क्या सिद्धांत हैं, इसे उनके प्रवचनों में सुना जा सकता है। उनकी क्या साधनाएं हैं, इसे उनकी जीवनशैली एवं दिनचर्या में देखा जा सकता है। उनका क्या सांस्कृतिक अवदान है, इसे उनके संगीत-कार्यक्रम, मंदिर-निर्माण, यज्ञभूमि-निर्माण, आदि में देखा जा सकता है। उनके ग्रंथ और गुरु कौन हैं, इसे उनके यहां विराजमान पुरुषों को देखकर तथा उनके अनुयायियों के स्वाध्याय को देखकर समझा जा सकता है।
उनका लक्ष्य क्या है, इसको उनके सत्संग से जाना जा सकता है। वे कैसे दीक्षा देते हैं, यह उनके दीक्षा-समारोह से समझा जा सकता है। इन धर्माचार्यों अथवा साधकों की कितनी श्रेणियां हैं, वे कैसे अध्यात्म-जगत् में विकास करते हैं, इसे उनके साथ रहने वाले अनेक महापुरुषों के सत्संग से जाना जा सकता है। इस प्रकार कुंभ मेला अध्यात्म-साधना और धर्म-दर्शन का पदार्थ पाठ प्रस्तुत करता है। वह हिंदू-धर्म के उस सिद्धांत को प्रत्यक्ष बना देता है जिसे ‘विविधता में एकता’ कहा जाता है। कहना न होगा कि यदि किसी को हिंदू-धर्म को देखना हो, यदि किसी को हिंदू-भावनाओं के आदर्शों को समझना हो, तो उसे कुंभ-पर्व का दर्शन करना चाहिए।’’
कुंभ और जल-संरक्षण
भारतीय संस्कृति का विकास नदी के तटों पर हुआ है। बड़ी-बड़ी सभ्यताएं-संस्कृतियां नदी-तटों पर पल्लवित-पुष्पित हुई हैं। अपने देश में नदी और सरोवर के तटों पर मेलों के आयोजन होते आए हैं। प्रश्न उठता है कि नदी के किनारों को इतना अधिक महत्व क्यों दिया गया? स्नान करना एक मुख्य कारण हो सकता है जिसके साथ अध्यात्म भी जुड़ा है। कुंभ भी उसी शृंखला की एक कड़ी है। कुंभ के दौरान लाखों-करोड़ों लोग एक ही समय में, एक ही जल में, एक ही भावना से इकट्ठे होते हैं। जीवनदायिनी नदी के आसपास इतने बड़े आयोजन का कोई-न-कोई मूल प्रयोजन अवश्य रहा होगा।
केवल आस्था, पुण्य-स्नान और मोक्ष-जैसी अमूर्त धारणाएं इसका प्रयोजन नहीं हो सकतीं। हमारे पूर्वजों ने जलराशि को इतना अधिक महत्व इसलिए दिया कि जनसाधारण बार-बार जल के समीप जाए, उसके महत्व को समझे, उसकी साज-संभाल, देख-रेख, साफ- सफाई और सुरक्षा करे। कुंभ स्वयं एक जल-प्रतीक है। जल को कुंभ में संचयित किया जाता है। बिना कुंभ या पात्र के जल को संचयित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार बिना जल तट के कुंभ जैसे बड़े आयोजन संभव नहीं हैं। ऋषियों ने मानवमात्र को इन उत्सवों के बहाने जल की महत्ता, संरक्षण और सुरक्षा का संदेश दिया है।
(लेखक पत्रकार और इतिहासकार हैं)
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