दिल्ली सल्तनत में बलबन का शासनकाल जहां पूरी तरह से हिंदुओं के दमन और प्रतिरोध का रहा था तो वहीं उसकी मौत के बाद उसकी गद्दी का वारिस भी उसके मन का नहीं बना। उसने अपने बेटे कैखुसरो को सुल्तान बनाना चाहा था, मगर उसकी मौत के बाद फखरूद्दीन और कुछ दरबारियों ने उसके बेटे को नहीं बल्कि बेटे के बेटे कैकूबाद को 1287 में सुल्तान बनाया। कैकूबाद शराबी और अय्याश आदमी था। उसकी जगह पर उसे गद्दी पर बैठाने वाले फखरूद्दीन के जमाई निजामुद्दीन के हाथ में सत्ता आ गई। इसी बीच इसी अस्थिरता का लाभ उठाकर मंगोलों ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। किसी तरह उन्हें पराजित किया गया और फिर एक हजार मंगोल कैदी बनाकर दिल्ली लाए गए और सभी को बहुत ही क्रूरता पूर्वक मारा गया।
कैकूबाद की अय्याशी इस सीमा तक थी कि उसका अब्बा युद्ध करने के लिए आया था, मगर कुछ दरबारियों ने बेटे और अब्बा के बीच समझौता करा दिया। हालांकि, कैकूबाद ने यह वादा किया कि वह शराब नहीं पिएगा, मगर वह रुक नहीं सका और उसकी अय्याशी के चलते उसे लकवा मार गया और इस के बाद जलालुद्दीन खिलजी ने गद्दी पर कब्जा कर लिया। हालांकि, वह भी हिंदुओं से नफरत करने वाला ही सरदार था, मगर चूंकि उसे कुछ लोग तुर्क नहीं मानते थे इसलिए उसने दिल्ली में कदम नहीं रखा और पुरानी दिल्ली में ही दरबार लगाया। जब उसने दिल्ली की गद्दी पर हक जमाया उस समय उसकी उम्र 70 के करीब थी और वह बहुत ही अलोकप्रिय था। उसे दिल्ली के मुस्लिम तुर्क पसंद नहीं करते थे। खिलजियों को तुर्क नहीं माना जाता था।
अपने छोटे से शासनकाल में भी उसने हिंदुओं के प्रति घृणा नहीं छोड़ी। दिल्ली सल्तनत में जितने भी लोग रहे, उनमें आपस में जो भी दुश्मनी रही, वह दुश्मनी रही, मगर उन्होनें आपसी दुश्मनी के बावजूद हिंदुओं को मारना नहीं छोड़ा। खिलजी की उम्र बहुत ज्यादा थी, मगर फिर भी उसने राजपूतों पर हमला किया। उसने रणथंभौर पर हमला किया। इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक के अनुसार वर्ष 1290 में उसने उज्जैन और मालवा को लूटा था। उसके बाद रणथंभौर पर हमला किया था। वह पूरी तरह से इसमें विफल रहा था। राजपूतों की घेराबंदी को तोड़ना उसके लिए सरल नहीं था और संभव भी नहीं था।
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इस पर कब्जा न कर पाने की विफलता को उसने यह कहकर छिपाया कि इस दुर्ग पर कब्जा करने के लिए उसे अनेक मुसलमानों को शहीद करना पड़ता। “बिना अनेक मुसलमानों को शहीद किए हुए वह इस दुर्ग पर अधिकार नहीं कर सकता, इसी कारण वह इसका मूल्य एक मुसलमान के बाल के बराबर भी नहीं समझता। अगर अनेक मुसलमानों को कटवाकर वह इसे जीतेगा और लूटेगा तो शहीदों की विधवाएं और अनाथ बच्चे उसके सामने खड़े होकर उसकी लूट की खुशी को विषाद में बदल देंगे।“
मगर वहाँ से लौटते हुए झाईन नामक कस्बे पर हमला किया और वहाँ के मंदिरों और मूर्तियों को नष्ट कर दिया। इसके बाद उसने मांडवगढ़ पर हमला किया। जहां पुरुषोत्तम ओक यह लिखते हैं कि इस प्रसिद्ध और खूबसूरत राजपूत राजधानी को नोच खोंचकर इसके भव्य मंदिरों और महलों को मुस्लिम मस्जिद और मकबरा बना दिया गया तो वहीं आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव केवल इतना लिखते हैं कि मांडवगढ़ एक समय में दिल्ली का था और इसे राजपूतों ने वापस ले लिया था। उसे जलाल ने वापस ले लिया। इससे यह बात साबित होती है कि दिल्ली सल्तनत के दुष्ट शासक जहां लगातार हिंदुओं का दमन करते रहे, हिंदुओं को मारते रहे और लूटते रहे, मगर हिंदुओं का प्रतिरोध लगातार जारी रहा था। दिल्ली की गद्दी पर जो दुष्ट लोग कब्जा करके बैठे थे, वे लोग लगातार हिंदुओं को मार रहे थे और हिंदुओं को इस कदर लूटा था कि देश में अकाल तक पड़ गया था।
जलाल के शासनकाल में भयानक अकाल पड़ा। जहां आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव इस अकाल को लेकर किसी मजहबी सिद्दी मौला की हत्या के कारण सजा बताते हैं तो वहीं पुरुषोत्तम नागेश ओक लिखते हैं कि षड्यन्त्र, हत्या, लूट से लिपटा मुस्लिम शासन हमेशा दुर्भिक्ष और अकाल का मारा रहा है क्योंकि खेती करने योग्य आवश्यक शांति और समय हिंदुओं को मिल नहीं पा रही थी और मुसलमान लूटपाट से ही पेट पालना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे। परिमाणत: दुर्भिक्ष अनिवार्य था। जलालउद्दीन का शासनकाल भी ऐसा रहा। बर्नी हमें बतलाता है कि “दिल्ली में भयंकर महंगाई थी। एक सेर अनाज का दाम एक जितल हो गया था। शिवालिक में भी दुर्भिक्ष का व्यापक प्रभाव था। उस देश के हिंदू सपरिवार दिल्ली आते थे और भूख से बेहाल होकर यमुना में डूब जाते थे।“
आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव लिखते हैं कि “लोगों का अंधविश्वास था कि ये सब सुल्तान पर मृतक संत के श्राप के कारण हुआ था। वास्तव में, अकाल इतना भयंकर था कि अनाज की कीमत एक सेर जीतल तक बढ़ गई और बड़ी संख्या में लोगों ने यमुना में डूबकर अपनी जान दे दी।“
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