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बीजिंग का कर्ज, ओली का एजेंडा!

नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने परंपरा से हटते हुए अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत की बजाय चीन को चुना। उनका यह निर्णय सवालों के घेरे में रहा, यह इस बात से स्पष्ट है कि ओली के वहां जाने से पहले विपक्षी ही नहीं, सत्तारूढ़ गठबंधन के साथियों तक ने एजेंडे को लेकर संशय जताया। कैसा रहेगा ओली का यह बीजिंग दौरा

by Alok Goswami
Dec 4, 2024, 03:43 pm IST
in विश्व
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नेपाल के किसी प्रधानमंत्री के अपनी पहली राजकीय यात्रा पर भारत के बजाय किसी और देश जाने पर उंगलियां उठना स्वाभाविक है। सो प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की 2 दिसंबर से बीजिंग की पहली राजकीय यात्रा शुरू होने से पहले, इसे लेकर इस हिमालयी देश के राजनीतिक गलियारों में माहौल तल्ख हो चला था। देश के निवर्तमान से लेकर पूर्व कर्णधारों तक ने प्रधानमंत्री से यह उगलवाया कि चीन से कोई नया कर्ज नहीं लिया जाएगा और ऐसी मंशा वाली किसी संधि पर दस्तखत नहीं होंगे।

ओली की अपने तीसरे कार्यकाल की इस पहली चीन यात्रा पर विपक्षियों ने ही नहीं, खुद सरकार में शामिल उनके सहयोगी दलों ने ही प्रश्न खड़े किए। ओली बखूबी जानते हैं कि नेपाल पहले ही चीन से बीआरआई से जुड़ने के नाम पर काफी पैसा ले चुका है और इसका खामियाजा अभी तक भुगत रहा है।

प्रधानमंत्री ओली चीन की यात्रा को लेकर इतने कटाक्षों और सवालों के निशाने पर रहे कि पिछले दिनों वे जहां भी गए, वहां भारत से निकटता की कसमें खाते हुए, ‘पहले भी ऐसा हुआ है’ की दुहाई देते रहे।

इस संदर्भ में 25 नवम्बर को प्रधानमंत्री निवास में एक महत्वपूर्ण बैठक कर ओली यह तक कहने को बाध्य हुए कि वे सबसे पहले चीन तो जा रहे हैं, लेकिन उससे कोई कर्ज नहीं लेंगे। पूर्व प्रधानमंत्रियों और विदेश मंत्रियों की उस बैठक में उन्होंने साफ कहा कि बीजिंग दौरे में वे ऐसा कोई समझौता नहीं करके आएंगे जो किसी तरह के नए कर्ज से जुड़ा हो। यानी नेपाल के नेता अच्छे से जानते हैं कि किसी बड़े नेता के चीन जाने पर बीजिंग उन्हें किस तरह कर्ज के जाल में फंसाता है और शर्तों के बंधन में ऐसा बांधता है कि उन्हें पूरा करने में उस देश की अर्थव्यवस्था डगमगा जाती है। तभी अफ्रीकी देश और कुछ दक्षिण अमेरिकी देश चीन की इस शातिर चाल में फंसे हुए हैं।

ओली कम्युनिस्ट पार्टी ‘एमाले’ से आते हैं इसलिए सहज माना जा सकता है कि उनका झुकाव भारत से ज्यादा चीन की तरफ रहेगा। विपक्षी नेता भी जानते हैं कि उनके पहले चीन जाने के पीछे क्या रहस्य है इसलिए वे एक वर्ग के उस तर्क को नहीं मानते कि नई दिल्ली से कोई न्योता नहीं आया। विदेश विभाग खुद इस मुद्दे पर अपना मुंह सिले रहा है। वैसे, नेपाल में पहले जितने भी कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री रहे हैं, वे भी रणनीतिक और अन्य प्रकार की मदद के लिए चीन की ओर ताकते रहे हैं।

वहां अनेक परियोजनाओं में बीजिंग का सीधा दखल है। चीन यह नहीं चाहता कि नेपाल में भारत का प्रभाव बना रहे इसलिए उसने कथित तौर पर वहां अकूत पैसा झोंककर वहां के नीति निर्माताओं को अपने प्रति राग और भारत के प्रति विराग पैदा करने को उकसाया है। इसलिए इस पूर्व हिन्दू राष्ट्र में ऐसे तत्व खड़े हो गए हैं जो भारत से दूरी बनाने की वकालत करते हैं। ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना के संदर्भ में ओली कहते हैं कि सरकार अपने राष्ट्रीय हित देखकर ही विदेशी सरकार या एजेंसी से कर्ज लेती है और ऐसा बहुत आवश्यक होने पर ही किया जाता है। उन्होंने इन बातों को अफवाह कहा कि वे नए कर्ज की बात करने बीजिंग जा रहे हैं। वे अगर चीन के साथ नेपाल के ‘पुराने और दोस्ताना संबंध’ की दुहाई दे रहे हैं तो यह भी कह रहे हैं कि वे तो बस मित्रता को और विस्तार देने के लिए बीजिंग जा रहे हैं।

भारत के संदर्भ में ओली मानते हैं कि उसके साथ संबंध दोस्ताना हैं और नेपाल के विकास की दृष्टि से भारत तथा नेपाल के मधुर संबंधों का फायदा उठाना है। चीन को लेकर ओली के सामने प्रश्न उठाने वालों में पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड भी थे। नेपाली मीडिया के एक वर्ग में यह चर्चा भी है कि दो सत्तारूढ़ दल सरकार भले साथ चला रहे हैं, लेकिन ओली के चीन दौरे को लेकर दोनों के बीच कुछ खटपट है।

‘भारत के साथ संबंध मधुर हैं और रहेंगे’

प्रधानमंत्री ओली ने एक कार्यक्रम में कहा कि उनका चीन दौरा नेपाल-भारत संबंधों में खटास लाने के लिए नहीं है। भारत के साथ नेपाल के संबंध पहले की तरह मधुर बने रहेंगे। भारत-नेपाल संबंधों को इस यात्रा से कोई ठेस नहीं पहुंचेगी। दरअसल ओली की चीन यात्रा पर निशाना साधते हुए पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड ने कहा था कि ओली सरकार अपनी विदेश नीति में संतुलन नहीं रख पाई है। प्रचंड जानते हैं कि उनके कार्यकाल में भारत के साथ उनके देश ने अनेक परियोजनाएं शुरू की हैं और भारत से उन्हें हर प्रकार की मदद भी मिली है। भारत ने नेपाल को हमेशा एक महत्वपूर्ण पड़ोसी देश ही नहीं, सांस्कृतिक रूप से बेहद निकट ही देखा है। यहां बता दें कि ओली संयुक्त राष्ट्र महासभा के 79वें अधिवेशन में भाग लेने के लिए न्यूयॉर्क गए थे। वहां उनकी भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अलग से भेंट हुई थी।

क्या है एजेंडे में खास

विश्लेषक मानते हैं कि बीजिंग के ओली के एजेंडे में सबसे ऊपर पोखरा अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे को बनाने के लिए चीन द्वारा दिए गए लगभग 22 करोड़ डॉलर के ऋण की स्थिति और गत अगस्त में नेपाल द्वारा उसे अनुदान में बदल देने के औपचारिक अनुरोध पर चर्चा करने की बात है। नेपाल चाहता है कि चीन इस ऋण को माफ कर दे। ऐसा कई नेपाली वित्त विशेषज्ञ भी चाहते थे, लेकिन कुछ अन्य का कहना है कि ऐसा होता है तो नेपाल की भविष्य की क्रेडिट रेटिंग और क्षमता पर बुरा असर पड़ सकता है।

महंगा पड़ सकता है ज्यादा झुकना

काठमांडू को बेहिचक यह स्वीकारना चाहिए कि बीजिंग की नेपाल नीति में नेपाल कम, भारत के प्रभाव को कमजोर करने का भाव ज्यादा है। साथ ही, चीन काठमांडू पर राजनीतिक नियंत्रण चाहता है। नेपाल को भी यह समझ आना चाहिए कि अगर वह चाहता है कि भारत और चीन, दोनों उसे सहयोग दें तो उसे भारत के बदले चीन को आगे रखने का लालच त्यागना होगा। वैसे अब चीन के पाले में झुकने का शायद उसे लाभ न मिले, क्योंकि भारत-चीन के बीच 2020 में सैन्य गतिरोध के बाद से संबंध अब नई करवट लेते दिख रहे हैं। नेपाल को याद रखना होगा कि19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में सिक्किम का रास्ता भारत-चीन व्यापार का एक अच्छा विकल्प था। नेपाल यह न सोचे कि उस विकल्प को एकदम भुलाया जा चुका है।

Topics: पाञ्चजन्य विशेषप्रधानमंत्री ओलीभारत तथा नेपाल के मधुर संबंधप्रधानमंत्री पुष्प कमलभारत-चीन व्यापारPrime Minister Olicordial relations between India and Nepalहिन्दू राष्ट्रPrime Minister Pushpa Kamalप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीIndia-China tradePrime Minister Narendra ModiHindu nation
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