कुछ लोग प्रेम के ही गाने लिखते रहे। प्रेम तो जीवन का एक छोटा सा अंग है। कोई प्रेम ही जीवन नहीं। मैंने देश और उपदेश को पकड़ा। फिल्म लाइन में फिसलन की तरफ मैं नहीं गया। एक इंटरव्यू में कवि प्रदीप अपने गीतों और जीवन के उन तमाम प्रसंगों से पर्दा उठाते हैं, जो मीडिया में ज्यादा आए ही नहीं। जिस समय भारतीय सिनेमा आकार ले रहा था, उस समय हिंदी और उर्दू को लेकर सिनेमा में क्या सोच थी, इससे भी वह पर्दा उठाते हैं। कवि प्रदीप का एक इंटरव्यू यूट्यूब चैनल साहित्य तक पर है।
इस इंटरव्यू में महान गीतकार प्रदीप कहते हैं कि ये अपने संस्कार थे, संस्कार की वजह से और कुछ मेरी सफलताओं ने मेरे अंदर कर्तव्यबोध का भाव जगाया कि मुझे एक सज्जन व्यक्ति की तरह व्यवहार करना चाहिए। लोग मुझे पूज्य भाव से देखते थे तो उसे मैंने बनाए रखा। फिल्म लाइन के अंदर फिसलन के पथ पर नहीं गया। काम किया। समाज को हमेशा ध्यान में रखा। सशक्त माध्यम का सदुपयोग समाज के लिए किया। इस माध्यम का प्रयोग केवल पेट पालन के लिए न करें, कि केवल पैसा कमाएं, पैसा कमाएं।
कवि प्रदीप बताते हैं कि जब मैं फिल्म लाइन से जुड़ा तो लोग मुझसे नाराज होते थे कि मेरा पतन हो गया। कविता से भाग खड़ा हुआ। लेकिन जब मैंने इसकी ताकत (फिल्म) को समझा तो यहां टिका रहा। यहां इस तरह की चीजें लिखने का प्रयास किया कि समाज को कुछ मिले और मेरी आजीविका भी चलती रहे। लोगों ने मुझे इस रूप में ही स्वीकार कर लिया कि मैं सीधे सादे ढंग से रहता हूं। बड़ी-बड़ी पार्टियों में गया, लेकिन मेरा ड्रेस यही रहा धोती और कुर्ता, या फिर कमीज।
गानों में उर्दू का वर्चस्व तोड़ा
बातचीत में कवि प्रदीप कहते हैं कि मैं मूल रूप से कविता के क्षेत्र में आया था। हिंदी में चार से पांच साल तक जमता भी रहा। कवि सम्मेलनों में हिस्सा लिया। आवाज अच्छी थी, यह मैं नहीं कहता। निराला (महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’) तो मेरी कविताओं पर और आवाज पर इतना मुग्ध हो गए थे कि उन जैसे कवि ने सन 1938 में माधुरी पत्रिका में एक आर्टिकल लिख दिया- नवीन कवि प्रदीप। वह भी छोटा लेख नहीं था, चार पन्नों का लेख था। उसमें उन्होंने कहा था कि हिंदी में ऐसी आवाज मैंने दूसरी नहीं सुनी। मैं कविता करता था। मेरी एक स्टाइल थी, उसे कोई कॉपी नहीं कर पाता था। यह स्टाइल मेरे लिए काम आई। मैंने यहां देखा कि उर्दू का बोलबाला है। इससे मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि फिल्म लाइन का उदय काल है। जब टॉकी आई तो उस पर जो नाटक का मंच था, उसमें आग़ा हश्र काश्मीरी आदि छाए हुए थे। हमारे नारायण प्रसाद बेताब, राधेश्याम दुबे भी थे। लेकिन उर्दू प्रधान स्टाइल थी। मैंने सोचा कि हिंदी के भी शब्दों को भी समाविष्ट करें तो ये पापुलर हो जाए। मैंने आसमां की जगह गगन लिखना शुरू किया। धीरे-धीरे लोग स्वीकार करते गए। विरोध भी हुआ।
हिंदी का दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य
हिंदी फिल्मों का दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य, यह हिंदी फिल्मों का उदय काल था और जो बनीं ऐसी प्रांतों में बनीं जहां हिंदी के प्रेमी नहीं थे। मुंबई में मराठी और गुजराती बोलने वाले लोग थे। बंगाल में बंगाली छाई हुई थी। पंजाब में फिल्में बनीं तो पंजाब का स्टाइल। पंजाब में उर्दू प्रेमी लोग थे। इन सब चीजों के बीच हिंदी के लिए बड़ा मुश्किल था अपनी मुंडी दिखाना। हम लोगों ने कुछ प्रयास किया। मैं इन सबके बीच वहां डटा रहा। मैंने सोचा कि भागने से कोई फायदा नहीं। लिखते रहो, कुछ प्रयोग करते रहो। तो मैं प्रयोग करता रहा। प्रयोग सफल हुए। जिस तरह से गुप्त जी (मैथिलीशरण गुप्त)ने साकेत और यशोधरा में पौराणिक पात्रों को लिया तो मैंने देश और उपदेश को, इसको पकड़कर नैया चलाने लगा। मेरा अलग स्वरूप बन गया। कुछ लोग प्रेम के ही गाने लिखते रहे। प्रेम तो छोटा सा एक अंग है जीवन का। कोई प्रेम ही जीवन नहीं। जो लोग प्रेमी के पीछे पड़े उन्हें नुकसान हुआ। मैं चतुर था और देश और उपदेश को पकड़े रहा।
इस तरह बना यह गीत – दूर हटो ये दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है
प्रदीप कहते हैं कि गांधी जी ने 1942 में क्विट इंडिया ( करो या मरो) का नारा दिया तो उस समय मैं सातवीं फिल्म बना रहा था। उसका नाम था किस्मत में। इस फिल्म के प्रोड्यूसर थे एस मुखर्जी। उन्होंने कहा कि देखो देश का वातावरण गरमागरम है, इस पर कुछ बन सकता है क्या? मैंने कहा कि हमारी फिल्म की लाइन अलग है। इस फिल्म में हमारा हीरो जेब काटता है। हीरोइन चल नहीं पाती है। दोनों में प्रेम होता है और कहानी आगे चलती है। इस पर मुखर्जी ने कहा कि कोई चक्कर हो तो चलाओ। मैंने गाना लिखा कि आज हिमालय की चोटी पर हमने फिर ललकारा है, दूर हटो ये दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है। दूसरे स्टेंजा में जर्मन और जापान को भी डाला। फिल्म में कुछ सिचुएशन नहीं थी। हमने स्टेज पर गाना रखा। गाना क्या प्रभाव डालेगा इसकी कल्पना नहीं थी।
हिंदी वाले प्रेम के गाने अच्छे नहीं लिखते, यह थी मान्यता
बातचीत में कवि प्रदीप ने भारतीय सिनेमा में हिंदी पर भी बात की। वह कहते हैं कि फिल्म लाइन में यह मान्यता है कि हिंदी वाले प्रेम के गाने अच्छे नहीं लिखते, उर्दू वाले और गजल वाले ज्यादा अच्छे लिखते हैं। उस समय प्रोड्यूसर अच्छे थे और अच्छी कहानियां सेलेक्ट करते थे। मैं यही चाहता था कि कुछ ऐसा लिखूं कि मेरा लिखा समाज के काम आए।
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