महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव के साथ 13 राज्यों की रिक्त 46 विधानसभा सीटों और दो लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत की राजनीति मुस्लिम तुष्टीकरण और कट्टरपंथ की आक्रामकता से संचालित नहीं होगी। साथ ही, यह संकेत भी दिया है कि आने वाला समय भारतीय सामाज जीवन के लिए सामान्य नहीं होगा और कट्टरपंथी शक्तियां कुछ नया प्रपंच भी कर सकती हैं।
प्रथम दृष्ट्या इन चुनावों के परिणाम उतने असामान्य नहीं लगते, जितना चुनाव प्रचार में असामान्य बनाने का प्रयास हुआ था। महाराष्ट्र और झारखंड, दोनों राज्यों के सत्तारूढ़ गठबंधनों ने अपेक्षाकृत अधिक बहुमत से सत्ता में वापसी की है। वहीं, 13 राज्यों की 46 विधानसभा सीटों पर भी राज्यों के सत्तारूढ़दलों को ही सफलता मिली। इनमें भाजपा नीत राजग को 26 तथा कांग्रेस नीत इंडी गठबंधन को 20 सीटें मिलीं।
पिछले चुनाव के मुकाबले राजग को 9 सीटों का लाभ हुआ है, जबकि विपक्ष को 7 सीटों का नुकसान। लेकिन ये परिणाम उतने साधारण भी नहीं हैं, जितने दिखते हैं। विशेषकर, महाराष्ट्र व झारखंड विधानसभा तथा उत्तर प्रदेश विधानसभा 9 सीटों पर उपचुनाव परिणामों ने उस धुंध को छांट दिया है, जो मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले दलों ने फैलाने का प्रयास किया था। उनके साथ कुछ इस्लामी विचारक, कट्टरपंथी सामाजिक संगठन और एक विचार विशेष के लिए काम करने वाले कुछ पत्रकार भी थे।
चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस और सपा के बीच मुसलमानों को तुष्ट करने के लिए मानो स्पर्धा चल रही थी।
यह मुस्लिम तुष्टीकरण की पराकाष्ठा ही तो है कि मतदान के दिन कोई राजनीतिक दल यह मांग करे कि मुस्लिम महिला मतदाता की पहचान बुर्का उठाकर न की जाए। इन सबने मिलकर प्रचार के दौरान ऐसा वातावरण बना दिया था, जैसे कि हार-जीत का फैसला केवल मुस्लिम मतदाता ही करने वाले हैं। इसका लाभ दो शक्तियों ने उठाया। एक, वे कट्टरपंथी शक्तियां जो मुसलमानों को सदैव राष्ट्र की मुख्यधारा से अलग रखकर कट्टर और आक्रामक बनाए रखने के बहाने खोजती हैं तथा दूसरी, भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय शक्तियां जो भारत के सामाजिक जीवन में अशांति पैदा कर विकास की गति अवरुद्ध करना चाहती हैं।
इन दिनों आर्थिक, सामरिक, तकनीकी और अंतरिक्ष अनुसंधान में भारत का तेजी से विकास हुआ है। इस विकास गति को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। इन दोनों शक्तियों ने चुनाव को पूरी तरह साम्प्रदायिक मोड़ देने की पूरी कोशिश की। कहीं ‘बटेंगे तो कटेंगे’, तो कहीं ‘एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे’ नारे को मुद्दा बनाकर मुसलमानों में भ्रम फैलाकर भाजपा के विरुद्ध मतदान का आह्वान किया गया। कुछ क्षेत्रों में साम्प्रदायिक मानसिकता का प्रभाव अवश्य देखा गया, जिसकी झलक उन क्षेत्रों के मतदान पर देखी गई। लेकिन अधिकांश मतदाताओं ने तुष्टीकरण, मुस्लिम कट्टरपंथ एवं छद्म सेकुलरों के कुचक्र को नकार कर राष्ट्र के विकास और सकारात्मक मुद्दों को प्राथमिकता दी।
महाराष्ट्र में महायुति को 288 में से 235 सीटों पर, जबकि महा विकास अघाड़ी को 47 सीटों पर जीत मिली। सपा को दो, एआईएमआईएम को एक, जबकि तीन पर निर्दलीय विधायकों ने जीत दर्ज की है। वोट प्रतिशत और सीट, दोनों दृष्टि से भाजपा ने इस बार महाराष्ट्र में सर्वाधिक आंकड़े को छुआ है, वह भी तब जब विपक्ष सहित देश की विकास गति अवरुद्ध करने वाली शक्तियों ने उसे हराने के लिए पूरी ताकत लगा दी थी।
उलेमा बोर्ड का खुला समर्थन, 180 मुस्लिम सामाजिक संगठनों की सक्रियता और सेकुलरिज्म का चोला पहने एक विशिष्ट मानसिकता पर काम करने वाले मुंबई के कुछ पत्रकार भी सक्रिय रहे। ये सभी मुस्लिम मतदाताओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा ही नहीं, इसके सहयोगी दलों के विरुद्ध भी मतदान करने की अपील कर रहे थे।
कथित सामाजिक संगठनों ने मुस्लिम समुदाय के घर जाकर विकल्प भी सुझाए थे, ताकि मुस्लिम वोट न बटें। फतवे भी जारी किए गए। लेकिन ‘वोट जिहाद’ के तमाम प्रयासों के बावजूद महायुति का प्रदर्शन शानदार रहा। भाजपा गठबंधन को उन सीटों पर भी विजय मिली, जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक माने जाते हैं। महाराष्ट्र में ऐसी 38 सीटें हैं, जहां मुस्लिम मतदाता 20 से लेकर 50 प्रतिशत से भी अधिक हैं।
यदि महाराष्ट्र का चुनावी इतिहास देखें तो इन सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं के मतदान का प्रतिशत अधिक होता है और वे एकजुट होकर मतदान करते हैं। लेकिन इस बार भाजपा गठबंधन ने 38 में से 22 सीटें जीती हैं। इसमें भाजपा को 14 और उसके सहयोगी दलों को 8 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को 13 सीटें ही मिलीं। शेष तीन सीटों में दो सपा और एक एआईएमआईएम के खाते में गई।
2019 के विधानसभा चुनाव में इन मुस्लिम बहुल सीटों में से कांग्रेस ने 11 पर जीत दर्ज की थी, पर इस बार वह 5 सीटें ही जीत सकी। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की सिर्फ सीटें कम हुई हैं, उसका मत प्रतिशत भी घटा है। यहां तक कि उसके नवाब मलिक और जीशान सिद्दीकी जैसे कद्दावर नेता भी चुनाव हार गए।
महाराष्ट्र से अधिक उत्तर प्रदेश में चुनाव को साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिशें हुई। राज्य में 9 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव में भाजपा को 7 और सपा को 2 सीटें मिलीं। प्रदेश में सपा, कांग्रेस सहित विपक्षी दलों ने मुस्लिम कट्टरपंथ को प्रोत्साहित किया। इनके साथ अनेक इस्लामी प्रचारक, बीस से अधिक एनजीओ और गाजियाबाद के कुछ पत्रकारों की पूरी टोली भी सक्रिय थी।
उत्तर प्रदेश की जिन 9 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें मीरापुर, कुंदरकी, गाजियाबाद, खैर, करहल, सीसामऊ, फूलपुर, कटेहरी और मझवां हैं। ये सभी मुस्लिम मतदाता के प्रभाव वाली सीटें हैं। मुरादाबाद की कुंदरकी सीट पर तो 60 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम मतदाता हैं, फिर भी यहां से भाजपा के रामवीर सिंह ने 1.44 लाख वोटों के बड़े अंतर से विजय प्राप्त की, जबकि सपा सहित 11 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई। यह इस चुनाव की सबसे बड़ी जीत है। भाजपा को यह सीट 31 वर्ष बाद मिली है।
राजस्थान की 7 में से भाजपा को 5 तथा कांग्रेस व भारत आदिवासी पार्टी को एक-एक सीटी, पश्चिम बंगाल की सभी 6 सीटों पर तृणमूल, असम में राजग ने सभी 5 और बिहार में चार (तीन सीटों का लाभ) सीटें हासिल कीं, जबकि कर्नाटक में कांग्रेस ने 3, केरल में एलडीएफ व कांग्रेस ने एक-एक, पंजाब में आम आदमी पार्टी ने 3 और कांग्रेस ने एक सीट पर जीत दर्ज की। मध्यप्रदेश में भाजपा व कांग्रेस ने एक-एक, छत्तीसगढ़-उत्तराखंड-गुजरात में भाजपा ने एक-एक, मेघालय में एनपीपी ने एक और सिक्किम की दोनों सीटों पर क्रांतिकारी मोर्चा ने निर्विरोध जीत दर्ज की। महाराष्ट्र की नांदेड़ व केरल की वायनाड संसदीय सीट पर उपचुनाव में जीत दर्ज करने के बावजूद लोकसभा में कांग्रेस के 99 सांसद ही रहेंगे।
जिस तरह चुनाव में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों, इस्लामी विचारकों और छद्म सेकुलरों ने सुनियोजित तरीके से काम किया, उसे कमतर नहीं आंका जा सकता। गाजियाबाद में जो छद्म सेकुलर पत्रकार सक्रिय थे, वही लोकसभा चुनाव में जातीय समीकरणों को तूल दे रहे थे। तब न केवल जातिगत आधार पर समाज में विभाजक रेखाएं खींची जा रही थीं, अपितु व्यक्तिगत अपराध की घटनाओं को भी जाति से जोड़कर सनसनीखेज बनाने का प्रयास हुआ, जो अभी भी देखा जा रहा है। लोकसभा चुनाव परिणाम में भी इस जाति आधारित धुंध का प्रभाव देखा गया। सनातन समाज को जाति आधारित गणना में उलझाकर इस बार मुस्लिम समुदाय को संगठित और आक्रामक बनाने का प्रयास हुआ। यह ठीक वैसा ही है, जैसे 1921 के बाद भारतीय समाज जीवन में देखा गया था।
इतिहास गवाह है कि मलाबार हिंसा के बाद जातीय गणित, मुस्लिम कट्टरता बढ़ी थी। वहीं, कांग्रेस ने तुष्टीकरण की राह पकड़ी थी, जिस अभी भी कायम है। लोकसभा चुनाव के बाद से ही मुस्लिम समुदाय को आक्रामक बनाने का प्रयोग किया जाने लगा था। इसे कांवड़ यात्राओं पर पथराव, गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा पर हुए हमलों से समझा जा सकता है।
विधानसभा के चुनाव परिणामों में दोनों प्रकार की झलक है। एक तो सनातन समाज में जागरुकता देखी जा रही है और दूसरे कम सही, लेकिन मुस्लिम समाज में भी जागरुकता बढ़ी है। मुस्लिम समाज का प्रबुद्ध वर्ग कट्टरवाद की राजनीति का मर्म समझने लगा है, इसीलिए आक्रामक प्रचार के बाद भी भाजपा गठबंधन उम्मीदवारों को मुस्लिम वोट मिले। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र की कुछ सीटों पर यह जागरुकता स्पष्ट दिखी।
इन चुनाव परिणामों में हिंदू और मुसलमान, दोनों मतदाताओं में जागरुकता का संदेश यह संकेत भी है कि भारत की विकास गति को अवरुद्ध करने वाली शक्तियां अथवा केवल तुष्टीकरण और हिंदू-मुस्लिम राजनीति करके अपना हित साधने वाले तत्व भी चुप नहीं बैठेंगे। वे कोई नया कुचक्र करेंगे। इस चुनाव प्रचार के दौरान जिस प्रकार इस्लामी विचारकों और उलेमाओं ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और ओडिशा के मुख्यमंत्री मोहन चरण मांझी को तोड़ने का प्रयास किया।
ऐसे प्रयास और बढ़ सकते हैं। इसलिए समाज और सरकार, दोनों के अतिरिक्त राजनीतिक दलों को भी चुनाव में तुष्टीकरण की बजाए राष्ट्र विकास के बिंदु सामने रखकर चुनाव तैयारी करनी होगी। तभी 2047 तक भारत के सर्वोन्नत राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित होने का लक्ष्य पूरा होगा।
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