हम जानते हैं कि लोक, सृष्टि और धर्म, तीनों की उत्पत्ति का समय समान है। ये साथ चलते हैं और प्रलय तक साथ ही रहेंगे। इसलिए ये सनातन है। तीनों साथ हैं तो अस्तित्व चलता है। जो अभी उत्पन्न हुआ है, अभी स्थित है और आगे चलकर उसका लक्ष्य भी होने वाला है वह इन तीनों के सहारे चलता है। यह बात हमारे पूर्वजों ने पहचानी है। इस सत्य को हमारे पूर्वजों ने पाया क्योंकि उन्होंने ही खोजा, बाकी दुनिया ने नहीं खोजा। उन्होंने खोजना बंद कर दिया। ऐसा क्यों होता है? तो, यह आनंद के, सुख के, संतोष के लिए होता है। उसकी राह में जड़, चेतन, चराचर श्रुति भटकती है।
तो सब उस सुख को पाने की खोज करते हैं। अब कुछ पाना है, कुछ खोजना है तो उसके साधन प्रकृति ने दिए हैं, जो बाहर से दिखते हैं। तो पहले बाहर खोजा जाता है। बाहर खोजने पर पता चलता है कि बाहर खोजने से वह नहीं मिलता, कभी लगता है कि मिला पर फीका हो गया। उससे शाश्वत सुख नहीं मिलता। तो वह बाहर नहीं है। लेकिन, बाहर का खाने का दिया है, रहने का दिया है इसलिए उसमें रहना पड़ता है और रहते हैं। उससे उकता भी जाते हैं, उससे मुक्ति भी चाहते हैं। इस अवस्था में फिर रुक जाते हैं कि, बस यही है।
मनुष्य जन्म लेगा, कामनाएं, वासनाएं पूरी करने के लिए दौड़ता रहेगा। कभी उकता कर बैठ जाएगा, विरक्त हो जाएगा, मन में कुंठित हो जाएगा। आनंद तो मिलेगा नहीं, फिर एक दिन मर जाएगा। ऐसा मानकर सब रुक गए। लेकिन हमारे पूर्वज नहीं रुके। उन्होंने जो बाहर नहीं मिला, उसको अंदर खोजा। और फिर उन्हें अस्तित्व की एकता का सत्य प्राप्त हुआ। तब उनको ध्यान में आया कि जो कुछ है वह वहीं है, उसके अलावा कुछ नहीं है। उसकी इच्छा है कि सबका अलग अलग रूप में आविष्कार हो। इसलिए विविधता है। ये कुछ देर चलती है, उसके बाद एकता ही एकता है। इसलिए वह मिथ्या नहीं। यह एक स्तर के बाद नहीं चलती। एकता शाश्वत है। पहले भी है, अभी है और बाद में भी है। विविधता में भी एकता है। एकता ही क्षीर सागर है।
यह दृष्टि हमारे पूर्वजों को मिली। उससे यह भी पता चला कि एकता है तो सब अपना ही है। पता चला कि सब सुखी होंगे तभी हम सुखी होंगे। ‘मैक्सिमम गुड आफ द मैक्सिमम पीपल’; ऐसा होने के बाद भी जो ‘मिनिमल’ बचेगा वह बाकी लोगों का जीना हराम करेगा।
यदि वास्तव में सुख पाना है तो सर्वे सुखिन: संतु के सिवाय कोई मार्ग नहीं है। हमारे पूर्वजों को यह बोध हुआ और इसको व्यवहार में लाने के लिए जो उपकरण चाहिए वह बहुत बड़ा था। तो उसके लिए उन्होंने भारत की निर्मिति की।
भारत बना कैसे? हमारा यह जीवन सनातन है। इतिहास ने आंखें खोलीं, तब भी हम दिखते हैं। और तब जैसे मिले थे, आज कपड़ा, खाना इत्यादि बदला होगा, लेकिन अंदर हम वैसे के वैसे आज भी मिलते हैं। दूसरी जगह नहीं, केवल भारत में मिलते हैं। क्योंकि ऋषियों ने यह सोचा कि यह सबको देना अपना कर्तव्य बनता है, उसका उपकरण एक राष्ट्र होना चाहिए। तब से चला हुआ है ये सनातन राष्ट्र। ‘भद्रमिच्छन्त ऋषय: स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्रम्बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसं नमन्तु।।’ ये ऋषि वनों में रहते थे।
गृहस्थ थे, खेती करते थे। अरण्यों और कृषि में जीवन का जो अनुभव हुआ उससे हमारे लोक, हमारे शास्त्र आदि सबकी उत्पत्ति हुई। कितना बड़ा उद्यम हुआ होगा उस समय? ‘हिमालयं समारभ्य यावत्इंदु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते।।’ पूरी भूमि में तब से लेकर आज तक व्यक्ति साक्षर है या निरक्षर है, दरिद्र है कि लक्ष्मीपति है, कौन से व्यवसाय में है? कौन से घर में जन्मा है? सबको ये बात पता है। जो हमारे ऋषियों को पता थी। अनुभूति नहीं, जानकारी है, संस्कार है।
संस्कार है इसलिए व्यवहार है। किसने यह घर-घर पहुंचाया है? लोग अपने घरबार छोड़कर बाहर निकले हैं। घर-घर में यह ज्ञान पहुंचाना है। विद्या, अविद्या दोनों। आध्यात्मिक आधार पर जो हमने विज्ञान देखा, उसके आधार पर जो जीवन आधार सोचा, उसको सब जगह पहुंचाना है। वे सब लोग गये हैं, जिनको आज हम वनवासी कहते हैं। जिनको आज हम घुमंतू कहते हैं। ये कोई परिस्थिति के चलते वहां नहीं पहुंचे बल्कि प्रकृति ने इस रूप में उनको ग्रहण किया है।
जंगल में रहने वाले हमारे जंगलों के ट्रस्टी थे। हमारा समाज सुशासित, स्वायत्त था तो राजा के पास कुछ मर्यादित काम थे। शासन कुछ मर्यादित काम करता था। अधिकारों से समाज अपने बलबूते चलता था। जो जंगल के ट्रस्टी वनवासी थे, वे जंगल की रक्षा करते थे और जंगल का विस्तार करते थे। समाज को जब जितना चाहिए उतना योग्यता की मर्यादा में करने देते थे। बाकी नहीं करने देते थे। सब धर्म से चलता था।
इस विषय पर कुछ वर्ष पहले मेरी सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति से बात हुई थी, पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से भी बात हुई थी। मैंने उनसे पूछा कि यह ‘ज्यूरिस प्रूडेन्स’ क्या अपना शब्द है? दोनों का उत्तर था कि ये अपना नहीं है। मैंने पूछा, फिर अंदर क्या है? वे बोले कि, यह रूल आफ लॉ है। रूल आफ लॉ कहां से आया? फ्रांस के विलियम ने इंग्लैंड पर आक्रमण किया। किसी तरह इंग्लैंड फ्रांस के कब्जे में आया। राज्य तो बन गया फ्रांस का, बाकी संपदा तो जनता के पास थी। तो उस पर अपना स्वामित्व होना चाहिए, यह सोचकर वहां विद्वानों को खरीदकर उनकी मंडली बनाई गई, जिसे इस पर विचार करने को कहा। उन्होंने रूल आॅफ लॉ बनाया।
लेकिन, हमारे देश में इन सारे संसाधनों पर समाज का स्वामित्व था। विदेशी शासक आये, विशेषकर अंग्रेज आए जिन्हें ये सारा अपने साथ ले जाना था, राजस्व ले जाना था। उसके चलते धीरे—धीरे हम उस स्थिति में पहुंचे कि आज हमको बताना पड़ता है कि ये हमारे ही हैं। यह हमारे लिए दुर्भाग्यपूर्ण है, थोड़ी शर्म की बात है। क्योंकि हमें ये भी नहीं बताया गया कि हम एक हैं। हमारे इतिहास को विकृत कर दिया गया। हमारी सारी व्यवस्थाएं तोड़ दी गयीं। इसलिए जो विमर्श बनता है, वह स्वस्थ नहीं बनता। स्वस्थ्य विमर्श बने, इसलिए हमारा लोकमंथन है।
इसके साथ ही, एक बात और ध्यान में रखनी पड़ेगी कि यह जो सब कुछ हुआ, उसका कारण केवल विदेशी आक्रमण नहीं है। विदेशी आक्रांताओं की तो यह सामर्थ्य नहीं थी कि वे हमको जीत पाते। आज भी नहीं है। हम अध:पतित हुए। दीर्घकाल तक समृद्ध, सुरक्षित और प्रतिष्ठित जीवन जीने के बाद हमें विस्मरण हो गया कि हम कौन हैं? हम क्या करना चाहते हैं? हमारा जीवन ध्येय क्या है? मध्य युग के जब नाट्य वगैरह पढ़ेंगे, तो आपको इसका चित्रण मिलेगा।
महाभारत की कथा में इसके कुछ—कुछ प्रसंग मिलते हैं जिससे लगता है कि समाज का जरा क्षरण हो रहा है। वह क्षरण क्यों हो रहा है? क्योंकि हम आपस का रिश्ता भूल गये हैं। क्यों भूल गए हैं, क्योंकि जीवन ध्येय भूल गए। यह जीवन ध्येय हमारे पूर्वजों ने दिया था कि हमारे राष्ट्र का निर्माण और यह सब साथ कैसे चलाना है और भौतिक जीवन में आध्यात्मिक आधार पर अर्थ, काम ठीक चले, मोक्ष भी मिले इसलिए धर्म का अनुशासन हो। धर्म क्या है? इतनी विविधता में एकता रखकर कैसे व्यवहार करना ताकि सब अपनी अपनी विविधता को सुरक्षित, प्रतिष्ठत रखकर साथ मिलकर चलें।
सृष्टि का धर्म है, जिसके चलने से सृष्टि चलती है। उसमें खलल नहीं डालनी चाहिए। सृष्टि का धर्म है कि अपने को न्योछावर करके भी धर्म की रक्षा करना। एक बार विनोबा जी किसानों से मिलने गये। किसानों ने बताया कि फसलों में बीमारी बहुत हो गयी है। तो विनोबा जी ने कहा कि और बेचो मेंढक। क्योंकि वहां से मेंढकों को पकड़कर प्रयोगशाला के लिए बेचा जाता था। मेंढक खेतों के कीड़े खाकर हिंसा तो करता है, लेकिन उस हिंसा के कारण बहुत सी बीमारियां दूर रहती हैं। यह सृष्टि का धर्म है। उस चक्र को पहचानकर उसके साथ चलने से हम सब सुरक्षित रहते हैं, सृष्टि भी फलती—फूलती है।
हमारा जीवन ध्येय था दुनिया को यह सारा धर्म सिखाना। हम अपने इस जीवन ध्येय को भूल गये। हमने अपने आपको मर्यादित कर लिया। मर्यादित कर लिया इसलिए भूल गये। भूल गये इसलिए संबंध टूट गये, संवेदनाएं ठहर गयीं, स्वार्थ आ गया। इसके चलते हमने ही धर्म के नाम पर बहुत अधर्म किया है। प्रकृति, विकृति और संस्कृति, ये तीन आयामों में चलने वाला लोक। प्रकृति के अनुसार संस्कृति की ओर बढ़ें, लेकिन विकृति की ओर न जाएं। इसका ध्यान नहीं रखा गया। इसके कारण हम दुर्बल हो गये और मुट्ठीभर लोगों का भक्ष बन गये।
अत: हमारे उद्यम के दो काम हैं। संत तुकाराम की एक प्रसिद्ध उक्ति है— रात्रंदिन आह्मां युद्धाचा प्रसंग। अंतर्बाह्य जग आणि मन।। अर्थात ‘हमें रात—दिन अपने से अंदर से और दुनिया से बाहर लड़ना है।’ किसी ने उनसे कहा कि आप तो हरि नाम जपते हैं, इतने अत्याचार के वक्त हाथ में तलवार वगैरह लेकर लड़ते तो हैं नहीं। तो उन्होंने कहा कि हम भी लड़ते हैं, अंदर अपने से लड़ना पड़ता है बाहर दुनिया से। हमारा कार्य ऐसा ही दोधारी कार्य है।
हमको अपने समाज की स्मृति को भी ठीक करना है। क्योंकि उसकी क्षीणता के चलते ही आज ये समस्याएं दिख रही हैं। बस एक बार यह ध्यान आज जाए कि हम एक ही हैं। जैसा यहां पर राष्ट्रपति ने कहा कि नगरवासी, ग्रामवासी, वनवासी, गिरिवासी सब भारतवासी ही हैं। यह केवल भावनाप्रद आह्वान नहीं है, यह खरा सत्य है। ऐसे ही यह भी सत्य है कि संपूर्ण जीवन को पहचानकर उसका ठीक रख—रखाव करने वाली जो संपूर्ण दृष्टि चाहिए, वह भारत की दृष्टि है। बाकी किसी के पास यह दृष्टि नहीं है। जहां से हमने अंदर से देखना शुरू किया, विज्ञान उस दहलीज तक पहुंच गया है।
इस तरह की अनुभूति सिर्फ हमारे राष्ट्र में है। इस अनुभूति को रखने वाले आज भी भारत में जगह—जगह मिलते हैं। उनका कोई प्रचार—प्रसार नहीं है, पर वे हैं और लोगों को उपलब्ध रहते हैं। हमको भारत की इस विस्मृत अस्मिता को फिर से परिचित कराना है। परंतु हमारे लिए कठिनाई यह है कि हम उसी पद्धति से पले—बढ़े हैं, जो इसकी विस्मृति कराती हैं। इसलिए कभी कभी हम भी कहते हैं कि भारत का तत्व ज्ञान विज्ञान सम्मत है।
हमको विचार उलटा करना चाहिए कि विज्ञान भारत के तत्व से सम्मति प्राप्त कर रहा है कि नहीं। वे दिन आने वाले हैं। क्या आपना धर्म विज्ञानसम्मत है? मैं कहता हूं कि विज्ञान धर्मसम्मत है कि नहीं। आज वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस है तो सही लेकिन इसके एथिक्स? तो एथिक्स की बात तो पहले आती है।
शक्ति किसके हाथ में है? फर्क खलता और साधुता के बीच का है। साधन सबके लिए है, लेकिन कौन पाता है? उपयोग करने वाले की बुद्धि कैसी है? हृदय कैसा है? उसी बुद्धि और हृदय को तैयार करने वाला भारत का विचार है। इस तरह के प्रश्न क्यों आते हैं? क्योंकि अभी भी हम उस चौखट में अपना विचार कर रहे हैं। इससे नहीं होगा। वह चौखट एकदम अलग है। भारत की अपनी चौखट है। उसमें तर्क को, विवेक को स्थान है, अंधश्रद्धा बिल्कुल नहीं है।
हमारे यहां ‘फेथ’ नाम का शब्द नहीं है, इस पर हम विश्वास नहीं करते। हम स्वीकार करते हैं, परीक्षा के बाद। रामकृष्ण परमहंस को पूछते हैं कि आप बता रहे हैं, आपने देखा है क्या? ऐसा पूछने वाला विवेकानंद बनता है। लेकिन उसके लिए तपस्या करनी पड़ती है। वह तपस्या हमको करनी पड़ेगी। हमारे सामने दस करणीय बातें रखी गईं, लेकिन वे प्रत्यक्ष में तब आयेंगी, जब हम अपने से प्रारंभ करेंगे। सारी दुनिया के अच्छे विचार लेने हैं। भारत के विचार छोड़कर बाकी सबके खराब ही हैं, ऐसा नहीं है। क्योंकि जैसे कभी वे रुक गये थे, कलियुग के प्रारंभ के कुछ शतकों में हम भी रुक गये इसलिए हममें बहुत सारी विकृतियां आयीं।
उस समय दूसरे भौतिक दिशा में चले। तो उधर से लेने लायक बहुत कुछ हो सकता है। महल तो युधिष्ठर का बनना था, लेकिन बुलाया मैक्सिको से मायासुर को, क्योंकि वह सर्वश्रेष्ठ शिल्पी था। उसने नए महल की रचना की। परंतु यह ध्यान रखना है कि चौखट, निर्माण नया होगा। कपड़े नये होंगे, रूप नया होगा परंतु आत्मा वही होगी, तत्व वही होगा, जो काम वही करेगा। इसलिए हमको शाश्वत धर्म, संस्कृति को युगानुकूल रूप देने के लिए चिंतन करना पड़ेगा। इसके लिए हम सबको मूल से अध्ययन करके अपने विचारों को उस चौखट में बैठाना पड़ेगा। इसके लिए विशेषकर नये पीढ़ी को सोचना पड़ेगा। उधर से प्रश्न आएंगे और हम उत्तर देते रहेंगे, ऐसा खेल हमको नहीं खेलना है। क्योंकि व्यावहारिक और तात्विक धरातल पर हम जीत गए हैं। हारने के बाद भी हार दिखानी नहीं है, इसलिए गाली दी जाती है। ऐसा कुछ हो रहा है।
ईश्वर को मानने वालों या न मानने वालों आदि के 2000 साल में जितने भी प्रयोग लोग करते रहे, वे थक चुके हैं, लड़खड़ा रहे हैं और भारत की ओर देख रहे हैं। हमको उनके प्रश्नों के जवाब क्यों देने हैं? उनके मैदान में जाकर उनके नियम से कबड्डी नहीं खेलनी है। हमको अपने मैदान में दुनिया को लाना है। इस दृष्टि से हम संभलें, तन्मय हों। क्योंकि यह सत्य ऐसा है जो तन्यमयता से ही मिलता है। तन्मयता आत्मीयता से ही आती है। जिस तरह से हम यह कार्यक्रम बड़े-बड़े शहरों में करते हैं उसी तरह हमें छोटे छोटे गुटों में गांवों, जंगलों में जाकर छोटे-छोटे लोकमंथन करने चाहिए।
वहां के लोग हमारे साथ बैठने चाहिए। वहां हम श्रद्धा से पूछेंगे तो वे उत्तर देंगे। लोक को समझने के लिए लोगों में जाना पड़ेगा।भारत को उठना है, भारत को बड़ा होना है। अभी चारों वही लोग दिखते हैं, जिनके साथ लेकर ऐसा करना पड़ेगा, तो फिर जल्दी समझ में आएगा। यह अनुभूति की बात है। अनुभूति हमको बताती है कि इस विश्व में हम किसी के शत्रु नहीं, हमारा कोई शत्रु नहीं। हम मार नहीं खाएंगे। हम अपने को हानि नहीं करने देंगे। हम प्रतिकार करेंगे, लड़ेंगे। जिसको वह परीक्षा करनी है कर ले, परंतु हम किसी से लड़ते नहीं।
हमको विमर्श को गढ़ने में सकारात्मकता ही बरतनी चाहिए। क्योंकि हारी हुई दुनिया के प्रश्नों का क्या उत्तर देना। उनके आक्षेप को क्या गिनना। हमें कहां किसकी क्या गलती है, यह बताने की बजाय सही क्या है, वही बताना है। ऐसा विमर्श हमको गढ़ना पड़ेगा क्योंकि आज सारे विश्व को प्रतीक्षा है। विश्व का नेतृत्व करने वाले लोगों के साथ बहुत सारी बातें रहती हैं। लेकिन समाजों में उत्सुकता है। वे लोग भारत से मार्ग पूछ रहे हैं। इसलिए भारत को अपना रास्ता ठीक-ठीक पता हो, इसके लिए विमर्श को ठीक बनाना है, इसलिए मंथन जरूरी है। मंथन से अमृत निकलेगा, हमको वही देना है।
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