गोधरा नरसंहार पर अंग्रेजी दैनिक द हिन्दुस्तान टाइम्स के तत्कालीन मुख्य संपादक वीर संघवी ने एक तथ्यपरक आलेख लिखकर सेकुलर तंत्र के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा किया था। यहां प्रस्तुत है
पाञ्चजन्य के 10 मार्च 2002 अंक में प्रकाशित श्री संघवी का वही आलेख
गोधरा में हुए नरसंहार पर सेकुलर कहे जाने वाले तंत्र की प्रतिक्रिया में कुछ अत्यंत चिन्तित कर देने वाली बात है। हालांकि घटना के विवरण को लेकर कुछ मतभेद हैं, पर हम जानते हैं कि रेल की पटरियों पर क्या घटा था। गोधरा स्टेशन को छोड़ने के तुरंत बाद ही 2000 लोगों की भीड़ ने साबरमती एक्सप्रेस को रोका। रेलगाड़ी के कई डिब्बों में अयोध्या में पूर्णाहुति यज्ञ में भाग लेकर लौट रहे कारसेवक बैठे थे। भीड़ ने पेट्रोल और एसिड बम सहित रेल पर हमला कर दिया। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार विस्फोटकों का भी उपयोग किया गया था। चार डिब्बे जलकर राख हो गये और दर्जनों बच्चों सहित कम से कम 57 लोग जिंदा जला दिए गए।
कुछ वर्णन ऐसे भी हैं कि कारसेवकों ने मुस्लिम विरोधी नारेबाजी की थी। कुछ अन्य के अनुसार उन्होंने मुस्लिम यात्रियों पर छींटाकशी की थी और उन्हें तंग किया गया था। इन वर्णनों के अनुसार, मुस्लिम यात्री गोधरा उतरे और अपने समुदाय के लोगों से मदद की गुहार की। अन्य लोगों का कहना है कि उनके नारों ने स्थानीय मुसलमानों को इतना भड़का दिया कि उन्होंने बदला लेने को हमला किया।
इन बयानों की असलियत पता लगने में अभी थोड़ा समय लगेगा। पर कुछ बातें साफ हैं। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि हिंसा कारसेवकों ने शुरू की। उनके बारे में सबसे खराब बात यही कही गई कि उन्होंने कुछ यात्रियों से दुर्व्यवहार किया था। इसके साथ ही यह आश्चर्यजनक लगता है कि चलती गाड़ी में अथवा रेलवे स्टेशन पर लगाए नारों से स्थानीय मुसलमान इतने क्रुद्ध हो गए कि सुबह 8 बजे ही 2000 की संख्या में इकट्ठे हो गए और उन्होंने पेट्रोल और एसिड बम का भी इंतजाम कर लिया!
भले ही आप कुछ कारसेवकों के बयानों को न मानें कि हमला पूर्वनियोजित था और भीड़ पूरी तैयारी से इंतजार में थी, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जो कुछ घटा, वह इतना अक्षम्य, अरक्षणीय और असंभव है कि इसे किसी बड़ी उत्तेजना का परिणाम नहीं कहा जा सकता। और तब भी सेकुलर तंत्र ने इस पर ऐसी ही प्रतिक्रिया की है।
टेलीविजन पर दिखने वाले प्रत्येक गैर भाजपा नेताओं और लगभग पूरे मीडिया ने इस नरसंहार को अयोध्या आंदोलन की प्रतिक्रिया के रूप में लिया। नरसंहार का शिकार चूंकि कारसेवक हुए थे, अत: यह सब जायज है! परंतु लगभग सभी लोगों ने स्वाभाविक रूप से उभरे बिन्दुओं की चर्चा करना उचित नहीं समझा-यह कारसेवकों द्वारा खुद अपने ऊपर लादी गई घटना नहीं थी।
अगर दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वस्त करके आ रहे रेलगाड़ी में लदे विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं पर हमला हुआ होता, तब भी यह गलत ही होता, पर कम से कम उत्तेजना की बात समझ में आ सकती थी। लेकिन इस बार किसी भी प्रकार की कोई वास्तविक भड़काने वाली बात नहीं थी। यह संभव है कि विश्व हिन्दू परिषद सरकार और अदालतों की अवज्ञा करते हुए अंतत: मंदिर निर्माण के काम में आगे बढ़ जाए, परन्तु आज जो स्थिति है, उससे तो ऐसा कुछ नहीं हुआ है। न ही अभी तक अयोध्या में कोई वास्तविक टकराव ही हुआ है।
लेकिन इसके बावजूद हर सेकुलर टिप्पणी का अंतर्निहित संदेश एक ही है कि कारसेवकों ने यह सब स्वयं आमंत्रित किया। अर्थात मूलत: ये अपराध की तो भर्त्सना करते हैं लेकिन उसके लिए शिकार लोगों को दोषी ठहराते हैं। इस घटना को उस सेकुलर चौखटे से बाहर निकालकर, जिस चौखटे को हमने भारत में एक सुघड़ आदर्श रूप दे डाला है, दूसरे संदर्भों में लागू करने की कोशिश करें और देखें कि यह रवैया तब कितना अजीब लगेगा। जब न्यूयॉर्क के विश्व व्यापार केन्द्र पर हमला हुआ तो क्या हमने कहा था कि न्यूयॉर्क ने इस हमले को स्वयं आमंत्रित किया है? तब भी अमेरिकी नीतियों के विरुद्ध कट्टरपंथी मुसलमानों में बहुत अधिक रोष था। परन्तु तब तो हमने इस बात की चर्चा तक नहीं की कि यह रोष न्यायसंगत था कि नहीं।
इसके बदले हमने सोच की वह धारा अपनाई जो हर समझदार आदमी को अपनानी चाहिए यानी कोई भी नरसंहार बुरा है और उसकी भर्त्सना की ही जानी चाहिए। जब ग्राहम स्टीन्स और उनके बच्चों को जिंदा जला दिया गया तो क्या हमने कहा कि कन्वर्जन की गतिविधियों में शामिल होकर ईसाई मिशनरियों ने स्वयं को अलोकप्रिय बना लिया है।
इसलिए जो कुछ भी हुआ, वह उनकी अपनी करनी का परिणाम था? नहीं, नि:संदेह हमने ऐसा नहीं कहा। फिर हम क्यों इन बेचारे कारसेवकों को एक अपवाद बना रहे हैं? क्यों हम उनको इस हद तक अमानवीय रूप में देखने लगे हैं कि उस घटना को एक मानवीय शोकांतिका के रूप में देखने तक से इनकार कर देते हैं, जबकि वह असंदिग्ध रूप से मानवीय शोकांतिका थी और उस घटना को विश्व हिन्दू परिषद की कट्टरपंथी नीतियों का एक और परिणाम मानकर चलते हैं?
मुझे लगता है, इसका उत्तर यह है कि हम हिन्दू-मुस्लिम सम्बंधों को बहुत ही हल्के ढंग से देखने के आदी हो गए हैं और यह कि-हिन्दू भड़काते हंै और मुसलमान सहते हैं।
पर जब यह फार्मूला काम नहीं करता-अब तो यह साफ है कि अच्छी तरह से सशस्त्र मुसलमानों को भीड़ ने नि:शस्त्र हिन्दुओं की हत्या की-तो हम समझ ही नहीं पाते कि इस स्थिति में क्या रुख अपनाया जाए। हम इस सच्चाई से मुंह मोड़ने लगते हैं कि कुछ मुसलमानों में ऐसा कृत्य किया जो अरक्षणीय है, और उलटे शिकार हुए लोगों पर ही दोषारोपण करने लगते हैं। निश्चित रूप से इस रवैए के लिए भी हमेशा ‘तार्किक कारण’ पेश किए जाते हैं-यह कि ‘मुसलमान अल्पसंख्यक हैं इसलिए विशेष ध्यान दिए जाने के पात्र हैं, मुसलमान तो पहले से ही भेदभाव के शिकार हैं, इसलिए अब क्यों उनकी जिंदगी और दुश्वार की जाए’। अगर आप सच्चाई छापेंगे तो उससे हिन्दू भावनाएं भड़केंगी जो गैर जिम्मेदाराना काम होगा। वगैरह-वगैरह।
मैं इन सभी तर्कों को अच्छी तरह से जानता हूं, क्योंकि मैंने भी इनका अन्य अधिकांश पत्रकारों की भांति इस्तेमाल किया है और मैं अभी भी यह कहूंगा कि वे तर्क अक्सर वैध और आवश्यक होते हैं। लेकिन एक वक्त ऐसा आता है जब इस प्रकार की कट्टर ‘सेकुलरवादी’ संरचना न सिर्फ हद पार कर जाती है बल्कि परिणाम देती है। जब हर कोई देख रहा है कि रेलगाड़ी में भरे हिंदुओं का मुस्लिम भीड़ द्वारा नरसंहार कर दिया गया तो इन हत्याओं का दोष विश्व हिंदू परिषद पर डालने या यह तर्क देने कि ‘मृतक स्त्रियों और पुरुषों ने अपनी मौत खुद बुलाई थी’, का कोई अर्थ नहीं होता। न सिर्फ इससे मृतकों का अपमान होता है (और उन बच्चों के बारे में क्या कहेंगे? क्या उन्होंने भी अपनी मौत खुद बुलाई थी?), बल्कि इससे पाठक की बुद्धि का भी अपमान होता है।
यहां तक कि उदारवादी हिंदू भी, वे हिंदू जो विश्व हिंदू परिषद से वितृष्णा रखते हैं, गुजरात से आने वाले समाचारों से घोर व्यथित हैं। समाचार, जो 1947 की दुखदायी याद दिलाते हैं, जिनके विवरण बताते हैं कि किस प्रकार डिब्बों को पहले बाहर से बंद कर दिया गया और फिर उनमें आग लगा दी गई। और किस प्रकार सबसे ज्यादा क्षति महिलाओं वाले डिब्बे में हुई। कोई भी मीडिया, वास्तव में कोई भी सेकुलर तंत्र, जो लोगों की वास्तविक चिंताओं पर ध्यान देने में विफल रहता है, इससे उसकी साख खत्म होने का अंदेशा रहता है।
कुछ इसी प्रकार का घटनाक्रम 1980 के दशक के मध्य में हुआ था जब समाचारपत्रों और सरकार द्वारा अपनाए गए आक्रामक, कट्टर सेकुलरवाद ने उदारवादी हिंदुओं को भी यह विश्वास करने पर विवश कर दिया था कि वे अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक बन गए हैं। यह वही हिंदू प्रतिक्रिया का ज्वार था, जिसने तब तक हाशिए की गतिविधि समझे जाने वाले अयोध्या आंदोलन को सबसे आगे ला खड़ा किया और लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा के उभार को तीव्र गति प्रदान की। मुझे डर है कि एक बार फिर कुछ वैसा ही होगा।
विश्व हिन्दू परिषद हिन्दुओं के लिए स्वाभाविक सवाल पूछेगी: ऐसा क्यों है कि जब स्टीन्स को जलाया जाता है तो वह शोकांतिका मानी जाती है और जब उसी बदकिस्मती का प्रहार 57 कारसेवकों पर होता है तो उसे सिर्फ ‘अपरिहार्य राजनीतिक घटनाक्रम’ कहा जाता है? चूंकि सेकुलरवादी होने के नाते हम इसका कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे सकते इसलिए विश्व हिन्दू परिषद के जवाबों पर ही यकीन किया जाएगा। एक बार फिर हिन्दू यह मानने लगेंगे कि उनके दु:ख किसी नतीजे पर नहीं पहुंचाते और वे सेकुलर उपेक्षा के सामने हिन्दू स्वाभिमान की अभिव्यक्ति के रूप में अयोध्या में मंदिर का निर्माण देखने को उत्सुक हो उठेंगे।
परन्तु अगर ऐसा न भी हो, और हिंदू प्रतिक्रिया के ज्वार का कोई खतरा भी न हो तो भी मैं सोचता हूं कि सेकुलर तंत्र को आत्मचिंतन करना चाहिए। एक सवाल है जिसे हमें अपने आपसे पूछने की जरूरत है : क्या हम अपनी ही वाक्पटुता के ऐसे बंदी बन गए हैं कि एक भयावह नरसंहार तक हमारे लिए संघ परिवार की निंदा के एक और मौके से कुछ अधिक नहीं रहता?
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