विश्लेषण

हम सिख हिंदू ही हैं

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डॉ. सुरजीत सिंह

सोशल मीडिया आदि के माध्यम से सिख-हिंदू अलगाववादी नरेटिव को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर प्रसारित किया जा रहा है। इस नरेटिव से वह लोग अधिक प्रभावित होते हैं जो गुरू ग्रंथ के सामने माथा तो अवश्य टेकते हैं परन्तु उनके पास गुरू की वाणी को समझने के लिए समय नहीं है। गुरू ज्ञान के समक्ष उपासना पद्धति और बाहरी चिन्ह कोई मायने नहीं रखते हैं, बल्कि यह वाणी तो हमें अपने आप से जोड़ती है। ब्रिटिश शासन के प्रभाव में 1898 में काहन सिंह नाभा ने उपासना पद्धति और बाहरी चिन्हों के आधार पर यह लिखा था कि ‘हम हिंदू नहीं है‘। काहन सिंह नाभा यदि गुरू गोबिंद सिंह के क्रांतिकारी बहुपक्षीय जीवन उद्देश्यों को निष्पक्ष तरीके से समझने का प्रयास करते तो शायद उन्हें यह पुस्तक लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। 13 अप्रैल 1699 ई. तक सभी नौ गुरूओं की तरह गुरू गोबिंद सिंह भी एक श्रद्धावान हिन्दू थे।

औरंगजेब के समय देश जब सांप्रदायिकता की आंधी से घिरा हुआ था, उस समय पटना में पैदा होने वाली यह शख्सियत आनंदपुर के किले में बैठ कर यह विचार कर रही थी कि देश के लोगों को जाति-पात के बंधनों से मुक्त कर उनमें किस प्रकार से साहस का संचार किया जाए। हिंदू पंडितों की रक्षा के लिए अपने पिता गुरू तेग बहादुर के बलिदान के साथ-साथ उनके साथ शहीद हुए सतीदास, मतिदास और दयाला का बलिदान उन्हें यह समझने की प्रेरणा दे रहा था कि गुरू घर से जुड़ा प्रत्येक व्यक्ति जरूरत पड़ने पर देश हित में अपना बलिदान भी दे सकता है।

तत्कालीन समय की आवश्यकता को समझते हुए गुरू गोबिंद सिंह ने देश के लोगों में नये साहस, बल और उत्साह का संचार करने के लिए खालसा पंथ की स्थापना की। जिसकी कमान खत्री, जाट, धोबी, नाई और कुम्हार जाति के पांच प्यारों को सौंपी थी। समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों और नीची जातियों के हाथों में माला के साथ-साथ भाला पकड़ा कर एक निर्भय कौम में बदल दिया। कवि योद्धा गुरू गोबिंद सिंह द्वारा रचित दशम ग्रंथ के रामावतार, कृष्णावतार, चण्डी की वार आदि का प्रत्येक छंद वीर रस से इतना ओतप्रोत है कि उसको पढ़ने और सुनने से ही व्यक्ति के खून का एक-एक कतरा फड़कने लगता है। यह सब उन्होंने इसलिए लिखा कि योद्धा को जंग में लड़ने की प्रेरणा को जुझारूपन में बदला जा सके।

गुरू गोबिंद सिंह ने निर्बल लोगों में युद्ध करने की मानसिकता को पैदा करने के बाद ही कहा कि ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊ……..।‘ अमृत छकने वाले हर एक व्यक्ति को कहा जाता है कि आज से आप गुरू के खालसा हो गए हो। आपकी पिछली जात-पात एवं वर्ण, गोत्र आदि सभी समाप्त हो गए हैं, अब आप केवल खालिस सिख हैं। जिसका मन नीवा और मत ऊंची होगी। गुरू गोविंद सिंह का उद्देश्य सिखों की एक ऐसी फौज खड़ी करना था जो हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहे।

यह लेख उनके लिए नहीं है जो गुरू ग्रंथ साहिब को पढ़ने के साथ-साथ समझने का प्रयास भी करते हैं। यह लेख उन लोगों के लिए है जो सिख होने के बावजूद गुरू ज्ञान की परंपरा से बहुत दूर चले गए हैं और सिखों को हिंदुओं से अलग मानते हैं।
आदि शंकराचार्य के बाद समाज में बढ़ते पाखंडों और कर्मकांडों की प्रतिक्रियास्वरूप भक्ति काल का उदय हुआ। जिसमें गुरू नानक भी एक प्रमुख सुधारक थे। गुरू नानक ने कोई धर्म नहीं चलाया था, बल्कि उन्होंने कबीरदास की तरह हिंदू धर्म की कुरीतियों से दूर करने का प्रयास करते हुए जीवन की शुद्धता पर बल दिया। भाई मनी सिंह अपनी पुस्तक ज्ञान रतनावली में लिखा है कि एक बार गुरू नानक से हाजी ने पूछा कि ‘हे फकीर, आप हिंदू है या मुसलमान।‘ गुरू नानक का जवाब था कि ‘मैं हिंदू और मुसलमानों दोनों को ही सही रास्ते पर लाने आया हूं।‘ भारतीय दर्शन और गुरू नानक बाणी में समानता अनेक पदों में दिखाई देती है।

एक नूर ते सभ जग उपजिया कउन भले कउ मंदे।
सभु को मीत हम आपन कीना हम सभना के साजन

एक पिता एकस के हम बारिक

6 गुरूओं, 15 भक्तों, 11 भाटों आदि की वाणी गुरू ग्रंथ साहिब में अंकित है, जिसमें 8344 बार हरि, 2533 बार राम, 475 बार गोविंद, 97 बार मुरारी शब्द आया है। जो यह स्पष्ट करती है कि गुरू ग्रंथ साहिब की ज्ञान-चिंतन परंपरा वैदिक परंपरा के काफी नजदीक है। गुरु ग्रन्थ साहिब की प्रमुख भाषा पंजाबी है इसके बावजूद मराठी, बंगला, संस्कृत, ब्रज, फारसी आदि भाषाओं का प्रयोग मिलता है। वास्तव में गुरू ग्रंथ साहिब की वाणी सत्य को अनुभव करने की है। जीवन की सच्चाई को खोजने की है। गुरू गंथ साहिब में भारतीय दर्शन में सृष्टि रचना का सिद्धांत त्रिदेव से जुड़ा हुआ है। ये तीनों सृष्टि के कर्ता-धर्ता-हर्ता हैं। गुरू ग्रंथ साहिब की सारी चिंतन शैली एक तरह से संसार की सारी रचना प्रक्रिया को एक संक्षिप्त व्याख्या करती है। दोनों की ज्ञान परंपरा एक है। दोनों की जड़े दार्शनिक हैं, तो फिर भारत की मिट्टी से उपजा सिख पंथ हिंदू धर्म से अलग कैसे हो सकता है।

सिखों का समाज में इतना मान सम्मान था कि लोग गर्व से अपने बड़े बेटे को सिख बनाते थे। यदि कोई हिंदू से सिख बनता था तो इसे समाज में फ़क्र की बात मानी जाती थी। समाज ने इसे कभी भी धर्म परिवर्तन नहीं माना। बदलते समय में आज धर्म परंपराओं को नए सिरे से समझने की जरूरत है। हर पंथ की अपनी एक अस्मिता होती है। जिसका सम्मान होना चाहिए। गुरू ग्रंथ साहिब का उद्देश्य सिख को एक आदर्श मानव बनाना है। गुरू ग्रंथ साहिब के अधूरे ज्ञान से ही अलगाववाद की अवधारणाएं पनपती है। इसी का लाभ लेकर ग्लोबल शक्तियां और विभाजनकारी राजनीति हिंदू-सिख एकता में दरार पैदा करने का लाभ लेने लगती हैं। भारत की शक्ति को कमजोर करने की एक साजिश रची जा रही है। जिसका सबसे ज्यादा नुकसान सिखों को ही होगा। 1984 की घटना में कुछ लोगों ने अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए हिंदू-सिखों में एक विभाजन रेखा खीचनें का प्रयास किया था। इसलिए आज गलत नरेटिव से सचेत रहने के साथ-साथ सिखों को समझना होगा कि हम सिख हिंदू ही है।

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