हाल ही में प्रदर्शित फिल्म ‘द साबरमती रिपोर्ट’ ने इतनी बात तो साफ कर दी है कि 2002 गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में जिंदा जला दिए गए राम-भक्तों को लेकर वामपंथी और सेकुलर मीडिया ने जान-बूझकर यह झूठ बोला था कि ‘‘यह एक दुर्घटना थी।’’ ऐसे पत्रकारों ने यह भी कहा था, ‘‘शायद स्टोव के फटने या सिगरेट की चिंगारी या फिर शार्ट सर्किट से रेलगाड़ी में आग लगी थी।’’
इसमें दो राय नहीं कि गोधरा के सच को षड्यंत्रपूर्वक छुपाया गया, वहीं इसके बाद हुए दंगों को बढ़ा-चढ़ा कर और तोड़-मोड़ कर दिखाया गया। लेकिन फिल्म में गुजरात का दंगा विषय ही नहीं है। इसलिए तीस्ता सीतलवाड के कारनामों का जिक्र आया ही नहीं।
फिल्म की निर्माता एकता कपूर से आप बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं कर सकते, लेकिन उन्होंने एक छोटा-सा काम इस फिल्म के जरिए कर दिया है। यह उनकी सामान्य क्षमता से काफी ज्यादा है।
यह हम सबको पता है कि गोधरा में हुए हिंदू नरसंहार को देखते हुए तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त जेम्स माइकल लिंगदोह ने गुजरात विधानसभा के चुनाव में 6 महीने की देरी करवाई थी। अनुमान लगाया जा रहा था कि गोधरा कांड और उसके कारण हुए दंगों को लोग भूल जाएंगे और चुनाव पर इसका असर कम से कम होगा। लेकिन ये सारे समीकरण विफल हो गए। गुजरात की 182 विधानसभा सीटों में से 181 पर चुनाव हुआ। भाजपा को 127 सीट पर जीत मिली और दूसरी बार नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बने। इसके बाद नरेंद्र मोदी के प्रति हिंदुओं का भरोसा बढ़ता गया और वह आज भी दिखता है।
नरेंद्र मोदी की जीत के बाद वे पत्रकार सदमे में चले गए थे, जिन्होंने गोधरा के सच को दबाया था। इनके आकाओं के काम न तो गोधरा का झूठ आया था, और न गुजरात पर उड़ेला जाने वाला जहर। हालांकि जिन पत्रकारों ने गोधरा के सच को दबाने का प्रयास किया था, वे समय-समय पर बेनकाब होते रहे हैं। एक ऐसी ही घटना की चर्चा जरूरी लग रही है। बात 23 मार्च, 2003 की है। इस दिन नई दिल्ली के अशोक होटल में रॉटरी क्लब का वार्षिक उत्सव था। इसमें इस लेखक के अलावा करण थापर, बरखा दत्त आदि भी थे। गोधरा और गुजरात चुनाव की चर्चा चली तो ये सारे भाग खड़े हुए। किसी में सच का सामना करने का साहस नहीं था।
इस संदर्भ में एक और प्रकरण का उल्लेख जरूरी है। उन दिनों उर्दू के पत्रकारों ने दिल्ली के प्रेस क्लब में विश्व हिंदू परिषद् के डॉ. सुरेंद्र जैन और इस लेखक को बोलने के लिए आमंत्रित किया। हम दोनों ने खुलकर बोला। इसके बाद उर्दू के पत्रकारों ने हंगामा शुरू कर दिया। उस सभा में अरुंधति रॉय भी मौजूद थीं। इस लेखक ने अरुंधति रॉय के लिए कहा, ‘‘आपने अच्छा किया है कि अपना झूठ कबूल करके ‘आउटलुक’ पत्रिका में अपना माफी-नामा छपवाया है।’’ झूठ यह था कि अरुंधति रॉय ने गुजरात के दंगों के संदर्भ में लिखा था, ‘‘कांग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की बेटी के साथ हिंदुओं ने बलात्कार किया, और फिर उन्हें जला कर मार डाला।’’ लेकिन इस झूठ की पोल एहसान जाफरी की बेटी ने ही खोल दी। उसने अमेरिका से स्पष्टीकरण दिया, ‘‘वह अपने पति और बच्चों के साथ अमेरिका में सुरक्षित है। वह न तो गुजरात में थी और न ही किसी अपराध का शिकार हुई।’’ इसके बाद अरुंधति रॉय को मजबूरन माफी मांगनी पड़ी थी। फिल्म में सच्चा पत्रकार समर कुमार अंत में विजयी होता है। वह एक-एक मृतक का नाम और उम्र बताता जा रहा है। वह उस भावना को साकार कर रहा है, ‘‘अयोध्या के शहीदों को, भूलो मत, भूलो मत।’’
फिल्म में यह दृश्य जबर्दस्ती जोड़ा गया है कि 2007 में सच की खोज में गए पत्रकार समर कुमार और अमृता गिल ने गोधरा में ये देखा कि वहां के सारे के सारे बच्चे, चाहे वे मदरसे में सूरा नंबर 9, आयत नंबर 5 पढ़ते हों, चाहे केंद्रीय विद्यालय में डार्विन की ‘थ्योरी आफ इवोल्यूशन’ सीखते हों, सारे बच्चे पाकिस्तान की क्रिकेट टीम के ऊपर भारतीय टीम की विजय की खुशियां उछल-उछल कर मना रहे थे, और दीवाली की तर्ज पर अनार जला रहे थे। बैकग्राउंड से गाना आ रहा था जिसका तात्पर्य यह है कि सद्दाम सुपारीवाला नाम के एक मुसलमान ने करीब 1,500 मुसलमानों की भीड़ को इकट्ठा करके मासूम कारसेवकों की जघन्य हत्या भले ही करवाई हो, लेकिन भारत माता के प्रति जितना प्यार एकता कपूर के दिल में है उतना ही प्यार देश के हर मुसलमान बच्चे के मन में है।
फिल्म में घिसे-पिटे डॉयलॉग हैं- ईमानदार लोग दोनों तरफ होते हैं। जैसे कि निर्माता-निदेशक यह सफाई दे रहे हों कि हमने गोधरा का सच तो जाहिर कर दिया कि वह कोई दुर्घटना नहीं थी, बल्कि सद्दाम और साजिद जैसे कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा पहले से सोच-समझ कर किया गया नरसंहार था। और उनके ऊपर एक ‘मास्टरमाइंड’ भी था, मौलवी हबीब, जिसको मुलसमानों की तरफ से एक कथित ईमानदार महिला मेहरुन्निसा अंत में हिदायत देती है कि आप पकिस्तान चले जाएं। फिल्म का संदेश यह है कि आप लोग किसी गलतफहमी में न आ जाएं। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा। अर्थात् एकता कपूर सेकुलर हैं, और सेकुलर ही रहेंगी।
फिल्म में बहुत कुछ दिखाया जा सकता था, लेकिन नहीं दिखाया गया है। फिल्म में यह दिखाया गया है कि समर और अमृता जले हुए एस-6 डिब्बे में जाते हैं, जहां पर समर अमृता को समझाता है कि इतनी बड़ी आग किसी स्टोव के एक लीटर तेल से लग ही नहीं सकती थी। या एक सिगरेट की चिंगारी से भड़क ही नहीं सकती थी । इतनी सी बात समझने-समझाने के लिए डिब्बे के अंदर जाना जरूरी नहीं था। समझने की बात यह थी कि मौके पर सिर्फ पत्थर पड़े थे, बाल्टियां नहीं। अगर करीब 1,500 मुसलमानों की भीड़ कारसेवकों को मारने नहीं, बचाने पहुंची होती, तो पत्थर लेकर क्यों जाती? फिल्म में यह नहीं दिखाया गया है कि डिब्बे का दरवाजा अगर बाहर से तार बांध कर बंद न भी किया गया होता, तो भी वह नहीं खुल सकता था। दरवाजा हमेशा अंदर की तरफ खुलता है। जब भीड़ दरवाजे के अंदर जमा हो जाती है, तो दरवाजा जाम हो जाता है।
फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि फिल्म खत्म होने के बाद जब लोग उठ कर जाने लगते हैं, तब लिखा हुआ आता है, ‘‘गोधरा की साजिश के लिए 31 अपराधियों को सजा हुई, जिनमें 11 लोगों को मृत्युदंड मिला।’’ यानी फिल्म की सबसे महत्वपूर्ण बात ज्यादातर दर्शकों ने न सुनी होगी, न पढ़ी होगी।
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