ओलंपिक्स में तलवारबाजी एक खेल होता है और जिसमें हर देश के खिलाड़ी भाग लेते हैं। तलवार चलाना एक कौशल है जो आत्मरक्षा के लिए और खेल के रूप में दोनों ही रूप में आवश्यक है। यह एक कौशल है, जिसका विकास बचपन से ही किया जाता है। यदि नन्हीं उम्र में बच्चे तलवार पकड़ लेते हैं, तो वे उसमें सिद्ध हस्त हो सकते हैं और देश का नाम भी रोशन कर सकते हैं साथ ही अपनी रक्षा भी करते हैं।
परंतु क्या किसी अंतर्राष्ट्रीय खेल के कौशल से भी लोगों को समस्या हो सकती है और वह भी खुद को बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोगों को? तो इसका उत्तर है हाँ! 9 नवंबर 2024 को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने एक अपने एक्स खाते से साझा की। इस तस्वीर में एक नन्हीं बच्ची शायद झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के रूप में आई थी या फिर और किसी स्त्री के रूप में, जिसके हाथों में तलवार थी और वह साड़ी पहने हुए थी। छोटी बच्ची है, जाहिर है कि कोई आयोजन ही किसी स्कूल में रहा होगा और जहां पर वह शिक्षा ग्रहण करती होगी।
मुख्यमंत्री मोहन यादव इस तस्वीर को कैप्शन देते हुए लिखा, “शक्ति और समृद्धि का प्रतीक बेटी!” यह तस्वीर अत्यंत गौरव से भरने वाली तस्वीर है। जिसमें प्रदेश के नेतृत्व की गोद में आने वाली स्त्री शक्ति है। वह सभ्यता, संस्कृति, समृद्धि, शक्ति और कौशल सभी को अपने में समेटे है। साड़ी भारत की पोशाक है और साड़ी ऐसा परिधान है, जो हर राज्य में लगभग अलग तरीके से पहनी जाती है, परंतु जब उसे कोई भी कन्या या स्त्री धारण करती है तो यह प्रतीक होता है कि वह भारत की आत्मा को आत्मसात किए हुए है। जब वह बिंदी और अन्य आभूषणों के साथ साड़ी धारण करती है तो वह उस समृद्धि का प्रदर्शन करती है, जो समृद्धि युगों-युगों से भारत की पहचान रही है।
जब वह तलवार के साथ साड़ी में दिखाई देती है तो वह शक्ति, समृद्धि, एवं संस्कृति तीनों का अद्भुत रूप होती है। वह यह दिखाती है कि समय आने पर वह शस्त्र धारण करने से भी नहीं चूकेगी। वह अपनी रक्षा करेगी। जब तलवार आत्मरक्षा और कौशल के रूप में उठती है तो वह देश की रक्षा और गौरव में सहायक होती है। इस भूमि पर देवी शृंगार और शस्त्र दोनों के साथ ही पूजी जाती हैं। मगर इस भूमि के हिंदू रूप से हृदय से घृणा करने वाले कथित बुद्धिजीवी लेखक शक्ति और समृद्धि को समझते नहीं हैं। वे इस सीमा तक औपनिवेशिक गुलाम हैं कि वे भारत की शक्ति को समझना ही नहीं चाहते हैं और इसी क्रम में इस प्यारी तस्वीर पर भी ऐसे लोगों ने टिप्पणी करने में कंजूसी नहीं की।
ऐसी ही एक कॉंग्रेस पोषित लेखिका हैं मृणाल पांडे। जिनकी हिंदू संस्कृति से घृणा छिपी नहीं है। उनकी प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा नेताओं से भी घृणा छिपी नहीं है। भाजपा एक राजनीतिक दल है, उससे दुराव होना स्वाभाविक है। परंतु उसके बहाने हिंदू धर्म की पूरी संस्कृति पर हमला करना नीचता है। मृणाल पांडे ने इस तस्वीर को दोबारा पोस्ट करते हुए लिखा कि “इस सुकुमार शरीर पर रेशमी साड़ी की बजाय सहज स्कूली पोशाक और हाथ में तलवार नहीं, पुस्तक होनी चाहिये ।“ और मुख्यमंत्री की इस तस्वीर पर ऐसे ही कई और लोगों के कमेन्ट में यही था कि बच्ची के हाथों में तलवार क्यों है? किताबें क्यों नहीं?
मृणाल पांडे आज से ऐसे कुतर्क नहीं कर रही हैं। वे भी लेखकों की उस जमात में से हैं, जिनके लिए वर्ष 2014 के बाद से भारत बदल गया है। जिनके लिए भारत 2014 के बाद से असहिष्णु हो गया है और इस असहिष्णु भारत में वे लगातार हिंदू धर्म और भाजपा के खिलाफ निर्बाध रूप से टिप्पणी करती जा रही हैं। हालांकि, उन्हें इसी पोस्ट पर एक व्यक्ति ने हिजाब के प्रति उनके रवैये की याद दिलाई। उन्होनें स्कूलों में हिजाब के आंदोलन का परोक्ष समर्थन करते हुए पोस्ट किया था।
एक्स पर उनके इस पोस्ट पर लोगों ने उन्हें आईना दिखाने का प्रयास किया, परंतु यही विरोध उन जैसे कथित बुद्धिजीवियों की ताकत होता है, जिसके बहाने वे दिखाते हैं कि भारत में उन्हें ट्रोल किया जाता है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। लेकिन यह जमात ऐसी है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की परिभाषा में केवल और केवल हिंदू विरोध रखती है। उसके लिए हिंदुओं की आस्थाओं पर प्रश्न उठाना ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इस बच्ची के ऐसे भारतीय रूप में किसी को क्या समस्या हो सकती है? और मार्शल आर्ट एक कौशल है, जो आत्मरक्षा के लिए हर लड़की को आनी ही चाहिए। लोगों ने मुख्यमंत्री की पोस्ट पर लिखा भी कि एक तस्वीर ने पूरे लिबरल गैंग को विचलित कर दिया।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर एक शक्ति से पूर्ण लड़की को कम्युनिस्ट लेखिकाओं को आपत्ति क्यों होती है? दरअसल उन्हें इसलिए आपत्ति होती है कि जब राजमाता जीजाबाई, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, मालवा की शासक अहिल्याबाई, रानी अवन्तीबाई लोधी, रानी दुर्गावती, रानी पद्मिनी, झलकारी बाई, जैसी साड़ी, शिक्षा और शस्त्र से समृद्ध स्त्रियों की कहानियाँ आम बच्चियों के जीवन का हिस्सा बन जाएंगी तो वह उस कम्युनिस्ट जहर को पीना बंद कर देंगी, जो आजादी के बाद से बच्चियों के दिमाग में ये लोग डालते आ रहे थे।
इन्हें अपनी दुकानें बंद होने का डर है, जिनकी असलियत आम जन धीरे-धीरे जान गया है। ये अपनी असली चेहरा सामने आने के कारण बौखला गए हैं।
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