गत 1 नवंबर को नई दिल्ली में प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार बिबेक देबरॉय का निधन हो गया। उनके निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘‘डॉ. बिबेक देबरॉय जी एक महान विद्वान थे, जो अर्थशास्त्र, इतिहास, संस्कृति, राजनीति, अध्यात्म और अन्य विविध क्षेत्रों में पारंगत थे। उन्होंने अपने कार्यों के माध्यम से भारत के बौद्धिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी। सार्वजनिक नीति में अपने योगदान से परे, उन्हें हमारे प्राचीन ग्रंथों पर काम करने और उन्हें युवाओं के लिए सुलभ बनाने में मजा आता था।’’
वहीं विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा, ‘‘उनके असमय निधन से भारत के आर्थिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और साहित्यिक जीवन में एक बड़ा शून्य हो गया है। वे एक अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने तथाकथित समाजवादी व्यवस्था को चुनौती दी और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने राजीव गांधी इंस्टीट्यूट फॉर कंटेम्परेरी स्टडीज, नीति आयोग के सदस्य, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष, कई राज्य सरकारों सहित अनेक प्रमुख संस्थानों के साथ काम किया।’’
उन्होंने कहा, ‘‘श्री देबरॉय ने संस्कृत भाषा में विशेषज्ञता प्राप्त की। उन्होंने महाभारत का अध्ययन किया, उसमें मूल एक लाख श्लोकों को छांटा, प्रक्षिप्त अंशों को अलग किया और ग्रंथ का अंग्रेजी में अनुवाद किया। यह दस खंडों और 22 लाख 50 हजार शब्दों की एक विशाल कृति है। श्री देबरॉय ने 18 पुराणों के 4,00,000 श्लोकों के अनुवाद सहित 11 उपनिषदों का भी अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनके निधन से न केवल भारत, बल्कि संपूर्ण विश्व को अपूरणीय क्षति हुई है। विश्व हिंदू परिषद दिवंगत आत्मा को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करती है।’’
क्षणभंगुर काया तू कहां से लाया!
सुबह-सुबह बिबेक देबरॉय की आत्मकथात्मक श्रद्धांजलि पढ़ी, लगा कि किसी ने चेहरे पर से मुखौटा उतार दिया हो। एक ऐसा व्यक्ति जो जीवन भर बौद्धिक चिंतन में डूबा रहा, अर्थशास्त्र और नीतियों की जटिलताओं में उलझा रहा, वही जब मृत्यु के करीब से लौटता है तो कैसी सहज मानवीय कमजोरियों को स्वीकार करता है। खुद पढ़ें-
एक महीने से ऊपर हो गया, एम्स के सीसीयू और प्राइवेट रूम में वक्त कटता गया। आज आखिरकार घर लौट आया हूं। इस सफर में मेरी पत्नी सुपर्णा हर कदम मेरे साथ खड़ी रही, जैसे आज की सावित्री। डॉक्टरों की मेहनत ने मदद की, और समय जाने कब निकल गया। लेकिन ये सिर्फ एक महीना नहीं था, ऐसा था जैसे कहीं खो गया था, जैसे पूरी दुनिया से ही गायब हो गया था।
मैं अस्पताल से रोज के लिमरिक्स (लेख/ कविताएं) लिखता रहा, ताकि सबको लगे कि सब ठीक-ठाक है। मेरे सह-लेखक आदित्य भी कुछ कॉलम चलाते रहे, और शायद ही किसी को मेरी कमी महसूस हुई। पर मेरे लिए दुनिया बस एक छोटी सी खिड़की से दिखती थी, जहां से एक पाइप दिखता था। रोज सुबह एक बंदर उस पाइप पर चढ़ता उतरता था। बस यही था मेरी दुनिया का हिस्सा। हर दिन आईवी ड्रिप की बूंदें गिनना, कभी-कभी हरिश को बुलाकर कुछ मांगना। कभी बिस्तर गंदा हो जाता, कभी खुद पर शर्मिंदगी महसूस होती। एक ऐसा शरीर बन गया था, जो अपनी पहचान, शर्म और आत्म-सम्मान सब खो बैठा था। कभी व्हीलचेयर पर ले जाया जाता, कभी स्ट्रेचर पर-अस्पताल के गलियारों से गुजरते हुए, धूप में पेड़ों के नीचे से होकर। मैं बस देखता था, सोचता था-ये दुनिया तो चल ही रही है, क्या फर्क पड़ता है अगर मैं इसमें नहीं हूं?
अगर मैं आज चला जाऊं तो? कुछ शोक संदेश आएंगे, शायद ‘अपूरणीय क्षति’ जैसे शब्दों के साथ। वे क्या याद करेंगे? 80 के दशक का व्यापार कार्य, 90 के दशक का कानून सुधार, 2000 के दशक का राज्य कार्य, 2015 का रेलवे सुधार, यहां तक कि 2005 में राजीव गांधी इंस्टीट्यूट से इस्तीफा? पुराण प्रोजेक्ट अधूरा रह गया। शायद फिर जन्म लूंगा, इसे पूरा करने के लिए। पर क्या सच में इसका इतना महत्व है? जीवन ने बहुत लोगों को छुआ, कुछ को बेहतर बनाया, कुछ को शायद दुख भी दिया। शायद वही लोग याद करेंगे, स्नेह और कड़वाहट के साथ। पर वे लोग शोक संदेश नहीं लिखते।
मेरे बेटे, स्कूल के बाद से ही विदेश में हैं, अब तो अमेरिका के हो गए हैं, भारत से दूर। एक दिन आएगा जब विमान में बैठोगे-आखिरी गले मिलने के लिए नहीं, बस अंतिम संस्कार के लिए। जरूरत पड़ी तो पैसे भेज देना, बस इतना ही काफी होगा। ये रिश्ता भी तो वैसा ही है, जैसा मेरा था मेरे माँ-बाप के साथ। कोई स्थायी नुकसान नहीं। दोस्तों और सहयोगियों को भी नहीं। कुछ मिलने आते हैं। हालांकि, एक महीना लंबा समय है। लोग बोर हो जाते हैं और भूल जाते हैं। वे क्यों आते हैं और क्या हुआ, कब हुआ, यह सब क्यों सुनना चाहते हैं? कमजोर और क्षीण, मुझे हर छोटी बात क्यों दोहरानी पड़ती है? सच्ची दिलचस्पी, या मौत और बीमारी में विकृत आनंद? मैं सब कुछ एक कागज पर लिख देना चाहता हूं। उन्हें पढ़ने के लिए दे सकता हूं। सुपर्णा वीटो कर देती है। बहुत रूखा होगा। अंतत:, एकमात्र निजी नुकसान सुपर्णा का होगा। किसी और को कोई फर्क नहीं पड़ता।
ययाति की कहानी याद आती है। मैंने उसे बस भोग की तरह देखा, पर अब समझ आता है-यह शरीर की पकड़ छोड़ने की चाह है।
हे जनक! अपने शरीर से विमुख हो जाओ। यह नामुमकिन है। सिवाय उस वक्त के, जब कोई सर्जरी चल रही हो और लोकल एनेस्थीसिया में हो। क्या वो अवचेतन मन की कोई चाल है, या फिर एक मतिभ्रम? बस एक क्षण के लिए, तेज रोशनी के बीच, ऐसा लगता है जैसे सितारों के संसार में घूम रहे हो, शरीर से अलग, स्वतंत्र। एक मादक क्षण, आनंद में डूबा हुआ। वो एक पल, जिसे बार-बार जीने का मन करता है, पर संभव नहीं। अभी विलीन होने का वक्त नहीं आया। शरीर धीरे-धीरे फिर से स्वस्थ हो जाएगा। लेकिन जो मन ने झेला है, उसका क्या? शायद ये झटका उसके लिए बेहतर ही हो …
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