मनुष्य अपनी विकास यात्रा में सदैव कहीं बीच में होता है। यानी यह एक प्रवाहमान प्रक्रिया है, जिसमें बहुत कुछ देश-काल-परिस्थिति के आधार पर बदलता रहता है। इस परिवर्तनशील यात्रा का मार्ग रैखिक हो सकता है और वृत्ताकार भी। रैखिक यानी सीधे आगे बढ़ना और वृत्ताकार यानी लौटकर उसी बिंदु पर आ जाना, जहां से चले थे। कुछ संदर्भों में हमारा यात्रा मार्ग रैखिक हो सकता है, कुछ में वृत्ताकार। यह इस पर निर्भर करता है कि ज्ञान, संस्कार और अनुभव की त्रिवेणी हमें किस संगम की ओर ले जाती है। परिवार व्यवस्था हमारी जीवन-पद्धति का आधार रहा है और समय के साथ इसमें कई तरह के बदलाव आए हैं। उक्त कसौटी पर परिवार को कसकर देखना आवश्यक है, क्योंकि जैसा परिवार वैसा समाज और जैसा समाज वैसा देश।
यह देखना होगा कि परिवार व्यवस्था में आ रहा बदलाव कितना स्वाभाविक है और कितना आरोपित यानी थोपा या ओढ़ा हुआ। यदि स्वाभाविक है, तो इसका भविष्य कैसा दिख रहा है और यदि आरोपित है, तो इसके पीछे आखिर वे कौन से कारक हैं और आगे यह किस रूप और परिणाम में सामने आ सकता है। इसमें संदेह नहीं कि विकास की कसौटी पर व्यापक होती आकांक्षाओं ने घरों की चारदीवारियों को छोटा किया है, अवसरों के केंद्र बने नगरों-महानगरों में कबूतरखानों में शांति खोजते जीवन के अर्थ महानगरीय भूलभुलैया में भटकते दिखते हैं। इसके बीच सामाजिक सहबद्धता के धागे कमजोर पड़ते और पीछे छूट गए साथी-संबंधी को हाथ पकड़कर आगे खींच लेने की भावना धुंधली होती दिखती है। इसकी प्रतिक्रिया में आत्म-केंद्रित भाव लोगों को अपने कब्जे में ले रहा है। यह सब हम अपने आसपास देख रहे हैं।
भारत में परिवार केवल एक सामाजिक इकाई नहीं है, यह एक ऐसी संस्था है, जहां जीवन के सभी रंग समाहित होते हैं। यह हमारे जीवन के हर पहलू को दिशा देता है और समाज, राष्ट्र और विश्व कल्याण का केंद्र बनता है। भारतीय संस्कृति में परिवार का महत्व ऐसा है कि इसे जीवन के हर क्षेत्र का आधार माना गया है।
भारतीय दृष्टि में परिवार सिर्फ रिश्तों की परिधि में सीमित नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा भाव है, जो प्रेम, सहयोग और नैतिकता से भरा है। परिवार में यह वात्सल्य और प्रेम हर सदस्य को उसकी जिम्मेदारियों का अहसास कराता है। यह वैसी ही भावना है, जिसे तमिल ग्रंथ ‘तिरुक्कुरल’ में ‘अथिगारम् उडैर्योे कत्तलै वढु अर्ण्णे कत्तलै यन्नोदिअदु’ श्लोक के माध्यम से समझाया गया है। इसका तात्पर्य है कि जिन्हें अधिकार मिले हैं, उनका कर्तव्य है कि वे अपनी जिम्मेदारियों को निष्ठा से निभाएं। यह विचार भारतीय परिवार व्यवस्था के मूल्यों और आदर्शों की पहचान कराता है।
समाज का स्तंभ
भारतीय समाज में परिवार को जीवन के हर क्षेत्र में एकता, त्याग और समर्पण के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। माता-पिता, गुरु और बुजुर्ग, परिवार के आदर्श-मार्गदर्शक होते हैं। ये अपने अनुभव और ज्ञान से परिवार के सदस्यों को न केवल व्यक्तिगत रूप से सशक्त बनाते हैं, बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए भी प्रेरणास्रोत बनते हैं। परिवार के इसी भाव को ‘कुटुम्बस्य वात्सल्यं सर्वधमार्णां परिपालकम्’ के माध्यम से व्यक्त किया गया है, जो बताता है कि पारिवारिक स्नेह, नैतिक मूल्यों और धार्मिक कर्तव्यों के पालन का आधार है।
वामपंथी दृष्टि
वामपंथी विचारधारा में परिवार को समाज में क्रांति के मार्ग में बाधा के रूप में देखा गया है। वामपंथी विचारक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स परिवार को एक ऐसी संस्था मानते थे, जो निजी संपत्ति और पूंजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने का काम करती है। उनके अनुसार, ‘‘परिवार समाज में वर्ग विभाजन को स्थिर करता है और क्रांतिकारी परिवर्तन की राह में रुकावट बनता है।’’
नारीवादी वामपंथी विचारक शुलामिथ फायरस्टोन इसे पितृसत्ता का आधार मानती हैं, जहां महिलाओं की स्वतंत्रता सीमित हो जाती है। वामपंथी दृष्टिकोण के अनुसार, ‘‘परिवार को नष्ट करने से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन आसान हो सकता है।’’ लेकिन यह दृष्टिकोण समाज और राष्ट्र के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता है, क्योंकि परिवार समाज की एकता, नैतिकता और सामंजस्य का आधार है।
विघटन के दुष्प्रभाव
परिवार के विघटन से सबसे बड़ा प्रभाव समाज और राष्ट्र की स्थिरता पर पड़ता है। जब परिवार टूटते हैं, तो समाज में नैतिकता, अनुशासन और सामूहिकता का ह्रास होता है। इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाता है, जिससे समाज में अव्यवस्था, असुरक्षा और अपराध बढ़ते हैं। परिवार के विघटन से राष्ट्र की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना भी कमजोर होती है।
वामपंथी दृष्टि, जो परिवार और समाज को तोड़कर केवल राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने की दिशा में काम करती है, समाज में विभाजन, संघर्ष और अस्थिरता को बढ़ावा देती है। इसके विपरीत भारतीय दृष्टि, जो परिवार को एकजुटता और समर्पण के माध्यम से देखती है, समाज और राष्ट्र के हर वर्ग के कल्याण का मार्ग खोलती है।
भारतीय दृष्टि
भारतीय दृष्टि केवल भारत तक सीमित नहीं है, यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’(संपूर्ण विश्व एक परिवार है) के सिद्धांत पर आधारित है। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है, जो केवल भारत के समाज और राष्ट्र तक सीमित नहीं है, बल्कि संपूर्ण मानवता और प्राणी-जगत के कल्याण की बात करता है।
परिवार की एकता, सामंजस्य और करुणा का यह भाव, समाज में शांति, सद्भाव और समृद्धि लाता है। भगवद्गीता का श्लोक ‘पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामह:’ इस बात की पुष्टि करता है कि भगवान स्वयं सृष्टि के पिता, माता और पालनकर्ता हैं। यह बताता है कि परिवार न केवल सामाजिक एकता और विकास का माध्यम है, बल्कि यह धार्मिक और आध्यात्मिक मूल्यों का भी मार्गदर्शक है।
भारतीय जीवन दृष्टि में परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह केवल समाज और राष्ट्र की स्थिरता के लिए ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए आवश्यक है। परिवार का विघटन न केवल समाज में अस्थिरता लाता है, बल्कि यह राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए भी खतरा पैदा करता है।
इसके विपरीत भारतीय दृष्टि, जो परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति दायित्व, कर्तव्य और नैतिकता का संदेश देती है, संपूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकती है। परिवार की इस व्यवस्थित संरचना को सुदृढ़ और सुरक्षित रखना भारतीय समाज और मानवता के लिए आवश्यक है। यही वह आधार है, जिस पर भारत और दुनिया का भविष्य टिका हुआ है।
परिवार जितना कमजोर होगा, सुरक्षा-आवश्यकताओं की सामूहिक गारंटी कमजोर होगी और विभिन्न तरह की वैयक्तिक गारंटी की व्यवस्था करनी होगी। यह सब हमारे सामने हो रहा है। समाज के धागे उधेड़कर क्रांति के रास्ते पर चलकर ‘आदर्श सम-समाज’ स्थापित करने की वामपंथी अवधारणा दुनियाभर में विफल हो चुकी है। जिस तरह प्रकृति दोहन को विकास का मार्ग समझते-समझते आज हम इसके संरक्षण में मनुष्य के भविष्य के मर्म को समझने लगे हैं, वैसे ही हमारी पारिवारिक व्यवस्था भी शायद वृत्ताकार मार्ग की ओर बढ़ने का मन बना रही हो!
पाञ्चजन्य का दीपावली विशेषांक परिवार की इसी परिधि, इसी वृत के नाम।
पढ़िए विचारिए, अपने कुटुंब के सदस्यों के चेहरों और मुस्कानों को निहारिए। दीपावली के इस ज्योतिर्मय वर्तुल में रामजी के उस बड़े परिवार की कहानी भी गुंथी है जो केवल अयोध्या नरेश दशरथ या महाराजा जनक के परिवारों तक सीमित नहीं है। आपको हमारा यह आयोजन कैसा लगा अवश्य बताइए।
पाञ्चजन्य के पूरे परिवार अर्थात् सभी पाठकों, वितरकों, विज्ञापनदाताओं और समस्त शुभचिंतकों को पंचपर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।
@hiteshshankar
टिप्पणियाँ