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न्याय की राह में अब खुली ‘आंखें’

जून-जुलाई में पसीने से लथपथ, निढाल-झुंझलाते ‘काले कोटों’ की आवश्यकता क्या है? वकीलों का पहनावा बर्मिंघम की बजाय बनारस की तर्ज पर, ब्रिटिशराज की बजाय प्रयागराज के अनुकूल हो तो इसमें किसे क्या आपत्ति होगी!

by हितेश शंकर
Oct 20, 2024, 08:15 am IST
in भारत, सम्पादकीय
न्याय की देवी की नई प्रतिमा

न्याय की देवी की नई प्रतिमा

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सर्वोच्च न्यायालय में ‘न्याय की देवी’ की नई प्रतिमा लगने वाली है। प्रतिमा की आंख पर बंधी पट्टी हट गई है, एक हाथ में तलवार की जगह संविधान है और गाउन की जगह साड़ी ने ले ली है। कहा जा रहा है कि ‘न्याय की देवी’ की नई प्रतिमा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्र्रचूड़ के निर्देश पर पिछले वर्ष बनाई गई थी। अभी यह प्रतिमा जजों के पुस्तकालय में रखी है।

ग्रीक आख्यान और औपनिवेशिक सोच भले जो रही हो, वस्तुत: यह नई प्रतिमा संदेश देती है कि देश का कानून ‘अंधा’ नहीं है। एक हाथ में संविधान होना यह दर्शाता है कि कानून भारत के संविधान के आधार पर चलता है, न कि उस औपनिवेशिक तलवार के जोर पर जो सिर्फ दंड देने के अधिकार का प्रतीक था। यह कदम तीन कारणों से स्वागत योग्य है।

पहला, अपने नए रूप में न्याय की देवी की प्रतिमा सम्भवत: भारतीय चित्त-मानस के अधिक निकट होगी। पुरानी प्रतिमा ‘डाइक’ की थी, जिन्हें ग्रीक देवी थेमिस की पुत्री कहा जाता है।

दूसरा, पुरानी प्रतिमा में बदलाव, परिवर्तन को स्वीकारने की भारतीय खुली सोच के अनुरूप है। पुरानी प्रतिमा औपनिवेशिक मानसिकता से प्रेरित थी।

तीसरा, नई प्रतिमा और बदलाव उन जंजीरों-रूढ़ियों को तोड़ने का संकेत भी है जो औपनिवेशिक शासन में भारत को बिना समझे और समाज की इच्छा के बिना हम पर लादी गई थीं।

वास्तव में विभिन्न प्रतीकों से अभिव्यक्त होने वाली हमारी संस्कृति में सबका कर्तव्य पथ निश्चित है और इसके अनुरूप आचरण को तौलते हुए सही-गलत का निर्णय करने वाली न्यायदृष्टि निष्पक्ष है।

सेकुलरवाद और निरपेक्ष न्याय की आधुनिकतम परिभाषाओं के बिना भी यह भारत ही है जहां धर्म की संकल्पना आस्था और पंथ से बंधी नहीं है। यहां धर्म सबके लिए समान है। और तो और यहां पितृ धर्म, पुत्र धर्म, पत्नी धर्म है। पितृ धर्म मतलब पिता के रूप में व्यक्ति का कर्तव्य, पुत्र धर्म माने पुत्र के रूप में व्यक्ति का कर्तव्य, और पत्नी का धर्म यानी पति, उसके परिजन, उसके बंधु-बांधवों के प्रति उसका कर्तव्य।

भारतीय संविधान निर्माताओं को भारत का यह भाव स्पष्ट रूप से पता था। न्यायपालिका का ध्येय वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ (जहां धर्म है, वहां विजय है) धर्म की उसी संकल्पना की झलक देता है। यह ध्येय वाक्य भारत के सर्वोच्च न्यायालय के ‘लोगो’ में बने अशोक चक्र के नीचे लिखा है।

यह बात दीगर है कि धर्म की संकल्पना को ‘रिलीजन’ मानने वाले, दण्ड और अधिकार की बात करने वाले ‘अंधे कानून’ के समर्थक यह बात नहीं समझते। न्याय और कर्त्तव्य की युति और धर्म तथा आस्था-उपासना का अंतर भारतीय समाज व्यवस्था को रचने वाला समीकरण है।

न्याय की देवी की नई प्रतिमा की आंख पर पट्टी न होना, हाथ में संविधान होना और पहनावे के रूप में साड़ी इसी भारतीय भाव की पोषक है। यह औपनिवेशिक भाव से भी मुक्त है और किसी आस्था, पंथ और मत से प्रभावित भी नहीं है।

भारतीय न्याय दृष्टि को समझना हो तो गुजरात के वडोदरा स्थित महारानी चिमनाबाई न्याय मंदिर की बात भी अवश्य करनी होगी। यह भवन इंडो-सरसेनिक वास्तुकला का अनूठा उदाहरण और महत्वपूर्ण सांस्कृतिक स्थल है। इस न्याय मंदिर को 1896 में महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय ने अपनी पत्नी महारानी चिमनाबाई प्रथम की याद में बनवाया था। पहले इसका उपयोग टाउन हॉल के रूप में होता था, लेकिन बाद में इसे इम्पीरियल कोर्ट बना दिया गया। यह केवल न्यायालय का भवन नहीं है, बल्कि यह वडोदरा की समृद्ध सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत का प्रतीक है।
दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय में यह नया बदलाव भारतीय न्याय की संकल्पना और इसकी आत्मा के अनुरूप है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘पंच परिवर्तन’ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चिन्हित ‘पंच प्रण’ के भी निकट है। संघ का ‘पंच परिवर्तन’ स्वयं की चेतना, पारिवारिक चेतना, सामाजिक चेतना (सामाजिक समरसता), राष्ट्रीय चेतना (नागरिक के रूप में कर्तव्यों का पालन) और वैश्विक चेतना यानी पर्यावरण के अनुकूल जीवन पर जोर देता है। वहीं, प्रधानमंत्री के ‘पंच प्रण’ में विकसित भारत का लक्ष्य, औपनिवेशिक प्रतीकों से मुक्ति, अपनी विरासत पर गर्व करना, एकता-एकजुटता और नागरिकों में कर्तव्य की भावना होना शामिल है।

प्रतिमा में बदलाव भले स्थूल हों, किन्तु यह उस भारतीय न्याय दर्शन की देहरी पर दस्तक जैसा है जहां विश्व में सबसे पहले न्याय की अवधारणा और आयामों को सर्वाधिक सूक्ष्मता से समझने-बताने और लिपिबद्ध करने का काम हुआ। भारतीय न्याय दर्शन वैदिक परंपरा के छह प्रमुख दर्शनों में से एक है, जिसका उद्देश्य तर्क और प्रमाण के आधार पर सत्य की खोज करना है। इसमें पांच प्रकार के प्रमाणों का उल्लेख किया गया है। ये हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और अर्थापत्ति। न्याय दर्शन का मूल सिद्धांत इन प्रमाणों के आधार पर तर्क करना और सत्य को समझना है।

आधुनिक न्याय व्यवस्था में भी न्याय दर्शन की उपयोगिता देखी जा सकती है, विशेष रूप से न्यायपालिका में तर्क और साक्ष्य के महत्व के संदर्भ में। आधुनिक न्याय व्यवस्था में भारतीय न्याय दर्शन की सूक्ष्मता को संवैधानिक ढांचे में देखा जा सकता है। भारत का संविधान सामाजिक न्याय, पंथनिरपेक्षता और समानता पर आधारित है, जो भारतीय न्याय दर्शन की पुरातन धारणाओं की आधुनिक पुनर्व्याख्या है।

न्यायपालिका का स्वतंत्र और निष्पक्ष होना आधुनिक न्याय व्यवस्था का आधार है, जो प्राचीन न्याय के आदर्श रूप में विकसित हुआ है। अत: भारतीय न्याय दर्शन की प्राचीनता और बारीकी पर न्याय शास्त्र में जितना काम हुआ है, उसके लिए वैयक्तिक प्रतीक और प्रतिमान देखने की बजाए हम परंपराओं को देखें तो ज्यादा अच्छा रहेगा।

कहना चाहिए कि वर्तमान बदलाव गूढ़ और प्रतीकात्मक है। इसका हृदय से स्वागत होना चाहिए। हालांकि इसके साथ ही न्यायपालिका में अभी कुछ आधारभूत बातें हैं, जिन्हें जल्दी से जल्दी बदलने की आवश्यकता है।

सबसे बड़ी चुनौती है देश की सबसे बड़ी अदालत में न्यायिक कामकाज की भाषा। दरअसल, लोगों के मुकदमों में जिरह-बहस तो होेती है, लेकिन ऊपरी अदालतों में सब अंग्रेजी में चलता है इसलिए जिनका मुकदमा है उन्हें ही यह समझ में नहीं आता कि आखिर चल क्या रहा है।

कई बार तो वकीलों को भी भाषा संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। देश के गृह मंत्री ने तकनीकी शिक्षा और न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं के आग्रह का विषय बहुत संवेदनशीलता के साथ उठाया था। बाद में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने भी इस बात की आवश्यकता जताई थी कि अदालती कामकाज हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं में हो।

दूसरा आयाम कुछ अधिक दिलचस्प है। यह न्यायपालिका को न्यायपालिका से न्याय दिलाने के आग्रह से जुड़ी बात है। ऐसी कि जिसकी बात पूरी न्यायपालिका में अधिकतर वकील दबी जुबान से बार-बार करते रहे हैं। ध्यान दीजिए, आज भी वकीलों और न्यायाधीशों की वेशभूषा अंग्रेजों के जमाने की है। 1627 में ब्रिटेन के शासक एडवर्ड तृतीय ने न्यायाधीशों के लिए ड्रेस कोड लागू किया था, जिसमें काला कोट अनिवार्य किया गया था। इसके बाद 1635 में ड्रेस कोड की नियमावली बनी।

1680 में इसमें फिर से बदलाव किया गया और न्यायाधीशों के लिए काला कोट, सफेद बैंड, गाउन और विग (हेडपीस) पहनना अनिवार्य किया गया। हालांकि 1950 के उत्तरार्ध में पहनावे से विग तो हटा दिया गया, लेकिन वकीलों और न्यायाधीशों की वेशभूषा वही रही।

जून-जुलाई में पसीने से लथपथ, निढाल-झुंझलाते ‘काले कोटों’ की आवश्यकता क्या है? वकीलों का पहनावा बर्मिंघम की बजाय बनारस की तर्ज पर, ब्रिटिशराज की बजाय प्रयागराज के अनुकूल हो तो इसमें किसे क्या आपत्ति होगी! बहरहाल, प्रतिमा में बदलाव कुछ और परिवर्तनों की पुकार को मुखर करे तो इसमें किसी को आश्चर्य और आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

क्यों न्यायाधीशों का पहनावा भारतीय परिधानों और मौसम के अनुरूप नहीं होना चाहिए?
क्यों अदालती कार्यवाही उन भारतीय भाषाओं में नहीं होनी चाहिए, जिसे न्याय की आस रखने वाला आमजन समझ सके?

और क्यों भारतीय न्याय दर्शन संकल्पना के आधार पर न्याय नहीं होना चाहिए?
इसलिए न्याय की देवी की प्रतिमा में जो बदलाव हुए हैं, उसका स्वागत करते हुए अब बाकी आयामों को भी ठीक करने की आवश्यकता है।

@hiteshshankar

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